2019 में क्रिकेट के इतिहास में पहली बार बाउंड्री की गणना के आधार पर विश्वकप विजेता की घोषणा की गई, जिसके बाद से आईसीसी के नियमों की आलोचना हो रही है.
क्रिकेट विश्वकप के 12वें संस्करण का आगाज कम टीमों के प्रतिनिधित्व के विवाद से हुआ तो समापन भी काफी विवादित रहा. 14 जुलाई को लॉर्ड्स के ऐतिहासिक मैदान पर विश्वकप का ऐतिहासिक फाइनल मुकाबला खेला गया. ऐतिहासिक इसलिए रहा क्योंकि क्रिकेट इतिहास में पहली बार किसी भी फॉर्मेट के विश्वकप का फाइनल टाई रहा.
अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट काउंसिल (आईसीसी) ने टूर्नामेंट की शुरुआत से पहले टूर्नामेंट के जो नियम निर्धारित किए थे, उनमें शामिल था कि अगर सेमीफाइनल और फाइनल टाई होते हैं तो फैसला सुपर ओवर के जरिए किया जाएगा.
अगर सुपर ओवर भी टाई होता है तो जिस भी टीम ने अपनी 50 ओवर की पूरी पारी और सुपर ओवर दोनों में मिलाकर ज्यादा बाउंड्री लगाई होंगी, उसे विजेता घोषित किया जाएगा.
सुपर ओवर द्वारा मैच का फैसला इससे पहले टी20 क्रिकेट में कई बार देखा जा चुका था, लेकिन पहली बार था कि एकदिवसीय क्रिकेट के किसी मैच का परिणाम सुपर ओवर के जरिए निकाला जाना था.
सुपर ओवर खेला गया. लेकिन क्रिकेट इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि सुपर ओवर भी टाई हो गया. नियमानुसार इंग्लैंड को ज्यादा बाउंड्री की गणना के आधार पर विजेता घोषित कर दिया गया. बाउंड्री के नियम के आधार पर इंग्लैंड को विश्वकप सौंपने के इस नियम की चौतरफा आलोचना हो रही है.
पूर्व भारतीय क्रिकेटर गौतम गंभीर, वीरेंद्र सहवाग, न्यूज़ीलैंड के पूर्व क्रिकेटर डियॉन नैश, पूर्व ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी डीन जोंस से लेकर सर्वकालिक महान खिलाड़ियों में शुमार सचिन तेंदुलकर और सुनील गावस्कर तक ने आईसीसी के इस नियम को बेतुका करार दिया है.
The DL system is actually based on runs and wickets lost… yet the Final result is only based on Boundaries hit? Not fair in my opinion. Must have been great to watch!
— Dean Jones AM (@ProfDeano) July 14, 2019
न्यूज़ीलैंड के पूर्व ऑलराउंडर स्कॉट स्टायरिस ने तो आईसीसी को ही मजाक बता दिया है. भारत के उपकप्तान रोहित शर्मा ने इस नियम पर आईसीसी को दोबारा विचार करने का सुझाव दिया है तो वहीं उपविजेता रही न्यूज़ीलैंड टीम में शामिल रहे जिमी नीशम, जिन्होंने सुपर ओवर में न्यूज़ीलैंड के लिए मैच टाई करवाया, ने नई पीढ़ी से अपील की कि वे खिलाड़ी न बनें.
Kids, don’t take up sport. Take up baking or something. Die at 60 really fat and happy.
— Jimmy Neesham (@JimmyNeesh) July 15, 2019
हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि यह अपील उन्होंने बाउंड्री के विवादास्पद नियम पर तंज कसते हुए की है या फिर ऐन मौके पर विश्वकप हाथ से फिसलने की निराशा में!
हालांकि मुकाबले में उपविजेता रही न्यूज़ीलैंड के कप्तान या किसी भी अन्य खिलाड़ी ने अब तक इस नियम के खिलाफ खुलकर कुछ नहीं बोला है. हां, कोच गैरी स्टेड ने जरूर आईसीसी के नियमों की समीक्षा की मांग की है. साथ ही उन्होंने कहा है कि अगली बार कोई फाइनल टाई हो तो ट्रॉफी शेयर की जाए.
साथ ही उनका कहना है, ‘यह खेल की तकनीकी पेचीदगी है. मुझे यकीन है कि जब नियम लिखे जा रहे होंगे तो किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि विश्व कप फाइनल में ऐसा हो सकता है.’
नियमों के पूर्वनिर्धारित होने के बावजूद विवाद क्यों?
भारतीय खिलाड़ी रोहित शर्मा को छोड़कर विश्वकप में खेलीं अन्य टीमों के वर्तमान खिलाड़ियों, कोच और टीम प्रबंधन ने भी इस पर कुछ नहीं कहा है. इसका एक कारण यह भी है कि विश्वकप में उतरने से पहले सभी टीमों ने सुपर ओवर टाई होने की स्थिति में अधिक बाउंड्री वाले विवादास्पद नियम को स्वीकृति दी थी.
आईसीसी के लिए भी बचाव का सबसे बड़ा हथियार यही है. दुनिया भर के विरोध को वे यह कहकर दबा सकते हैं कि नियम पहले से ही तय थे. सभी टीमों की सहमति थी तो अब विवाद क्यों?
जैसा कि गैरी स्टेड ने कहा कि नियम लिखे जाने के समय किसी ने नहीं सोचा होगा कि विश्वकप फाइनल में ऐसा हो सकता है.
यह सच है, क्योंकि सुपर ओवर के टाई होने की स्थिति में अधिक बाउंड्री के आधार पर विजेता घोषित करने का नियम 2012 से ही है. कभी किसी टीम की इस पर आपत्ति नहीं आई तो सिर्फ इसलिए कि कभी ऐसे हालातों का सामना ही नहीं हुआ.
पहली बार हुआ भी तो विश्वकप के फाइनल जैसे अहम मुकाबले में. इसलिए इससे पहले न तो आईसीसी के सामने नौबत आई कि वह इस नियम से निकले नतीजों की समीक्षा करे और न ही खिलाड़ियों और प्रशंसकों ने इस नियम पर चिंता जताई थी.
चूंकि इस नियम पर विश्वकप से पहले सभी टीमों की सहमति थी और कभी विरोध के स्वर नहीं उभरे थे तो इस लिहाज से देखें तो तकनीकी तौर पर नतीजों पर किसी भी टीम को आपत्ति होने का सवाल ही नहीं पैदा होता.
इस तरह आईसीसी भी आसानी से पूरे विवाद से पल्ला तो झाड़ सकता है लेकिन इस नियम से मिले पहले नतीजे और उसके व्यापक विरोध के चलते भविष्य में क्रिकेट खेलने वाले देश शायद ही इस नियम पर आगे खेलने तैयार हों.
वैसे भी क्रिकेट का खेल रन और विकेट के सिद्धांत पर चलता है. अगर दो टीमों ने समान रन बनाए हैं तो जिस टीम ने कम विकेट या कम गेंदें खेलकर रन बनाए होंगे, उसका नेट रन रेट दूसरी टीम से अच्छा होगा.
इस लिहाज से फाइनल मैच की ही बात करें तो न्यूज़ीलैंड ने निर्धारित 50 ओवर में 241 रन 8 विकेट पर बनाए थे, इंग्लैंड ने उतने ही रन उतनी ही गेंदों पर 10 विकेट पर बनाए. अगर यह विश्वकप का लीग मैच होता तो नेट रन रेट के आधार पर न्यूज़ीलैंड को इंग्लैंड से ऊपर अंक तालिका में रखा गया होता.
अगर सुपर ओवर भी जोड़ लें तो भी दोनों टीमों के रन बराबर रहे लेकिन न्यूज़ीलैंड का एक विकेट कम गिरा. इस लिहाज से भी नेट रन रेट न्यूज़ीलैंड का ही अधिक माना जाता. पूरा विश्वकप टूर्नामेंट इसी नेट रन रेट को आधार बनाकर खेला गया.
हर टीम सेमीफाइनल में पहुंचने के लिए जीत के अलावा अपने बेहतर रन रेट को लेकर भी चिंतित दिखी. लेकिन फाइनल में सुपर ओवर के बाद जो बाउंड्री के आधार पर नतीजा निकला, वो उसी नेट रन रेट पद्धति के उलट था.
कम विकेट गंवाकर ज्यादा रन बनाने से तय होता रहा है विजेता
क्या ऐसा संभव है कि दो टीमों के आमने-सामने के मुकाबले में हारने वाली टीम का नेट रन रेट जीतने वाली टीम से अधिक हो? यह असंभव घटना विश्वकप फाइनल में संभव हो गई.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि शायद आईसीसी और उसके लिए क्रिकेट के नियम बनाने वाला मेरिलबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) क्रिकेट का इतिहास भुला बैठे. इस खेल की शुरुआत टेस्ट क्रिकेट के रूप में आसान से इस फॉर्मूले के साथ हुई थी कि कम विकेट गंवाकर जो टीम ज्यादा रन बनाएगी, वह विजेता होगी.
टेस्ट क्रिकेट में आज भी यही फॉर्मूला लागू है. आज भी, आईसीसी हो या क्रिकेट खिलाड़ी, टेस्ट क्रिकेट को ही एकदिवसीय और ट्वेंटी20 क्रिकेट से ऊपर प्राथमिकता में रखते हैं. जो इंग्लैंड की टीम आज विश्वकप जीती है, 2015 तक वह सीमित ओवर के क्रिकेट को गंभीरता से ही नहीं लेती थी.
इंग्लैंड को टेस्ट क्रिकेट वाली टीम कहा जाता था. विश्वकप जीतने के बाद टीम के पूर्व डायरेक्टर और पूर्व इंग्लिश क्रिकेटर एंड्रयू स्ट्रॉस ने भी यह बात कही कि हम लोग टेस्ट को प्राथमिकता में रखते थे. हमारी सोच सीमित ओवर क्रिकेट को भी टेस्ट के नजरिए से ही खेलने वाली थी.
अगर 2015 से पहले के दशक भर पुराने आंकड़े उठाएंगे तो पाएंगे कि टेस्ट खेलने वाले प्रमुख देशों में इंग्लैंड की टीम सबसे कम सीमित ओवर का क्रिकेट खेलती थी. क्रिकेट का जनक इंग्लैंड ही रहा, इसलिए टेस्ट क्रिकेट के महत्व को वह समझता था.
लिहाजा टेस्ट क्रिकेट का महत्व सबसे अधिक है. हर खिलाड़ी का सपना होता है कि वह टेस्ट कैप हासिल करे. जो खिलाड़ी सीमित ओवर का अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेला हो, लेकिन बिना टेस्ट खेले रिटायर हो जाए तो वह अपने करिअर को अधूरा मानता है.
इसलिए आज भी टेस्ट क्रिकेट को ही असली क्रिकेट बताने वालों की कमी नहीं है. यहां टेस्ट क्रिकेट के महत्व का जिक्र इसलिए जरूरी हो जाता है कि क्रिकेट का सबसे पुराना और मूल स्वरूप वही है. उसी टेस्ट क्रिकेट के नजरिए से भी फाइनल मुकाबले की बात करें तो दोनों टीमों ने समान रन तो बनाए लेकिन न्यूज़ीलैंड ने कम विकेट गंवाए थे.
इस लिहाज से टेस्ट क्रिकेट का नियम लागू करें तो न्यूज़ीलैंड के पास गेंदें होतीं तो वह और अधिक रन बना सकती थी. जबकि इंग्लैंड के सभी विकेट गिर चुके थे तो गेंदें होने की स्थिति में भी वह अपना स्कोर आगे नहीं बढ़ा सकती थी. इस लिहाज से भी न्यूज़ीलैंड इंग्लैंड से आगे था.
इसलिए यह चौंकाता है कि आईसीसी द्वारा बाउंड्री का नियम बनाते वक्त टेस्ट क्रिकेट और नेट रन रेट जैसे बेसिक तथ्यों की अनदेखी क्यों की गई? यह क्रिकेट की मूल भावना की अनदेखी के समान है.
आईसीसी के बेतुके नियमों का रहा है इतिहास
वहीं, 7 सालों से बाउंड्री वाला विरोधाभासी नियम मौजूद था. तब से किसी क्रिकेट विशेषज्ञ, पूर्व खिलाड़ी या क्रिकेट खेलने वाले देश ने क्रिकेट की मूल भावना के विपरीत बने इस नियम के खतरे या इसके विरोधाभास होने पर टिप्पणी नहीं की. जबकि डिसिजन रेफरल सिस्टम (डीआरएस) जैसे नियम के लागू होने से पहले ही उसके खिलाफ आधा क्रिकेट जगत इकट्ठा हो गया था.
बेतुके नियम के चलते न्यूज़ीलैंड के हाथ से विश्वकप छिनना, इस तरह की पहली घटना भी नहीं है. 1992 के विश्वकप में भी आईसीसी के ऐसे ही एक विवादास्पद नियम ने दक्षिण अफ्रीका को भी विश्वकप से वंचित कर दिया था. संयोगवश तब भी आईसीसी के बेतुके नियम का लाभ इंग्लैंड को ही हुआ था.
ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में खेले गये विश्वकप के उस सेमीफाइनल में बारिश या किसी अन्य कारण से खेल रुकने की स्थिति में लक्ष्य संशोधन (रिवाइज्ड टारगेट) के लिए ‘मोस्ट प्रोडक्टिव ओवर मैथड’ का प्रयोग किया गया था.
इंग्लैंड ने बारिश से प्रभावित उस मैच में 45 ओवर में 253 रन बनाए थे. लक्ष्य का पीछा कर रही अफ्रीकी टीम की जीत तय लग रही थी जब उसे 13 गेंदों पर 22 रन बनाने थे. उसी वक्त बारिश से खेल रुक गया. जब खेल शुरू हुआ तो अफ्रीका तो एक गेंद पर 22 रन बनाने का असंभव टारगेट दे दिया गया.
द.अफ्रीका उस विश्वकप को जीतने का सबसे मजबूत दावेदार था लेकिन एक हास्यास्पद नियम ने उसके सिर से ताज छीन लिया. बाद में वह नियम बदला गया और उसकी जगह डकवर्थ-लुईस नियम ने ली.
इसलिए संभव है कि बाउंड्री वाले नियम से भी आईसीसी भविष्य में किनारा कर ले. लेकिन प्रश्न वही है कि आखिर विश्वकप जैसे अहम टूर्नामेंट में आईसीसी कैसे इस तरह के बेतुके नियमों को लागू कर देती है. और अपनी गलतियों से सीखने तैयार नहीं है.
1992 का विश्वकप सेमीफाइनल अगर आज तक याद किया जाता है तो इसलिए नहीं कि इंग्लैंड जीता था बल्कि इसलिए कि द.अफ्रीका के साथ अन्याय हुआ था. 2019 में भी फिर वही गलती दोहराई गई. इस विश्वकप को भी भविष्य में याद किया जाएगा तो सिर्फ इसलिए कि न्यूज़ीलैंड के साथ अन्याय हुआ.
आईसीसी के अधूरे, अस्पष्ट और अदूरदर्शी नियम
फाइनल के नतीजे पर आईसीसी के एक और अस्पष्ट नियम और खराब अंपायरिंग ने भी असर डाला. इंग्लैंड की पारी के अंतिम ओवर में जब जीतने के लिए 3 गेंदों पर 9 रन की जरूरत थी, तब बेन स्टोक्स ने एक शॉट खेला, फील्डिंग कर रहे मार्टिल गुप्टिल ने गेंद पकड़कर स्टंप की ओर थ्रो मारा, उसी समय स्टोक्स और दूसरे छोर पर मौजूद आदिल रशीद दूसरे रन के लिए भाग पड़े.
रन आउट से बचने के लिए स्टोक्स ने डाइव लगाई. उसी समय गेंद आकर स्टोक्स के बल्ले से टकराई और अपनी दिशा बदलकर बाउंड्री लाइन की ओर चली गई. फील्ड पर मौजूद दोनों अंपायरों (कुमार धर्मसेना और मारेस इरेसमस) ने इंग्लैंड को छह रन दे दिए.
अंपायरों के इस फैसले को पूर्व अंतर्राष्ट्रीय अंपायर, पांच बार आईसीसी का ‘अंपायर ऑफ द ईयर’ अवॉर्ड जीतने वाले और वर्तमान में एमसीसी के सदस्य साइमन टफेल ने गलत ठहरा दिया.
उनके मुताबिक अंपायरों को इंग्लैंड को तब 5 रन देने चाहिए थे क्योंकि आईसीसी का ओवर थ्रो का नियम 19.8 कहता है कि अगर बल्लेबाज थ्रो के वक्त एक-दूसरे को क्रॉस कर चुके हों तो वह रन माना जाता है. लेकिन गुप्टिल के थ्रो मारते समय स्टोक्स और आदिल रशीद ने एक दूसरे को क्रॉस नहीं किया था.
अगर वहां अंपायर गलती नहीं करते तो मैच पर काफी असर पड़ सकता था. इंग्लैंड को तब 2 गेंदों पर 3 के बजाय 4 रन चाहिए होते और स्ट्राइक पर स्टोक्स की जगह आदिल रशीद होते. संभवत: मैच न्यूज़ीलैंड के पक्ष में चला जाता.
इसी संदर्भ में पूर्व भारतीय अंपायर के. हरिहरण ने कहा है, ‘अंपायर धर्मसेना ने न्यूज़ीलैंड से विश्वकप छीन लिया.’
वहीं, एक बात और गौर करने वाली यह है कि तकनीकी तौर पर देखें तो गुप्टिल का वह थ्रो ओवरथ्रो की कैटेगरी में ही नहीं होना चाहिए. लेकिन नियमों में अस्पष्टता के चलते उसे ओवरथ्रो करार देना अंपायरों की मजबूरी थी.
गुप्टिल द्वारा थ्रो स्टंप को निशाना साधकर गेंदबाजी छोर की ओर फेंका गया था. अगर वह थ्रो गेंदबाजी छोड़ पर खड़े खिलाड़ी या स्टंप के करीब मौजूद किसी अन्य फील्डर के हाथ से छिटककर या स्टंप से टकराकर या थ्रो को बैक अप न मिलने से बाउंड्री तक पहुंचता तो वह फील्डर या फील्डिंग टीम का ओवर थ्रो करार दिया जाता.
लेकिन गुप्टिल का थ्रो अपने लक्ष्य तक पहुंचने से पहले ही स्टंप और गेंद के बीच में स्टोक्स के बल्ले के आ जाने से अपनी दिशा बदल गया. ओवर थ्रो तकनीकी तौर पर फील्डिंग करने वाली टीम की गलती पर उस पर लगने वाली पेनाल्टी मान सकते हैं.
लेकिन यहां गुप्टिल ने कोई गलती नहीं की थी. उनका थ्रो अपने निशाने पर था. स्टोक्स का बल्ला ही रास्ते में आ गए. यह कुछ वैसा ही था जैसे कि एक बल्लेबाज ने चौके-छ्क्के के लिए हवा में शॉट मारा हो, लेकिन गेंद आधे मैदान में ही आसमान में उड़ते पक्षी या ड्रोन कैमरे से टकराकर नीचे आने लगे और फील्डर कैच कर ले.
क्या ऐसी स्थिति में बल्लेबाज को आउट दिया जाना जायज होगा? बल्लेबाज जब गलती करता है तब कैच आउट होता है. लेकिन यहां तो उसने कोई गलती ही नहीं की होगी. क्या पक्षी या ड्रोन कैमरे को देखकर शॉट न खेलना ही उसकी गलती होगी? बहरहाल, ऐसी स्थिति में गेंद डैड घोषित कर दी जाती है.
इसी तरह क्या गुप्टिल की गलती यह थी कि उन्हें पहले से ही सोचकर थ्रो फेंकना था कि अगर बल्लेबाज इस एंगल में दौड़ा तो मैं उस एंगल में थ्रो फेंकूं?
हालांकि आईसीसी की रूल बुक में ऐसा दर्ज है कि अगर रन भागते समय बल्लेबाज रन आउट से बचने के लिए जानबूझकर गेंद की दिशा में आ जाए तो उसे ‘ऑब्सट्रक्टिंग द फील्ड’ आउट दिया जा सकता है.
इसी साल आईपीएल के एक मुकाबले में देहली केपिटल्स के बल्लेबाज अमित मिश्रा को इसी तरह आउट दिया गया था. लेकिन यहां स्टोक्स भी जानबूझकर गेंद और स्टंप के बीच में नहीं आए थे. यह सब दुर्घटनावश हुआ था.
जैसे ही गेंद उनके बल्ले से लगकर बाउंड्री की ओर गई तो उन्होंने इसके लिए बाकायदा माफी भी मांगी थी. मैच के बाद भी स्टोक्स ने न्यूज़ीलैंड के कप्तान केन विलियमसन से कहा, ‘मैं इस घटना के लिए खुद को जीवनभर माफ नहीं कर पाऊंगा.’
स्टोक्स के हवाले से इंग्लैंड के ही टेस्ट गेंदबाज जेम्स एंडरसन ने खुलासा किया है कि स्टोक्स ने अंपायरों द्वारा ओवर थ्रो के चार रन देने पर अंपायरों से गुहार लगाई थी कि वे ये चार रन न दें. मैच का टर्निंग पॉइंट वही चार रन रहे.
अगर वे न मिलते तो इंग्लैंड के लिए 2 गेंदों पर 3 के बजाय 7 रन बनाना मुश्किल हो जाता और ताज न्यूज़ीलैंड के सिर सज जाता. जब स्वयं बल्लेबाज कह रहा हो कि उस कथित ओवर थ्रो के उसे चार रन मिलना गलत है, तो कैसे आईसीसी उसे जायज ठहरा सकता है?
ऐसा सिर्फ इसलिए ही हुआ क्योंकि आईसीसी के नियम अधूरे, अस्पष्ट और अदूरदर्शी हैं जहां पहले से ऐसी संभावनाओं के प्रति सावधानी नहीं बरती गई है. नतीजा कि विश्वकप फाइनल जैसे अहम मुकाबले जिसकी तैयारी खिलाड़ी और टीम सालों तक करते हैं, वहां ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं से नतीजे बदल रहे हैं.
क्या आईसीसी सिर्फ़ बल्लेबाज़ी को तवज्जो दे रही है?
बल्लेबाज और गेंदबाज/फील्डर दोनों की ही गलती न होने पर भी गैरवाजिब ओवर थ्रो के चार रन गेंदबाज के सिर मढ़ना और बल्लेबाज के खाते में डाल देना दिखाता है कि आईसीसी का रुख बल्लेबाजी की ओर ज्यादा झुका हुआ है जिससे कि यह खेल बल्लेबाजों का खेल बनता जा रहा है.
बाउंड्री की गणना पर जीत देना भी तो इसी बात की पुष्टि करता है. वरना क्यों आईसीसी मैच टाई होने की स्थिति में 2012 के पहले तक अपनाए जाने वाले ‘बॉल आउट’ नियम को नहीं अपनाती है, जहां मैच टाई होने पर फैसला गेंदबाज करते हैं. वह नियम सुपर ओवर से अधिक प्रभावी था.
जो आईसीसी खेल भावना का ढिंढोरा पीटते नहीं थकती, वह कैसे इस तरह के अनैतिक फैसले होने देती है, जहां एक टीम बिना कोई गलती किए केवल नियमों की अस्पष्टता, बेतुके नियम और अदूरदर्शिता के चलते मैच गंवा देती हो.
खिलाड़ियों को खेल भावना का पाठ पढ़ाने वाली आईसीसी की खेल भावना यही है क्या कि उसकी गलती की भरपाई खेल और खिलाड़ी करें?
आईसीसी का इतिहास ऐसे ही अस्पष्ट और बेतुके नियमों का रहा है. फिर चाहे बात 1992 के विश्वकप सेमीफाइनल की हो, 2019 विश्वकप के फाइनल की या गेंदबाजों के कोहनी मुड़ने वाले उस नियम की जिसके तहत गेंदबाजी करते समय निर्धारित डिग्री से अधिक कोहनी मुड़ने पर गेंदबाज को ‘चकर’ ठहराकर उस पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है.
क्रिकेट में सबसे ज्यादा विकेट चटकाने वाले मुथैया मुरलीधरन इसी चकिंग नियम के चलते पूरे करिअर ‘चकर’ का दाग लिए घूमते रहे. जबकि बाद में आईसीसी ने उसी नियम में ऐसी ढील दे दी कि कई ‘चकर’ लीगल गेंदबाज बन गए.
खराब अंपायरिंग पर भी आईसीसी का रवैया ढुल-मुल ही रहा है. जिन धर्मसेना पर फाइनल में खराब अंपायरिंग के आरोप लग रहे हैं, उन्होंने इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के बीच खेले गये सेमीफाइनल में भी खराब अंपायरिंग की नज़ीर पेश की थी.
जहां इंग्लैंड के बल्लेबाज जेसन रॉय ने बीच मैदान पर उनका विरोध जताया था. जेसन रॉय के बल्ले से गेंद लगकर नहीं गई थी, तब भी धर्मसेना ने उन्हें आउट दे दिया था. इंग्लैंड के पास रिव्यू नहीं था इसलिए रॉय केवल विरोध जता सके, जिसके लिए उन पर 30 फीसदी मैच फीस काटने का जुर्माना भी लगा.
लेकिन धर्मसेना, जिन्होंने ऐसे वक्त एक गलत फैसला दिया जहां रॉय का आउट होना ऑस्ट्रेलिया की मैच में वापसी कराकर इंग्लैंड को टूर्नामेंट से बाहर भी कर सकता था, पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. बल्कि फाइनल के लिए भी उन्हें ही मैदान में उतार दिया गया.
मैच में ओवर थ्रो विवाद के अतिरिक्त उनके आउट देने के गलत फैसले भी रिव्यू के जरिए बदले गये. नतीजा कि इस बार उन्होंने अपनी खराब अंपायरिंग से न्यूज़ीलैंड से विश्वकप छीन लिया.
आईसीसी को यहां जरूरत है कि वह खराब अंपायरिंग का विरोध जताने वाले खिलाड़ियों पर तो दंडात्मक कार्रवाई करती है, लेकिन लगातार खराब फैसले देने वाले अंपायरों पर भी सख्ती दिखाए. जिससे खिलाड़ियों के बिफरने के मौके ही न आएं.
कई बार अंपायर का एक गलत फैसला एक टीम को मैच ही नहीं हरवाता, उस हार से आगे के मैचों में टीम के मनोबल के गिरने का कारण भी बनता है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)