असम में मिया कविता पर बना एक वीडियो सोशल मीडिया पर डाले जाने के बाद इस कविता के रचनाकार हाफ़िज़ अहमद समेत 10 लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया. आरोप है कि इन कविता में एनआरसी और असमिया लोगों के प्रति पूर्वाग्रह झलकता है.
हर समय कितना कुछ घटित होता रहता है देश के अलग-अलग कोनों में, जो हमें सुदूर दिल्ली में बैठे, अमूमन उस हद तक पता ही नहीं लगने देता कि आत्मा सिर से पैर तक सिहर उठे; कि डर, हताशा, गुस्सा, बेकसी, बेचैनी सभी एक साथ तारीं हो जाएं. फिर अचानक कुछ ऐसा नजर में आ जाता है, जो यह काम कर जाता है.
बीते शुक्रवार को रात खाना खाते हुए ऐसे ही एक हालिया कलाम पर नज़र पड़ी, तो जैसे यहां राजधानी दिल्ली में बैठे-बैठे भी पांव के नीचे से जमीन धसक गई हो, महसूस हुआ.
हाफ़िज़ अहमद की लिखी हुई ‘राईट डाउन, आई एम अ मिया’ कविता पढ़ते हुए अचानक हलक में खाना अटकने लगा. जैसे-तैसे खाना ख़त्म किया और इसका अनुवाद करने बैठ गया.
अनुवाद को दुरुस्त करने के क्रम में कुछ दोस्तों से संपर्क किया तो चंद लेकिन बहुमूल्य सुझाव सामने आते गए, जिससे न केवल कविता का अनुवाद सुधरा, बल्कि जिस मौजूं पर कविता है उसके बारे में भी थोड़ा और कुरेदने का मन होने लगा.
प्यार से प्रोफेसर साहब बुलाए जाने वाले एक दोस्त के द्वारा दिए गए क्लू की पूंछ पकड़-पकड़कर, मैं इंटरनेट के अथाह सागर में डुबकियां लगाने लगा. उस ‘आभासी दुनिया’ (वर्चुअल वर्ल्ड) में इस मुत्तालिक बहुत कुछ बिखरा पड़ा था.
खंगालता गया तो पता चला कि जिस एक ‘मिया कविता’ के लिए हाल ही में दस लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने की खबर यहां पिछले कुछ दिनों से सुर्ख़ियों में छाई हुई है, उसको लेकर मीडिया में जोरदार बहस जारी है, जो संदर्भ को समझने में मदद करती है.
हीरेन गोहेन जैसे नामी-गिरामी नाम भी इसमें शामिल हैं. ‘मिया कविता’ के संदर्भ को समझने के लिए मैं पिछले साल 23 जून को अल जज़ीरा में छपे सैफ खालिद के एक लेख तक पहुंचा. उस लंबे रिपोर्ताज को मैं एक सांस में पढ़ गया.
इस बहु-आलोचित नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एनआरसी) की सोची-समझी कुत्सित क्रूरता के बारे में पहले से ही बहुत कुछ सुन-पढ़ रखा था, लेकिन उनसे जो तस्वीर उभरती थी वो भले ही त्रासद हो, अपनी अकादमिकता के चलते प्राय: आंकड़े और तर्क ही समझातीं थीं तथा अपनी तासीर में भी खुश्क थीं.
सैफ खालिद के उस शानदार लेख को पढ़ते हुए ऐसा लगा, मानो लब्ज़-बा-लब्ज़ उस भयावह क्रूरता के मार्मिक क्रन्दनों को आप अपनी आंखों और कानों से देख-सुन रहे हों.
उसे पढ़ता गया तो इसी क्रम में पता चला कि असम के रहने वाले बांग्लाभाषी मुसलमानों को ‘मिया’ कहकर भी बुलाया जाता है. मिया अपने आप में एक समुदाय का भी द्योतक है और उनके द्वारे बोले जाने वाली बोली का भी.
‘मिया कविता’ कम से कम लगभग दो दशकों से इन बांग्लाभाषी मुसलामानों के विद्रोही स्वरों की अभिव्यक्ति के रूप में मुखर रही है. प्रस्तुत है डॉ. हाफ़िज़ अहमद की इसी कविता का तर्जुमा-
लिखो मैं एक मिया हूं
लिखो
दर्ज करो
मैं एक मिया हूं
एनआरसी में मेरा सीरियल नंबर
2 0 0 5 4 3 है
मेरे दो बच्चे हैं
इंशा अल्लाह!
तीसरा भी अगली गर्मियों तक
आ जायेगा.
क्या तुम उससे भी वैसी ही
नफरत करोगे
जैसे मुझसे करते हो?
लिखो
मैं एक मिया हूं
मैं बंजर पड़ी जमीनों और दलदलों को
हरे लहलहाते धान के खेतों में
बदलता हूं
ताकि तुम खाना खा सको.
मैं ईंटें ढोता हूं
तुम्हारी इमारतों की तामीर की खातिर
तुम्हारे ऐशो-आराम के लिए
तुम्हारी गाड़ियां चलाता हूं
तुम्हारी नालियां साफ करता हूं
ताकि तुम तंदुरस्त और सेहतमंद
बने रह सको.
मैं दिन-रात तुम्हारी खिदमत में
खटता रहता हूं
फिर भी तुम नाशाद हो, नाखुश हो!
दर्ज करो
मैं एक मिया हूं
बिना हक़-हकूकों के
एक जम्हूरी
सेकुलर मुल्क की
शहरियात का हामिल
मेरी मां एक बोगस
‘डी’ वोटर है
हालांकि,
उसके अम्मी-अब्बा
बा-कायदा हिन्दुस्तानी थे.
तुम चाहो तो मुझे हलाक कर डालो,
मुझे मेरे गांव से बेदखल कर दो,
मेरे लहलहाते खेत मुझसे छीन लो
मेरे जिस्म को रौंदने के लिए
बुलडोज़र तक किराए पर ले आओ
मुझ बेक़सूर के सीने को
अपनी गोलियों से छलनी कर दो.
लिखो
मैं एक मिया हूं
ब्रह्मपुत्र का
तुम्हारे जुल्मों से
मेरा बदन स्याह पड़ गया है,
मेरी आंखों में अंगारे भर आये हैं
मेरे पास मेरी कुल जमापूंजी
मेरा यह उफनता गुस्सा है
मुझसे दूर रहो
या
सुपुर्दे ख़ाक हो जाओ.