साक्षात्कार: बिहार में इस साल अब तक एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के चलते मुज़फ़्फ़रपुर व उसके आसपास के ज़िलों में 150 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है. यह बीमारी 1995 में सामने आई थी, तब से हर साल बच्चों की मौत हो रही है, कभी कम तो कभी ज़्यादा. इस बीमारी के तमाम पहलुओं को लेकर मुज़फ़्फ़रपुर में साढ़े तीन दशक से काम कर रहे प्रख्यात शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ.अरुण शाह से उमेश कुमार राय की बातचीत.
पिछले दो–तीन सालों में एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से होने वाली बच्चों की मौत आंकड़े में कमी देखी गई थी, लेकिन इस बार 150 से ज्यादा बच्चों की जान गई, सरकार कहां फेल हुई ?
सरकार ये मान रही है कि इस बार जागरूकता अभियान चलाने में कोताही हुई. सबसे खराब बात ये है कि हमारे यहां पेरिफेरल (ग्रामीण) हेल्थकेयर डिलीवरी सिस्टम बहुत खराब है. अभी मुजफ्फरपुर जिले में 103 प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी) हैं. उन्हें सोशल ऑडिट में शून्य रेटिंग मिला है क्योंकि इन हेल्थ सेंटरों में बुनियादी ढांचा ही नहीं है.
बहाली है, तो डॉक्टर नहीं है, नर्स नहीं है. भारत सरकार की अनुशंसा है कि 50 हजार आबादी पर एक पीएचसी होनी चाहिए. मुजफ्फरपुर की आबादी के लिहाज से हमें पीएसची को 103 से बढ़ाकर कम से कम 170 करना होगा. पीएचसी का बुनियादी ढांचा ठीक करना होगा और प्रभावी तरीके से इसे लागू करना होगा. ये भी सुनिश्चित करना होगा कि इन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में बेहतर चिकित्सीय सेवा मिल सके.
क्या आपको लगता है कि अगर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में इलाज की समुचित व्यवस्था होती, तो बहुत सारे बच्चों को बचाया जा सकता था?
मेरा अनुमान है कि अगर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में व्यवस्था होती, तो कई जानें बच सकती थीं. मेरे पास (निजी अस्पताल में) इंसेफलाइटिस से पीड़ित कुछ बच्चे आए थे. 10 दिन पहले ही एक बच्चा आया था. नर्स ने बताया कि बच्चे को चमकी है और वह बेहोश है. मैंने चेक किया, तो पाया कि उसके शरीर में ब्लड शुगर रिकॉर्डेबल ही नहीं था. मतलब कि ब्लड शुगर शून्य से भी नीचे था. उसे तुरंत 10 परसेंट इंट्रावेनस इंसुलिन दिया गया. यकीन मानिए 45 मिनट के भीतर बच्चा बैठ गया. उसने पानी मांगा और बिस्कुट भी खाया. एक घंटे में ही वह सामान्य हो गया.
ऐसी सुविधा अगर ग्रामीण स्तर के स्वास्थ्य केंद्र में रहती, तो निश्चित तौर पर बच्चों को बचाया जा सकता था. सरकार का तो दिशानिर्देश भी है कि अगर इस महीने में इस तरह की बीमारी हो, एक डॉक्टरों को ग्लूकोमीटर से बच्चों के शरीर में शुगर लेवल चेक कर 10 परसेंट इंट्रा वेनस डेक्सट्रोज इनफ्यूज करना है, ताकि शुगर लेवल बढ़े. ज्या
दातर बच्चे हाइपोग्लाइसीमिया से मरे हैं. जिस टॉक्सिन की हम बात कर रहे हैं, वह हाइपोग्लाइसीमिया करता है. हम जब 10 परसेंट डेक्सट्रोज देते हैं, तो वो रुके हुए सारे मेटाबोलिक प्रोसेस को पलट देता है.
विशेषज्ञों का कहना है कि लीची के बीजों में वो जहरीला तत्व होता है, जो शुगर लेवल को कम कर देता है, लेकिन बीज तो कोई खाता नहीं है.
नहीं, ऐसा नहीं है. न केवल बीज बल्कि लीची के पल्प (गूदे) में भी जहरीला तत्व होता है और खासकर कच्ची व सड़ी लीची में ये ज्यादा होता है. बच्चों के अभिभावक लीची बागानों में काम करते हैं. उनके बच्चे दिन भर उसी बागान में रहते हैं और दिन भर जमीन पर गिरी लीची खाते रहते हैं.
मगर आप देखिए कि इन बच्चों के पास विकल्प भी तो नहीं है. आप गांवों में जाकर इन बच्चों का रहन-सहन और घर देखिए. बहुत दयनीय हालत में रहते हैं. इतनी दयनीय हालत में कोई भी बीमार पड़ जाएगा, फिर इसमें लीची कैसे दोषी हो गई? दोषी तो ये कुपोषण है. इन बच्चों की मजबूरी है कि इनके हालात ऐसे हैं.
जब मुजफ्फरपुर में इंसेफलाइटिस की बात होती है, तो साल 1995 का जिक्र आता है. अचानक 1995 में और उसके बाद ही क्यों यहां इंसेफलाइटिस का कहर बरपने लगा? उससे पहले क्यों नहीं था?
हमने 1995 से बच्चों को इंसेफलाइटिस से मरते हुए देखा है और सरकार की संवेदनहीनता भी देखी है. मैं 1984 से यहां काम कर रहा हूं. मुझे लगता है कि 1984 से 1995 के बीच हमने शायद इस महामारी के बारे में बहुत कम सुना.
दरअसल, 1995 के बाद मीडिया की पैठ बढ़ी और सोशल मीडिया भी काफी मजबूत हुआ है. इस साल 150 बच्चे मरे हैं, लेकिन एक समय 500 से भी ज्यादा बच्चे मरे हैं. 2014 में 400 के आसपास बच्चे मरे थे. 1995 से पहले भी इंसेफलाइटिस से मौतें होती रही होंगी, लेकिन इनकी अंडर रिपोर्टिंग हुई.
1995 के बाद मीडिया सशक्त हुई और इसकी रिपोर्टिंग बढ़ी. 1995 के बाद सरकार ने भी कुछ कदम उठाना शुरू किया, लेकिन टर्शियरी लेवल पर, वह भी ढकोसले से ज्यादा कुछ नहीं था. आपको बीमारी की जड़ पकड़नी है और इस बीमारी की जड़ क्या है – गरीबी है, गंदगी है, कुपोषण है. इससे लड़ना है.
आप गर्मी-उमस से नहीं लड़ सकते, लेकिन गरीबी से लड़ सकते हैं. कुपोषण से लड़ सकते हैं. गंदगी से लड़ सकते हैं. क्यों नहीं पीएचसी स्तर पर ही बच्चों के इलाज की व्यवस्था की गई?
अगर कोई बच्चा कुपोषण का शिकार है, लेकिन अगर वह कच्ची या सड़ी हुई लीची नहीं खाता है, तब भी क्या वह एईएस का शिकार हो सकता है ?
नहीं. देखिए, कुपोषण तो सालभर रहता है, लेकिन बच्चे मई-जून में ही क्यों इसका शिकार होते हैं? क्योंकि उन्हें इस मौसम में कच्ची व सड़ी हुई लीची के रूप में ट्रिगरिंग फैक्टर मिल जाता है. लेकिन मैं लीची को दोष नहीं दूंगा. मैं दोष दूंगा कुपोषण को.
अगर लीची को परे रख कर देखें, तो क्या ऐसी भी कोई आशंका है कि मुजफ्फरपुर की आबोहवा में ऐसे वायरस मौजूद हैं, जो मई और जून के महीने में सक्रिय हो जाते हैं, जिससे इस बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है?
हम लोगों ने इस एंगल को भी काफी खंगाला, लेकिन हमें ऐसा कुछ भी नहीं मिला. इसको लेकर हुए सारे शोधों में किसी वायरस के होने की संभावना को पूरी तरह खारिज कर दिया गया है. 2014 में हमने जो शोध किया था, उसमें ये भी पता चला था कि जिन बच्चों में शुगर लेवल कम रहता था, उन्हें 10 परसेंट डेक्सट्रोज दे देने से वे ठीक हो जाते थे.
ये दर्शाता है कि ये एक मेटाबॉलिक बीमारी है न कि वायरल बीमारी. अगर वायरल बीमारी होती, तो 10 परसेंट डेक्सट्रोज देने से कुछ नहीं होता. अब तक कई टीमें जांच करने के लिए आईं, वे बच्चों के ब्लड सैंपल्स भी ले गईं और तमाम शोध हुए मगर उनमें किसी तरह का कोई वायरस नहीं मिला.
1995 के बाद से लेकर अब तक हुए शोध एईएस के बारे में क्या कहते हैं?
2014 से पहले तक इस बीमारी को लेकर कोई शोध नहीं हुआ था. इसको लेकर हर कोई अंधेरे में हाथ-पैर मार रहा था और कयास लगाए जा रहे थे. कोई कहता था कि हीट स्ट्रोक से होता है, तो कोई कहता कि इन्फेक्शन हुआ है.
उसी साल मैंने अपने सामर्थ्य से इस बीमारी पर शोध करने का फैसला लिया. मुझे लगा कि ये मेरी जिम्मेदारी है पता लगाने की कि आखिर हर साल इस महीने में बच्चे मौत का शिकार क्यों हो रहे हैं. हमने स्वतंत्र रूप से बिना किसी सरकारी फंड के शोध कार्य शुरू किया. हमारी टीम में तीन लोग थे– डॉ. जैकब जॉन, मुकुल दास और मैं खुद.
डॉ. जैकब जॉन प्रधान शोधकर्ता थे और अपने खर्चे पर मुजफ्फरपुर आए थे शोध करने के लिए. हम लोगों ने सारे केसों की स्टडी शुरू की और इस नतीजे पर पहुंचे कि सारे पीड़ित बच्चे बहुत गरीब परिवार के थे. सारे बच्चे कुपोषित थे. ये भी पता चला कि ये बीमारी हर साल मई-जून के महीने में लीची के सीजन में ही होती है. एईएस से पीड़ित ज्यादातर बच्चों का शुगर लेवल बहुत कम पाया गया था.
केसों की स्टडी करते हुए एक दिलचस्प बात ये भी पता चली कि 90 फीसदी से ज्यादा मामलों बच्चों की गतिविधियां एक-सी थीं. बच्चे सुबह सोकर उठे, तो सामान्य थे. उन्होंने खेल-कूद किया. गर्मी के समय में मां-बाप के साथ लीची बागान में चले गए और वहां जो मिला, सो खा लिया. रात में बच्चे घर लौटे और सो गए. सुबह तीन से चार बजे के बीच ये बीमारी शुरू हो गई.
इसका मतलब ये है कि कोई टॉक्सिन काम कर रहा है. उस टॉक्सिन (विषाक्त तत्व) के बारे में जब हमने पता लगाया, तो पता चला कि कच्ची, अधपकी व सड़ी हुई लीची में पाया जाता है.
इस साल 150 से ज्यादा बच्चों ने जान गंवाई है, आने वाले सालों में ऐसा न हो, इसके लिए क्या तैयारियां की जानी चाहिए?
जब हमने पता लगा लिया कि इस बीमारी की जड़ में कुपोषण है, तो हमें कुपोषण पर काम करने की जरूरत है. नेशनल रूरल हेल्थ मिशन, मिड डे मील, आईसीडीएस, जन वितरण प्रणाली, बिहार सरकार संचालित बाल कुपोषण कार्यक्रम आदि को प्रभावी तरीके से लागू करना होगा. जमीनी स्तर पर इन कार्यक्रमों को प्रभावी बनाना चाहिए.
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को सक्रिय करना होगा. हेल्थ एजुकेशन, न्यूट्रीशन एजुकेशन को गरीब तबके तक पहुंचाना होगा. लेकिन, सरकार की उदासीनता है कि वो ऐसा नहीं कर रही है. मुझे ये कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि सरकार को जो करना चाहिए वह कर नहीं रही है.
इस बीमारी को लेकर बिहार सरकार की तरफ से कोई शोध हुआ है?
बिहार सरकार की तरफ से अब तक कोई शोध नहीं कराया गया और न ही इसके लिए कोई फंड ही जारी हुआ. हां, केंद्र सरकार ने अमेरिका की संस्था के साथ मिलकर एक शोध जरूर किया. वर्ष 2014 में हम लोगों ने शोध किया था. उसी साल एक और पृथक शोध चल रहा था.
ये शोध अटलांटा का सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रीवेंशन और केंद्र सरकार का नेशनल सेंटर ऑर डिजीज कंट्रोल मिलकर रह रहा था. इस स्टडी का भी परिणाम ठीक वही निकला, जो हमारे शोध का था. हमारा शोधपत्र उसी साल द लैसेंट में छपा जबकि केंद्र सरकार व अमेरिकी संस्था का शोधपत्र 2017 में प्रकाशित हुआ. मगर इस शोध में बिहार सरकार की कोई भूमिका नहीं थी.
बिहार सरकार ने अब तक कोई शोध नहीं कराया. अलबत्ता, वर्ष 2016 में बिहार सरकार ने डॉ. जैकब जॉन को आमंत्रित किया कि राज्य सरकार द्वारा तैयार किए जा रहे स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रॉसीजर्स (एसओपी) में वे अपना इनपुट दें.
हम लोगों ने कुल चार इनपुट सरकार को दिए – (1) कुपोषण से लड़ना, (2) गरीब बच्चों को रात में खाली पेट नहीं सोने देना, (3) बच्चों को लीची बागान में जाने और खाली पेट कच्ची लीची नहीं खाने देना और (4) प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को मजबूत करना.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंसेफलाइटिस से बच्चों की मौत को शर्मनाक बताते हुए ‘आयुष्मान भारत योजना’ का जिक्र किया है. क्या ‘आयुष्मान भारत योजना’ इंसेफलाइटिस से लड़ने में मददगार हो सकता है?
आयुष्मान भारत से इंसेफलाइटिस का कोई लेना-देना नहीं है. आयुष्मान भारत तो में तो जो आदमी बीमार पड़ेगा, उसे सरकार 5 लाख रुपए इलाज के लिए देगी. यहां केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन आए और उन्होंने कहा कि श्रीकृष्णा मेडिकल कॉलेज व अस्पताल (एसकेएमसीएच) में 50 बेड के वार्ड को बढ़ाकर 150 बेड का किया जाएगा… ये कोई मजाक चल रहा है क्या!
ठीक है, आप अस्पताल को मजबूत कीजिए. लेकिन एक गांव का बच्चा जब बीमार पड़ता है, तो उसे तुरंत बड़े अस्पताल की जरूरत नहीं पड़ती है. उसे जरूरत पड़ती है प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की, ताकि तुरंत इलाज किया जा सके. इंसेफलाइटिस का कारण कुपोषण है और आयुष्मान भारत कार्ड से कुपोषण दूर नहीं होगा.
इंसेफलाइटिस से पीड़ित बच्चे अगर ठीक हो भी जाएं, तो क्या वे जिंदगी भर नॉर्मल रह पाते हैं?
नहीं. जो बच्चे ठीक होकर जाते हैं, उनमें से बहुत सारे शारीरिक या मानसिक विकलांग हो जाते हैं. जो टॉक्सिन दिमाग के ब्लड बैरियर में जाता है, वह दिमाग को नुकसान पहुंचाता है. पूरे शरीर में दिमाग ही इकलौता हिस्सा है, जो एक बार क्षतिग्रस्त हो गया, तो दोबारा उसकी मरम्मत नहीं हो सकती है.
शरीर की कोशिका दोबारा बनती है, लेकिन दिमाग की कोशिका, जिसे न्यूरॉन कहा जाता है, वो दोबारा नहीं बनता है. इंसेफलाइटिस किसी बच्चे तो अपंग बना सकता है, किसी को मानसिक तौर पर सुस्त कर सकता है, कोई अंधा हो सकता है.
सरकार को केवल मृत बच्चों के परिजनों को 4 लाख रुपए मुआवजा देकर पल्ला नहीं झाड़ना चाहिए. सरकार को इस मानवीय पहलू पर भी सोचना चाहिए. जिन परिवारों के बच्चे इंसेफलाइटिस से ठीक होकर गए हैं, उन बच्चों की क्या हालत है, ये सरकार को पता लगाकर उनकी समुचित पुनर्वास करना चाहिए. इन बच्चों का इलाज सरकार को कराना चाहिए.
आपने एक इंटरव्यू में कहा तह कि अगर इच्छाशक्ति हो, तो एक साल में ही बच्चों को इस रोग के प्रकोप से बचाया जा सकता है. इस बारे में थोड़ा विस्तार से बताइए.
देखिए, ये रोग इतना भी गंभीर नहीं है कि इससे बचा नहीं जा सकता है, बशर्ते कि हम ईमानदारी से काम करें. इस सीजन में गांवों में जागरूकता अभियान तेज कर अभिभावकों को बताना होगा कि बच्चों को लीची के बागान में नहीं जाने देना है. खाली पेट कच्ची व गिरी हुई लीची नहीं खानी है.
कुपोषण से लड़ने के लिए एक लंबा और प्रभावी कार्यक्रम बनाने की जरूरत है. सरकारी कार्यक्रमों को प्रभावी तरीके से लागू करना होगा. आंगनबाड़ी से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक के कामकाज की जिम्मेदारी तय करनी होगी. प्राथमिक केंद्र में डॉक्टर काम करें, ये सुनिश्चित करना होगा. अगर इस स्तर पर तेजी से काम होगा, तो एक भी बच्चा इस बीमारी से नहीं मरेगा.
कुपोषण को दूर करने के लिए बड़े स्तर पर काम करना होगा. साथ गरीब लोगों को बताना होगा कि उनके पास स्थानीय स्तर पर कौन-सा खाद्य उपलब्ध है, जिसमें पौष्टिक तत्व है और उसे बच्चों को खिलाना चाहिए.
साथ ही साथ इन गरीब परिवारों के लिए स्थानीय स्तर पर ही रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे. ये सब ईमानदारी पूर्वक और साल भर किया जाए, तो मैं समझता हूं कि अगले साल एक भी बच्चा इंसेफलाइटिस का शिकार नहीं होगा.
(उमेश कुमार राय स्वतंत्र पत्रकार हैं.)