कश्मीर, आतंकवादी, वामपंथी, जेएनयू और जेएनयू टाइप, राष्ट्रवाद, दुर्गा, सब कुछ घालमेल हो जाता है. देश जैसे एक विक्षिप्तता में बड़बड़ा रहा है. सन्निपात से उसे होश में लाना नामुमकिन हो रहा है.
(यह लेख पहली बार 9 फरवरी 2017 को प्रकाशित हुआ था.)
शोएब गायक बनना चाहता है. वह बॉलीवुड में गाना चाहता है. और यह सुनकर एक अखबार हैरान हो जाता है. सिर्फ इसलिए नहीं कि शोएब सिर्फ एक मुसलमान का नाम नहीं, वह एक कश्मीरी मुसलमान नौजवान भी है.
लेकिन हैरानी है तो इस वजह से भी कि शोएब के चाचा का नाम अफज़ल गुरु है. अखबार लिखता है कि यह आश्चर्यजनक है कि जिस अफज़ल गुरु को फांसी हुई थी, उसका भतीजा बॉलीवुड में गायक बनना चाहता है.
मालूम नहीं, इस हैरानी में वह तसल्ली भरी खुशी है या नहीं जो दो साल पहले अखबारों ने जाहिर की रिपोर्ट करते हुए कि गालिब में दसवीं के बोर्ड इम्तिहान में बड़े अच्छे नंबर हासिल किए हैं. गालिब के ये नंबर इसलिए खबर हैं कि वह भी कोई आम हिंदुस्तानी बच्चा नहीं, फांसी की सजा भुगत चुके अफज़ल का बेटा है.
इस तरह देखा जाए तो अफज़ल गुरु से हिंदुस्तान का रिश्ता बना हुआ है. कैसा है यह रिश्ता? अफज़ल गुरु की याद क्यों उस भारतीय मन को सताती है, जिसे चैन देने के लिए सबसे बड़ी अदालत ने उसे फासी देना मुनासिब समझा?
शोएब की खबर आज छपी है. आज नौ फरवरी है. क्या नौ फरवरी को अफज़ल को याद करना एक रस्म है? क्या है नौ फरवरी? क्या नौ फरवरी एक जख्म है, जो अब ढंका हुआ है लेकिन बसंत की हवा से इसमें एक टीस उभरती है?
एक दबी हुई चीख, गले में घुटकर रह गई, डर से या इस एहसास से कि इस चीख का कोई जवाब कहीं से नहीं आएगा. दबा ली गई वह चीख एक घाव में बदल गई है, जिसका मुंह दिखता नहीं लेकिन इस जाती हुई ठंड की हवा से एक लहर सी उठती है दर्द की बदन में.
यह दिन है अफज़ल गुरु की फांसी का. 2013 की नौ फरवरी. पहली खबर है हर अखबार की, आखिर अफज़ल गुरु को फांसी दे दी गई. सब कुछ बड़े पोशीदा तरीके से किया गया.
न सिर्फ यह कि अफज़ल के परिवार को खबर न की गई, खुद अफज़ल तक को दो घंटे पहले ये इल्म न था कि यह उसकी आखिरी रात है. सिर्फ जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री को बताया गया, वह भी एहतियातन कि वे इस खबर से घाटी में होने वाली प्रतिक्रिया को काबू करने की तैयारी कर सकें.
अफज़ल को तिहाड़ जेल के भीतर ही दफन किया गया. सरकार यह नहीं चाहती कि कश्मीर घाटी के लोगों को एक और प्रतीक मिल जाए. भारत विरोधी गुस्से के जमा होने की कोई नई जगह कश्मीर में न बने, इसकी चौकसी रखी गई.
कश्मीर में इंटरनेट, मोबाइल सेवा ठप कर दी गई. आखिर भारत सरकार को कश्मीरी क्षोभ का अंदाजा तो था, लेकिन वह एक कश्मीरी को दूसरे से काट देना चाहती थी. क्रोध व्यक्तिगत रहे, सार्वजनिक न हो सके, संगठित न हो सके.
लेकिन एक दहशतगर्द को सजा मिलने पर तकलीफ क्यों? जिसने भारत की संप्रभुता और उसके जनतंत्र की प्रतीक संसद पर हमले में भाग लिया, उसे मौत क्यों नहीं? इस एक के मरने पर इतना दुख और संसद पर हमले में जो सिपाही मारे गए, उनके लिए कोई सहानुभूति नहीं?
2013 की नौ फरवरी के हवा में तनाव महसूस किया जा सकता था. जंतर मंतर पर इस फांसी पर अपने गम और गुस्से का इजहार करने के लिए कुछ कश्मीरी और उनके दूसरे साथी इकट्ठा हुए, तो उन पर हमला हुआ. उन पर कालिख पोती गई. इस मुल्क में दूसरों को बेज्जत करने में जो हिंसक आनंद मिलता है, उसकी एक और अभिव्यक्ति.
टीवी चैनल इस फांसी पर बहस करने को तैयार. हर फ्रेम में एक मुस्लिम चेहरा. कांग्रेसी मुस्लिम, भाजपाई मुस्लिम, मुस्लिम वकील. राज्यसभा की भूतपूर्व उपाध्यक्ष. इत्तेफाक नहीं कि वे भी मुसलमान. सबने राष्ट्रीय सहमति जताई, फांसी ठीक थी.
कांग्रेसी मुसलमान ने कहा, आखिर हमने फांसी दे कर दिखा दिया. भाजपाई मुसलमान ने कहा, हम इतने वर्षों से दबाव डाल रहे थे, उसका नतीजा हुआ. फांसी देर से हुई, इससे कांग्रेस की राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हिचकिचाहट का पता चलता है.
स्टूडियो में फांसी को लेकर कोई दुविधा नहीं. सिर्फ एक मानवीय चूक हो गई, हमें इतनी उदारता तो दिखानी चाहिए थी कि अफज़ल को परिवार से आखिरी मुलाकात करने देते!
यह सवाल जिससे किया गया, वह पलट कर यह पूछता है कि सवाल हमदर्दी का नहीं, इंसाफ का है. पहले इस पर बात कर लें हम कि अफज़ल को फांसी होनी चाहिए थी या नहीं.
और स्टूडियो में तूफान आ जाता है. भाजपाई मुसलमान क्रोध में चीखने लगते हैं. यह किसे बुलाया लिया है, यह आईएसआई का एजेंट है, यह चैनल पाकिस्तानी है. मैं यहां बैठ नहीं सकता.
कांग्रेसी मुसलमान सवाल करने वाले को चेतावनी देता है, आप यह सवाल इसलिए कर पा रहे हैं कि भारत में जनतंत्र है इसीलिए आपको इसकी इजाजत है.
कांग्रेस के इस रुख से जाहिर था कि हिंदुस्तान के कहानी का सूत्र उसके हाथ से निकल गया है. वह अपनी कहानी में खुद यकीन नहीं कर पा रही, इसलिए एक दी हुई राष्ट्रवादी कथा की सूत्रधार बनना चाहती है.
तो क्या भारत में जनतंत्र हमारी सरकारी राजनीतिक पार्टियों की मेहरबानी पर टिका रहेगा? क्या उसकी मियाद और मिकदार उनकी मर्जी का मामला है?
क्या अफज़ल की फांसी पर सहमति के पहले यह न पूछ लें कि अगर वह एक आम हिंदुस्तानी शहरी था, तो क्या उसे इस मामले में उसके सारे अधिकार दिए गए थे?
उसे पुलिस के सामने दिए उसके इकबालिया बयान के आधार पर ही तो फांसी मिली? उसे कायदे का वकील क्यों न मुहैया कराया गया?
अफज़ल संसद पर हमले में शरीक न था. जो थे, सब मारे गए. जिन्हें अफज़ल के साथ इसकी साजिश और तैयारी में नामजद किया गया, उनमें से अफज़ल के अलावा आज तक कोई और पकड़ा न जा सका.
तो क्या हमें इस हमले का पूरा सच मालूम हो सका है? क्यों सरकारों की दिलचस्पी इसे उजागर करने में नहीं? न भूलें कि यह हमला भाजपा के राष्ट्रवादी नेतृत्ववाली सरकार के वक्त हुआ, किसी कमजोर सरकार के रहते नहीं.
अफज़ल हथियार डाल चुका दहशतगर्द था. पुलिस और सेना की निगाह के जद में रहनेवाला. वह कैसे और क्यों कर दिल्ली पहुंच सका? अगर वह खुद हमले में शरीक न था, साजिश का हिस्सा था तो उसे फांसी क्यों?
आखिर बापू की हत्या की साजिश में शामिल लोगों को सिर्फ जेल ही हुई थी. तो क्या उस वजह से अफज़ल को फांसी दी गई, जो अदालत ने लिख ही दी कि इस फांसी से इस देश के कलेजे को कुछ ठंडक पहुंचेगी?
तो इस देश ने तय कर दिया कि उसके सीने में कश्मीर का दिल नहीं धड़कता. वह अपमान से जल रहा है. और मीडिया हमें बताता है कि अफज़ल के बेटे का नाम गालिब है.
दो साल बाद बोर्ड के इम्तिहान में अच्छा करने पर वह राष्ट्रीय खबर बनता है, जिसके पिता को देशद्रोह के चलते फांसी हो, वह राष्ट्रीय परीक्षा में मेधावी साबित हो तो खबर बन जाता है.
अफज़ल को फांसी देकर सरकार ने मामला रफा-दफा समझा लेकिन वह हुआ नहीं. सरकारें फांसी दिलवा सकती हैं, सवालों को दफना नहीं सकतीं.
पिछले साल नौ फरवरी की रात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस फांसी के पहले के और बाद के सवाल फिर उभर आए. ये सवाल सिर्फ कश्मीरी युवाओं के नहीं, हिंदुस्तानी नौजवानों के भी हैं और होने चाहिए.
कश्मीर से हमदर्दी का सवाल तो है ही, एक बड़ा सवाल इंसाफ की प्रक्रिया का है. क्या उस प्रक्रिया को किसी ऐसे मसले में छोड़ा जाता सकता है, क्या इंसाफ का कोई शॉर्ट कट है?
इस तरह के प्रश्न फिर उठे, याकूब मेमन की फांसी के वक्त. यह सवाल हैदराबाद में एक दलित युवा ने उठाया. और उसे राष्ट्रद्रोही कहा गया. जेएनयू में इस सवाल को उठाने वालों पर जिस क्रूरता से हमला हुआ, उसका पूरा मतलब अब तक समझा नहीं गया है.
छात्रों की गिरफ्तारी, उनकी पिटाई और उनके और उनकी संस्था के खिलाफ नफरत का अभियान. जेएनयू को तहस नहस कर देने की कोशिश. लेकिन क्या सिर्फ जेएनयू को?
एक छोटा नाटक ठीक इसी वक्त जेएनयू से दूर संसद के करीब चल रहा था. जिस मसले पर जेएनयू में बात करने की कोशिश हुई, उसी पर प्रेस क्लब में भी एक छोटी सभा हुई. वहां भी नारे लगे.
अगले रोज प्रेस क्लब के अधिकारियों ने ही आगे बढ़कर बैठक के खिलाफ पुलिस में रपट दर्ज करा दी. खयाल रहे, ऐसा करने वाले पत्रकार थे. और पुलिस ने सभा में बोलने वाले अध्यापकों को तलब कर लिया. और अंतहीन रातें शुरू हुईं जिनमें आपको खबर न थी कि आज थाने से घर जाएंगे या जेल.
इस प्रकरण को अपराध कथा कहा जाए, या प्रहसन, तय करना मुश्किल है. संसद मार्ग थाने के प्रभारी ने अध्यापकों को कहा कि यह इलाका उसका है और वह चाहे तो दो रोज तो यों ही उन्हें बिठाए रख सकता है.
और एक दिन छह जवान अचानक थाने में लाकर पटक दिए गए. बढ़ी हुई दाढ़ी, बाल उलझे हुए, जवानी की लापरवाही के सबूत. सब उर्दू भाषा के उत्सव में गुलज़ार को सुनने अभी इंदिरा गांधी कला केंद्र पर पहुंचे थे कि पुलिस ने धर दबोचा.
कहा, सब जेएनयू टाइप लग रहे थे. डेमॉक्रेसी वाले. नहाते-धोते नहीं, बाल नहीं बनाते, क्यों? थानेदार ने रुआबदार बाप की तरह पूछा. एक के झोले में एसएफआई का झंडा बरामद और नाम से वह मुसलमान निकला. ‘आज झंडा लेकर चलते हो, कल बंदूक लेकर चलोगे.’ थानेदार ने धमकाया.
कश्मीर, भारत का अंग-भंग, आतंकवादी, वामपंथी, जेएनयू और जेएनयू टाइप, राष्ट्रवाद, दुर्गा, सब कुछ घालमेल हो जाता है. देश जैसे एक विक्षिप्तता में बड़बड़ा रहा है. सन्निपात से उसे होश में लाना नामुमकिन हो रहा है.
दिल्ली से दूर मेहसाणा का एक ड्राइवर पूछता है, जेएनयू का फुल फॉर्म जिन्ना नेशनल यूनिवर्सिटी है? क्या वहां हमारे टैक्स के पैसे पर पलने वाले लड़के भारत को तोड़ने में लगे हैं?
हरियाणा में, रांची में, उदयपुर में, जोधपुर में विश्वविद्यालयों के अधिकारी कहते हैं, हम यहां जेएनयू नहीं बनने देंगे. एक छात्र संगठन नारे लगाता है, अधिकारी पुलिस रिपोर्ट दर्ज करते हैं, राष्ट्र विरोधी कोई चर्चा बर्दाश्त नहीं की जाएगी.
आज़ादी के सत्तर साल बाद भी इस देश को राष्ट्रवादी रक्तकणों की कमी सताती है. एक बीमार देश, राष्ट्रवाद की ऊर्जा की तलाश में भटकता हुआ.
और फिर नौ फरवरी आ ही गई. और अफज़ल के भतीजे को हमने खोज निकाला. और उसका गाना सुनकर हैरान हो गए. लेकिन उस सवाल का, जो इस नौ फरवरी के धागे से बंधा लटक रहा है, हम सामना नहीं कर रहे.
वह सवाल है इंसानियत का, हमदर्दी का और इनके साथ इंसाफ का. आइए, दुआ में हाथ उठाएं, उनके लिए जिनके साथ राष्ट्रवादी हड़बड़ी में हमने नाइंसाफी की और उसे जायज ठहराया.
लेकिन अपने लिए भी दुआ करें, एक वक्त आएगा जब इस नशे से हम उबरेंगे, दुआ करें कि हमारी रूह तब तक इतनी जख्मी न हो चुकी हो कि उसका उद्धार संभव न रह जाए.
हम उसके बचे रहने के लिए दुआ मांगें, इसके लिए नौ फरवरी से बेहतर दिन और क्या होगा!
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)