क्या ज़िंदा क़ौमों के बीच की राजनीति का ये मौजूं होना चाहिए?

निराशा और निष्क्रियता के गर्त में चले गए विपक्षी दलों को संबोधित करते हुए एक खुला ख़त लिख रहे हैं राजद के प्रवक्ता मनोज कुमार झा...

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निराशा और निष्क्रियता के गर्त में चले गए विपक्षी दलों को संबोधित करते हुए एक खुला ख़त लिख रहे हैं राजद के प्रवक्ता मनोज कुमार झा.

Intolerance March by opposition congress PTI
फाइल फोटो: पीटीआई

विपक्षी दलों के मेरे प्रिय साथियों,

नमस्कार!

सबसे पहले तो कुछ डिस्क्लेमर सामने रख देना चाहता हूं ताकि आप में से किसी को भी यह न लगे कि इस ख़त की तामीर उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों के बाद हुई है. इसकी आरंभिक रूपरेखा संभवत: मई, 2014 से पहले हो चुकी थी.

दूसरी बात यह है कि ये ख़त शिकायतनामा तो ज़रूर है लेकिन किसी दल विशेष के लिए नहीं है. इस ख़त में मेरी कोशिश है अपनी सामूहिक कमज़ोरियों और असफलताओं पर ग़ौर करें ताकि हम और हमारे दल न सिर्फ़ समकालीन राजनीति में प्रासंगिक रहें बल्कि ‘सत्यातीत प्रसंगों’ और उस पर आधारित राजनीति को भी बेनक़ाब कर सकें.

चलिए इस अफ़साने में पहली शिकायत लाई जाए. करीब साठ वर्ष पूर्व एक पाश्चात्य चिंतक, डेनियल बेल ने राजनीति में ‘विचारधारा के अंत’ की घोषणा कर दी थी और हमने साठ वर्ष बाद उनको इतनी गंभीरता से ले लिया कि हमने अपनी विचारधारा को म्यूजियम में बिना बिदाई गीत तक के जाने दिया है.

प्रगतिशील और लोकोन्मुख राजनीति, विचारधारा से विलग बिल्कुल उसी तरह है जैसे बिना किसी पोषक तत्व के आप शिशु के स्वस्थ बने रहने की कामना करें.

कमाल तो यह है विचारधारा से दूर होते-होते हमारे पांवों के नीचे की ज़मीन खिसकती रही और हम किस्म-किस्म के मुग़ालते पालते रहे.

प्रथमतः इस आलोक में और कई वज़हों से हम सारे दल चुनाव लड़ने की एक पुरानी मशीन बन कर रह गए हैं.

जम्हूरियत में एक नियत अवधि में चुनाव की तैयारी एक महत्वपूर्ण अवयव है लेकिन राजनीतिक गतिविधि और सक्रियता सिर्फ़ चुनावों तक ही महदूद नहीं रह सकती.

क्या ऐसा नहीं है कि अवाम के साथ हमारा सामाजिक, राजनीतिक रिश्ता और संवाद चुनाव आयोग के चुनाव के तिथियों की घोषणा से शुरू होता है और नतीजे आने के साथ ख़त्म हो जाता है?

हिंदुस्तान की भावना और संविधान के महत्वपूर्ण सरोकार, मसलन स्वतन्त्रता, सामाजिक-आर्थिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता आदि हमारी ज़ुबान पर चुनाव के दौरान लगातार बने रहते हैं.

हम बहसों में बार-बार इसका ज़िक्र करते हैं, भावों और सरोकारों की क़समें खाते हैं. अगर कोई विदेशी पत्रकार या आॅब्ज़र्वर उन दिनों हमारे मुल्क की यात्रा करे तो वो हमारी राजनीतिक संस्कृति और संवाद पर कसीदे लिखेगा.

लेकिन उस बेचारे को संभवत: यह नहीं पता चलेगा कि हमारी सारी प्रतिबद्धताएं चुनाव के पश्चात या तो सुस्त पड़ जाती हैं या उनके बीच की वैचारिक डोर ढीली हो जाती है.

मेरा आपसे संवाद निराशा और हताशा की स्याही से हो, यह न मेरी मंशा है और न ही मौजूदा हालात में यह उचित है.

मुझे जो हक़ीक़त परेशान कर रही है वो बिल्कुल साफ़ है कि दक्षिणपंथी अधिनायकवाद नवउदारवादी दौर के नियामकों के साथ राजनीति की दशा और दिशा बदल दे रहा है और हम अपना चश्मा बदलना तो दूर, उसके शीशे को रुमाल से भी साफ़ करने को तैयार नहीं हैं.

हमें सघन और वास्तविक चिंतन और आत्ममंथन की ज़रूरत है कि ऐसा क्यूं हो रहा है कि दक्षिणपंथी रुझान कुछ मीडिया घरानों के साथ एक ‘नये भारत’ के जन्म की उद्घोषणा कर रहा है और हम पुराने भारत के महत्वपूर्ण सरोकारों मसलन सामाजिक न्याय, अभिव्यक्ति की आज़ादी, धर्मनिरपेक्षता की अन्त्येष्टि में लगभग शरीक से होते जा रहे हैं.

सामाजिक न्याय को ‘योग्यता’ से लड़ाया जा रहा है और सेक्युलरिज़्म को मुसलमानों के ‘तुष्टीकरण’ के रूप में परोसा जा रहा है.

हुकूमत के साथ-साथ कुछ पत्रकार मित्र इस सत्यातीत मुहावरों को गढ़ने में शरीक हैं और हमारी ख़ामोशी उनकी हमसुखन होती जा रही है.

एक ज़िंदादिल इंसान रोहित वेमुला, ‘जिसका जन्म एक घातक दुर्घटना था’ हमारी पूरी सभ्यता के नाम ख़ुदकुशी का ख़त छोड़ गया और बजाय इसके कि हम इस ‘संस्थानिक क़त्ल’ को और इसकी बुनियाद को लोगों के बीच ले जाएं, हमने कुछ मोंमबत्तियां ‘इंडिया गेट’ और कुछ ‘जंतर मंतर’ पर जलाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली.

क्या ज़िंदा क़ौमों के बीच की राजनीति का ये मौजूं होना चाहिए? अंध राष्ट्रवाद के नाम पर हर किस्म की असहमति और व्यक्त विरोधों का अपराधीकरण होता रहा और हम ख़ामोशी में सुकून तलाशते रहे.

एक समाज अपने बीमार हो जाने की दस्तक दे रहा था और हम अपनी-अपनी चादरों को ओढ़ इससे अनभिज्ञ बने रहे.

राजनीति एक गंभीर पेशा है, जहां सक्रियता और प्रतिबद्धता के सिद्धांत आपसे अपेक्षा करते हैं कि लोगों के बीच आपकी मौजूदगी सिर्फ़ चुनाव के मौसम में नहीं होनी चाहिए.

हमारे देखते-देखते कई कौमों को राजनीतिक भागीदारी और सहभागिता से बेदख़ल कर दिया गया और हमने चुप्पी का एक नया व्याकरण गढ़ लिया.

क्या हमने कभी सोचा है कि हुक़ूमत पर बैठे दल के ख़िलाफ़ हमारी वैकल्पिक, सामाजिक-आर्थिक सोच का कोई ब्लूप्रिंट हमारे पास क्यूं नहीं है?

ग़रीबी, बेरोज़गारी, महंगाई और सामाजिक हिंसा के ख़िलाफ़ अवाम हमसे समावेशी सोच चाहती है, सबके सरोकार का कार्यक्रम चाहती है. वो हमें सत्ता पक्ष की धूमिल फोटोकॉपी तो कतई नहीं देखना चाहती है.

मानवाधिकारों के उल्लंघन जैसे गंभीर मसलों ख़ास तौर पर अगर यह नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में हो, उत्तर-पूर्व के राज्यों में या कश्मीर घाटी में हो, तो हम फ़ौरन ख़ामोशी ओढ़ लेते हैं और हम भूल जाते हैं कि हमारी सक्रियता और हमारी निष्क्रियता दोनों ही अवाम की अंडर आॅब्ज़र्वेशन है. हम फिर इसे क्यूं नहीं समझ पा रहे हैं?

हर राजनीतिक दल एक जीवित और गतिशील संगठन होता है. अतः आम अवाम अपनी परेशानी, अपने मुश्किल हालात में हमें अपने बीच देखना चाहती है.

अक्सर उन्हें हमसे निदान कि नहीं बल्कि हमारी मौजूदगी की चाहत होती है. क्या हमने बीते वर्षों में सांकेतिकता से आगे जाकर कुछ करने की कोशिश की है?

दोस्तों! मैं जानता हूं कि इसे आत्मसात करने में मुश्किल होगी लेकिन हमें स्वीकार करना होगा कि हम मेहनतकश अवाम, ग़रीबों, दलितों, पिछड़ों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे हैं.

हमारी राजनीति ट्विटर के 140 चरित्रों तक ठहर कर हमें ज़िंदा चरित्रों, हालातों से बहुत दूर लेकर आ गई है.

कई सारी स्वयंसेवी संस्थाएं जो ग़रीबों, दलितों और आदिवासियों के हक़ूक की लड़ाई लड़ रही थीं, और कॉर्पोरेट और राज्य के अनैतिक गठजोड़ को बेनक़ाब कर रही थीं उन्हें ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की आड़ में बंद कर दिया गया और हम फिर भी ना जाने क्यूं चुप रहे?

आज से तक़रीबन दो वर्ष पूर्व हमें सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का एक छोटा सा ‘ट्रेलर’ दिखाया गया और हम सब पूरी फिल्म के रिलीज़ का दबाव नहीं बना पाए.

साथियों! सच तो यह है कि नए भारत के उदय वाली इस राजनीति में हमने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को ख़ुद ही पुरातत्व विभाग में जाने दिया है.

हमारी सामूहिक असफलता या दुर्बलताओं का ज़िक्र सिर्फ़ एक अदद ख़त में नहीं हो सकता, अतः इस पत्र को मैं यहीं ख़त्म करता हूं.

इस ख़त को लिखने का आशय यह कतई नहीं है कि हम आत्मग्लानि के समंदर में डूब जाएं बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ इतना कि राजनीति और ख़ास तौर पर पर प्रगतिशील राजनीति गांव, क़स्बों, खेत-खलिहानों की पूंजी है अतः इसे वहीं ले चला जाए.

अगर मेरी किसी भी बात से कोई कष्ट हुआ हो तो मुआफ़ी के साथ.

जय हिंद

आपका
मनोज कुमार झा
राष्ट्रीय प्रवक्ता, राष्ट्रीय जनता दल