क्या देश में चुनाव वाकई रस्म अदायगी बनकर रह जाएंगे?

चुनावों को रस्म अदायगी बनने से रोकना है तो उनकी निष्पक्षता व स्वतंत्रता की हर हाल में रक्षा करना जरूरी है. यह भी समझना होगा कि चुनाव सुधारों के संबंध में समूचे विपक्ष का अगंभीर, नैतिकताहीन रवैया ऐसी स्थिति लाने में सत्ताधीशों की मदद ही करेगा.

//
New Delhi: Monsoon clouds hover over the Parliament House, in New Delhi on Monday, July 23, 2018.(PTI Photo/Atul Yadav) (PTI7_23_2018_000111B)
(फोटो: पीटीआई)

चुनावों को रस्म अदायगी बनने से रोकना है तो उनकी निष्पक्षता व स्वतंत्रता की हर हाल में रक्षा करना जरूरी है. यह भी समझना होगा कि चुनाव सुधारों के संबंध में समूचे विपक्ष का अगंभीर, नैतिकताहीन रवैया ऐसी स्थिति लाने में सत्ताधीशों की मदद ही करेगा.

New Delhi: Monsoon clouds hover over the Parliament House, in New Delhi on Monday, July 23, 2018.(PTI Photo/Atul Yadav) (PTI7_23_2018_000111B)
(फोटो: पीटीआई)

‘भारत में यह प्रचलन बन गया है कि कोई मजबूत व्यक्ति सत्ता नहीं छोड़ता, लेकिन हम बिना सत्ता का मोह छोड़े विचारधारा की लड़ाई में अपने प्रतिद्वंद्वी को नहीं हरा सकते. हमारे देश के संस्थागत ढांचे पर कब्जे का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घोषित लक्ष्य पूरा हो चुका है. हमारा लोकतंत्र बुनियादी तौर पर कमजोर हो गया है. अब इसका वास्तविक खतरा है कि आगे चुनाव महज रस्म अदायगी भर रह जाएं.’

कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पिछले दिनों ट्विटर पर सार्वजनिक की गई अपनी चिट्ठी में राहुल गांधी ने ये पंक्तियां लिखीं तो उन्हें शायद ही इल्म रहा हो कि उनका यह कथन जल्दी ही, थोड़े बदले हुए रूप में ही सही, उनकी पार्टी व जनता दल {सेकुलर} गठबंधन द्वारा शासित कर्नाटक में सही सिद्ध होने लगेगा.

वहां जनादेश की मनमानी व्याख्याओं के बीच इन दोनों पार्टियों के असंतुष्ट विधायक लोभ-लालच की राजनीति की पुरानी कथाओं में जिस तरह नई कड़ियां जोड़ रहे हैं, उसके कारण जिस लड़ाई को राहुल विचारधारा की लड़ाई बताया करते हैं, वह इतनी निर्वस्त्र हो चली है कि अपनी लाज तक नहीं बचा पा रही!

विडंबना देखिए कि एक ओर राहुल कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद भी भाजपा से दस गुनी ताकत से लड़ने का दावा कर रहे हैं, दूसरी ओर जैसे कर्नाटक के विधायकों के इस्तीफे ही काफी न हों, उनके गोवा के दस विधायकों ने भी ऐन महाभारत के वक्त अपनी निष्ठाएं बदल ली हैं.

यह दावा करते हुए कि अब भाजपा के साथ राज्य की सरकार का हिस्सा बन जाने के बाद वे अपने निर्वाचन क्षेत्रों का तेजी से विकास कर सकेंगे. इससे पैदा हालात ने कई बड़े और पेचीदा सवालों को जन्म दिया है.

पहला और सबसे बड़ा यह कि क्या इस मामले में भारतीय जनता पार्टी पर विधायकों की खरीद-फरोख्त के आरोप लगा देने मात्र से कांग्रेस खुद को उससे ज्यादा नैतिक अथवा वैचारिक शुचिता की वाहक सिद्ध कर सकती है?

क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि अगर कांग्रेस के पास विचारधारा की कोई पूंजी है तो उसके अनेक सिपाही दृढ़तापूर्वक उस पूंजी की रक्षा का दायित्व निभाने के बजाय रीढ़विहीनों की तरह लोभ व लालचों को दंडवत प्रणाम क्यों कर रहे हैं?

ऐसे सिपाहियों के बूते वह विचारधारा की लड़ाई कैसे लड़ या जीत सकती है?

क्या इस कठिन समय में इस पड़ताल की जरूरत नहीं है कि उसके इन सिपाहियों ने अपनी रीढ़ अभी-अभी गंवाई है या अरसा पहले गंवा दी थी और अब उसके प्रदर्शन का मौका पाया है?  और क्या इसके जिम्मेदार सिर्फ ये सिपाही ही हैं?

उसके चुने हुए जनप्रतिनिधि तक उन्हें दिए जा रहे लोभ का कोई प्रतिकार किए बिना ‘फॉर सेल’ का बोर्ड लगाकर खरीदारों के सामने हाजिर हुए जा रहे हैं तो वह क्योंकर कह सकती है कि चुनावों को रस्म अदायगी और जनादेशों को व्यर्थ बनाने की वर्तमान सत्ताधीशों की कवायदों में उसका कोई ‘योगदान’ नहीं है?

2014 से 2019 के बीच भाजपा उसके इतने अलमदारों को अपने पाले में खींच लाई है कि कई लोग उसको ‘मोदी कांग्रेस’ कहने लगे हैं, तो यह उसका ‘योगदान’ नहीं तो और क्या है?

देश में वामदलों को छोड़ और कौन-सी पार्टी है, जिसमें भूतपूर्व कांग्रेसी और उनका अक्स नहीं है? कांग्रेस का यह ‘योगदान’ न होता तो क्या आज देश का विपक्ष इतना श्रीहीन हो सकता था?

दरअसल, चुनावों को रस्म अदायगी बनाने की कवायदें ऐन चुनावों के वक्त ही शुरू नहीं होतीं. उन्हें चुनावों से पहले और उनके बाद निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के रस्मी तौर पर भी लोकतांत्रिक नजर न आने वाले जनविरोधी आचरणों में भी देखा और पढ़ा जा सकता है.

उनकी वादाखिलाफियों में भी, जनादेशों की स्वार्थी व अनर्थकारी व्याख्याओं में भी और मध्यावधि चुनाव के डर में भी.

कर्नाटक में कांग्रेस व जनता दल सेकुलर के वे विधायक जिन्हें मीडिया ‘बागी-बागी’ कहकर अलानाहक ऊंचा आसन दिए हुए है, इन दिनों इस सभी रूपों में सामने आकर बता रहे हैं कि उनके लिए जनादेश की पवित्रता तभी तक मायने रखती है, जब तक उसकी बिना पर स्वार्थ साधना होती रहे.

हम जानते हैं कि उसमें बाधा आने पर वे उसी तरह की ‘नई साधना’ के लिए इस्तीफे जैसे ‘आत्मघाती विस्फोट’ पर उतर आए हैं- यह सोचकर कि क्या हुआ जो विधायकी चली जाएगी और तो बहुत कुछ हाथ आ जाएगा.

इसमें गोवा के दस कांग्रेस विधायकों के पालाबदल को भी जोड़ लें तो यह सवाल बनता ही है कि इससे जनादेश देने वाले मतदाताओं में जो खीझ, उदासी या नाउम्मीदी पैदा होती है, क्या वह भी चुनावों को रस्मअदायगी बनाने की ओर ही नहीं ले जाती?

ले जाती है तो कैसे कह सकते हैं कि इसके लिए महज नरेंद्र मोदी सरकार या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही दोषी है?

ठीक है कि इन दोनों ने बेहद चालाकी से ‘एक देश, एक चुनाव’ का नारा दे रखा है और चुनाव में बिग मनी व बाहुबल का अकूत दुरुपयोग रोकने समेत सारे जरूरी चुनाव सुधारों से मुंह मोड़ रखा है.

लेकिन गत दो जुलाई को राज्यसभा में चुनाव सुधारों पर जो बहस हुई, उसमें कांग्रेस या दूसरे विपक्षी दलों ने ही कहां कहा कि विधायकों व सांसदों की निधियों व लोभों-लाभों पर अंकुश लगाकर उन्हें अपने वादों को निभाने और दल बदलने या इस्तीफे देने से पहले अपने मतदाताओं से पूछने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए?

मोदी सरकार के तो ऐसे किसी प्रस्ताव में रुचि लेने का सवाल ही नहीं था, क्योंकि उसने खुद 2014 के अपने सारे वादों को हाशिये में भी न रहने देने की कला प्रदर्शित करके नया अस्तित्व पाया है.

लेकिन कांग्रेस को तो ऐसे विधायकों व सांसदों से उन उपचुनावों का खर्च वसूलने के कानूनी प्रावधान की वकालत करनी चाहिए थी, जो उनके द्वारा अपनी सीटों से दिए जाने वाले इस्तीफों के कारण कराने पड़ते हैं.

किसे नहीं मालूम कि ऐसे इस्तीफे किसी ‘अपने’ के लिए सीट खाली करने या कर्नाटक जैसे हालात में ‘बहुत कुछ वसूलने’ के लिए ही दिए जाते हैं?

उक्त चर्चा में विपक्ष ने भले ही चुनावों में बिग मनी के इस्तेमाल, चुनाव आयोग और मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाए, एकतरफे चुनावी चंदे पर चिंता जताई, कारपोरेट फंड बंद करने पर जोर दिया, लेकिन विधायकों व सांसदों की विचारहीन निरंकुशता रोकने के लिए मुंह नहीं खोला.

और तो और, उसने चुनाव आयोग के उस नियम के खिलाफ भी कुछ नहीं कहा जिसके तहत किसी व्यक्ति की ईवीएम में खराबी की शिकायत झूठी साबित होने पर उसे 6 महीने की जेल की सजा या उस पर जुर्माने का प्रावधान है.

प्रसंगवश, सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में इस नियम को हटाने की मांग की गई है, जिस पर कोर्ट ने चुनाव आयोग से जवाब मांग रखा है.

गौरतलब है कि इस विपक्ष के मुकाबले भारतीय प्रशासनिक सेवा के 64 सेवानिवृत्त अधिकारियों द्वारा गत लोकसभा चुनाव में हुई गड़बड़ियों को लेकर चुनाव आयोग को लिखे पत्र में कहीं ज्यादा गंभीर मुद्दे उठाए गए हैं.

यकीनन, चुनाव आयोग ने उक्त चुनाव को जिस तरह अनावश्यक तौर पर लंबे खींचा, सत्तापक्ष की ओर से आदर्श आचार संहिता के धड़ल्ले से किए गए उल्लंघनों को लेकर आंखें मूंदे रखीं, साथ ही एक चुनाव आयुक्त की असहमति तक को दरकिनार कर क्लीन चिट देता और अपने फैसलों को संदिग्ध बनाता रहा, वह इस आयोग को भी चुनाव सुधारों की जद में लाने का पर्याप्त आधार है क्योंकि इसके बगैर चुनावों को रस्म अदायगी होने से रोकना लगातार मुश्किल होता जाएगा.

चुनाव आयोग की स्वतंत्रता तो ठीक है, लेकिन उसे इतना स्वच्छंद नहीं ही होना चाहिए कि चुनाव तारीखों की घोषणा में देरी करके प्रधानमंत्री को विभिन्न लोकलुभावन परियोजनाओं के उद्घाटन का अपना अभियान मुकम्मल करने का वक्त देने से भी न डर लगे और न लाज आए.

इतना ही नहीं, विपक्षी दल मतगणना के आरंभ में ही वीवीपैट मिलान की मांग करें तो उन्हें बिना किसी ठोस वजह से सिरे से नकार दे.

एक विश्लेषक ने ठीक ही लिखा है कि यहां ‘बीती ताहि बिसार दे’ का सिद्धांत लागू नहीं किया जाना चाहिए और बीते चुनाव की शंकाओं और चिंताओं पर लगातार बात की जानी चाहिए.

ताकि आगे ऐसा करने का कोई और कुटिल इरादा फिर पनप रहा हो, तो उस पर लगाम लग सके. चुनावों को रस्म अदायगी बनने से रोकना है तो उनकी निष्पक्षता व स्वतंत्रता की हर हाल में रक्षा करना जरूरी है.

यह समझना भी कि चुनाव सुधारों के संबंध में कांग्रेस कहें या समूचे विपक्ष का बेहिस, अगंभीर, नैतिकताहीन व रस्मी रवैया चुनावों को रस्मअदायगी बनाने में सत्ताधीशों की मदद ही करेगा.

खासकर, जब किसी ‘विचारधारा’ के फायदे चाहने वालों की संख्या बढ़ती जा रही हो और नुकसान का जोखिम उठाने वालों का अकाल पड़ता जा रहा हो!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)