जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रशासन ने स्वच्छता अभियान के तहत कैंपस की दीवारों पर पोस्टर लगाने पर रोक लगा दी है. प्रशासन के इस क़दम से छात्र-छात्राओं में रोष है.
कभी अपनी अकादमिक प्रतिष्ठा, कभी विभिन्न विचारधाराओं के टकराव तो कभी ‘देशद्रोही’ छात्रों को पालने के आरोपों के चलते चर्चा में रहने वाले नई दिल्ली स्थित देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में अगर कोई चीज़ सबसे ज्यादा आकर्षित करती है तो वह है यहां की दीवारें.
लाल ईटों से बनीं ये साधारण सी दीवारें अलग-अलग विचारधाराओं और राजनीतिक संगठनों के विशालकाय पोस्टरों से पटी पड़ी हैं. इन दीवारों का आकर्षण इस कदर होता है कि आप इनको याद के तौर पर अपने कैमरे में क़ैद करने से खुद को रोक नहीं पाएंगे.
अगर सभी पोस्टरों पर लिखी हुईं पंक्तियों को पढ़ और समझ लेंगे तो यहां की छात्र राजनीति से लेकर विभिन्न विचारधाराओं की बुनियादी समझ ये दीवारें खुद ही दे देंगी. शायद इसीलिए इन्हें जेएनयू की बोलती दीवारें भी कहा जाता है.
ये कला के सीखने के भी बेहतरीन उदाहरण है, जिसमें छात्र-छात्राएं खुद इन्हें बनाते और लगाते हैं. लेकिन अब जेएनयू प्रशासन ने इन दीवारों को चुप करने का निर्णय लेते हुए इन पर लगे पोस्टरों और ग्राफिटी आर्ट को हटाना शुरू कर दिया है जिसका पूरे जेएनयू कैंपस में व्यापक विरोध भी हो रहा है.
जितना पुराना जेएनयू, उतना पुराना पोस्टरों का इतिहास
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की दीवारों पर इस तरह के विशालकाय पोस्टर लगाने का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना पुराना जेएनयू है.
जेएनयू के एक पूर्व विद्यार्थी शाहजहां मदन्पट की मलयालम में लिखी किताब ‘वॉल पोस्टर्स ऑफ जेएनयू’ में दर्ज एक किस्सा बताता है कि जब विद्यार्थियों के दीवारों पर पोस्टर लगाने की शिकायत लेकर एक कर्मचारी विश्वविद्यालय के पहले कुलपति जी. पार्थसारथी के पास पहुंचा तो उन्होंने कहा था, ‘यह लोकतांत्रिक कैंपस है, दीवारों को विद्यार्थियों से बात करने दो, उन्हें उनकी कलाकारी का कैनवास बनने दो.’
इसी दौर से जेएनयू ने छात्र राजनीति को नए आयाम देने भी शुरू कर दिए थे. इसी दौर को याद करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और जेएनयू के भूतपूर्व विद्यार्थी कुलदीप कुमार बताते हैं, ‘सत्तर के दशक में जहां जेएनयू की छात्र राजनीति मूर्त रूप ले रही थी, वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में धनबल और बाहुबल की राजनीति जोर पकड़ चुकी थी. इसके चलते जेएनयू समुदाय ने यह निर्णय लिया की इस तरह की संस्कृति को यहां पैर पसारने की जगह न दी जाए.’
उन्होंने कहा, ‘जेएनयू में इसीलिए शुरू से ही हाथ से बने पर्चे, पोस्टर और बैनर काम में लेने की एक परंपरा स्थापित की गई. इस परंपरा को न सिर्फ छात्र-छात्राओं ने बनाए रखा बल्कि शिक्षकों और प्रशासन ने भी हमेशा साथ दिया और प्रेरित ही किया.’
आइप्वा की सचिव, सीपीआईएमएल की पोलित ब्यूरो सदस्य और जेएनयू की छात्रसंघ अध्यक्ष रहीं कविता कृष्णन याद करती हैं, ‘इस पोस्टर परंपरा की सराहना करते हुए यहां के कुलपति आने वाले मेहमानों को कैंपस की सैर करवाते थे, दीवारों पर लगे पोस्टर दिखाते थे और यहां के लोकतांत्रिक माहौल की खूबियां गिनाते थे.’
पोस्टर लगाने की रोचक प्रक्रिया
किस जगह पर किस संगठन के कितने पोस्टर लगाए जाएंगे, इसके निर्धारण की प्रक्रिया भी बड़ी रोचक थी और समय के साथ यह बदलती भी गई.
कविता कृष्णन बताती है, ‘किसको कौन-सी जगह मिलेगी ये पहले तो फ्रेंडली-कॉन्टेस्ट से निर्धारित होता था. फिर कुछ समस्याएं आने लगीं तो लॉटरी से होने लगा. हाल के वर्षों में सर्व-संगठन बैठक से निर्णय लिए जाने लगे थे.’
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के व्याख्याता और जेएनयू में एबीवीपी के अध्यक्ष और छात्रसंघ अध्यक्ष पद के उम्मीदवार रहे अमित सिंह विश्वविद्यालय प्रशासन के इस निर्णय से सहमति जताते हुए बताते हैं, ‘कई बार पोस्टर लगाने की ये दौड़ विवाद का रूप ले लेती थी जिसके चलते फिर सर्व-संगठन बैठक से निर्णय लेने शुरू किए गए लेकिन उसमें भी बड़े और मजबूत संगठन अपने ही हिसाब से निर्धारण करते थे.’
जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और सीपीआई नेता कन्हैया कुमार बताते हैं, ‘पहले छोटे संगठनों को जगह नहीं मिल पाती थी लेकिन बाद में इसका ध्यान रखा जाने लगा कि सबको इसमें प्रतिनिधित्व प्राप्त हो सके.’
मालूम हो कि हर साल इसके लिए बैठक की तारीख 5 मई और पोस्टर लगाने का महीना मई और जून तय थे, ताकि मानसून आने और नया सत्र शुरू होने से पहले काम पूरा हो जाए.
पोस्टर लगाने को लेकर भी बहुत सारी मजेदार यादे यहां के लोगों की रही हैं. एक किस्सा सुनाते हुए अमित सिंह बताते हैं कि अपने संगठन के लिए काम करने की इच्छा और पोस्टर लगाने की दौड़ में कई बार हादसे भी हो जाते थे.
वो हंसते हुए याद करते हैं, ‘ऐसा ही हादसा हुआ था जब हमने पोस्टर लगाने की सबसे बड़ी सीढ़ी पर क़ब्ज़ा करने के लिए उसे झाड़ियों में छिपा दिया था, क्योंकि पूरे कैंपस में वही इतनी बड़ी थी और सबसे ऊपर पोस्टर लगाना ज्यादा ख़ुशी देता था. अगले तीन दिन बारिश हुई और सीढ़ी पानी में डूबी रही.’
वे आगे कहते हैं, ‘जैसे ही मौसम साफ हुआ हम सीढ़ी उठाकर निकल पड़े पोस्टर लगाने. 25-30 फीट लंबी सीढ़ी पर जैसे ही हमारा साथी चढ़कर पोस्टर लगाने लगा तो सीढ़ी बीच से चरमराकर टूट गई. गनीमत थी कि नीचे हम चार लोग थे जो उसे गिरने से बचा लिया नहीं तो हॉस्पिटल का रास्ता देखना पड़ता.’
ऐसा ही एक किस्सा कविता कृष्णन बताती हैं कि उनकी साथी, जो कि सबसे लंबी थी इसलिए पोस्टर चिपकाने के लिए उनको ही हमेशा सीढ़ी पर चढ़ाया जाता था और वो छिपकली से डरती थी, वो हमेशा बिना दीवार को देखे ही नीचे से जैसा बताया जाता पोस्टर चिपकाती रहती थी.
क्यूं इतने ख़ास हैं ये पोस्टर
प्रशासन ने इन पोस्टरों को परिसर की स्वच्छता और ख़ूबसूरती बिगाड़ने का हवाला देते हुए हटाने का निर्णय लिया है, लेकिन जानकार इसे ही जेएनयू की सबसे बड़ी खूबसूरती बताते है.
पूर्व छात्र शाहजहां मदन्पट बताते हैं, ‘ये पोस्टर यहां की सबसे मनभावन भौतिक चीज हैं जो आपकी नजरों को खींच लेती हैं और देखने-पढ़ने पर उस विषय पर और ज्यादा पढ़ने को स्वतः ही प्रेरित कर देती है.’
इतना ही नहीं बल्कि इस परंपरा के पीछे यहां के छात्र-छात्राओं की एक व्यापक सामाजिक सोच भी है जिसे समझाते हुए कविता कृष्णन कहती हैं, ‘एडवर्डो गेलियानो ने दीवारों को गरीबों की प्रकाशक कहा है, क्योंकि समाज के पिछड़े वर्गों के पास तो प्रकाशन के संसाधनों तक पहुंच नहीं नहीं होती.’
अकादमिक महत्व को समझाते हुए जेएनयू शिक्षक संघ के अध्यक्ष प्रो. अतुल सूद कहते हैं, ‘पोस्टर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण हिस्सा है. सेमिनार-संगोष्ठी में भी बाकायदा पोस्टर-प्रदर्शनी के लिए अलग से व्यवस्था की जाती है.’
इन पोस्टरों के लिए आकर्षण और इनके योगदान को बताते हुए वर्तमान छात्र और एनएसयूआई से जुड़े विष्णु प्रसाद बताते हैं, ‘मैंने और मेरे जैसे कई छात्रों ने तो यहां प्रवेश ही इन पोस्टरों को देखकर ही लिया है. पोस्टर हटाने के इस निर्णय से हर संगठन नाराज है.’
पिछले साल एबीवीपी से छात्रसंघ अध्यक्ष पद के उम्मीदवार ललित पांडेय कहते हैं, ‘ये बहुत ही गलत निर्णय है. हमारे भी पोस्टर थे और उनसे हम अपनी विचारधारा को ज्यादा बेहतर तरीके से समझा पाते थे. ये सबके लिए आकर्षण की चीज रही है और यहां की विशेषता भी जिसमें सालों से सबका योगदान रहा है.’
पोस्टर हटाने को लेकर वर्तमान और पूर्व छात्र-छात्राओं में गहरी नाराजगी तो है ही लेकिन बाहर से जेएनयू आने वाले लोग भी विश्वविद्यालय प्रशासन के इस निर्णय से नाराज़ हैं.
जेएनयू के पास मुनिरका इलाके में रहने वाले छात्र हेमराज बताते हैं, ‘मैं अक्सर परिसर में घूमने निकल जाता हूं, कोई गांव से आता है तो उसे ये पोस्टर दिखाने जेएनयू जरूर ले जाता हूं. यहां मुझे जो सबसे ज्यादा पसंद है उसे ही अब उजाड़ा जा रहा है. ये पोस्टर मेरी नजर में यहां की सबसे बड़ी खूबी है.’
क्यों हटाए जा रहे हैं पोस्टर?
जेएनयू प्रशासन इन पोस्टरों को ‘स्वच्छ जेएनयू’ अभियान के तहत ‘दिल्ली संपत्ति विरूपीकरण रोकथाम अधिनियम 2007’ का हवाला देकर हटा रहा है.
प्रो. अतुल सूद के हाल में लिए गए कई निर्णयों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘लोकतांत्रिक निर्णय प्रक्रिया को ताक में रखकर बिना सबकी राय लिए, सबको विश्वास में लिए और बिना कोई विकल्प दिए एकतरफा और केंद्रीयकृत फैसले कुलपति और जेएनयू प्रशासन ले रहा है. ये निर्णय भी उनमें से एक है.’
कविता कृष्णन इसकी नींव आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के 2015 में प्रकाशित लेख ‘जेएनयू दरार का गढ़’ में देखती हैं.
वे कहती हैं, ‘उस लेख में सभी प्रगतिशील विचारधाराओं पर सवाल उठाते हुए उनके प्रचार-प्रसार का माध्यम इन पोस्टरों और जेएनयू के सिलेबस को बताया गया था और उनको हटाने की बात कही गई थी.’
ललित पांडेय इसके लिए वर्तमान छात्रसंघ को बराबर का जिम्मेदार बताते हुए कहते हैं, ‘पिछले दो साल से पोस्टरों को लेकर 5 मई को होने वाली सर्व-संगठन बैठक छात्रसंघ ने आयोजित नहीं की और न ही दो साल से पोस्टर लगाए गए हैं. अंतिम बार ये प्रक्रिया 2016 -17 पूरी की गई थी. इसने प्रशासन को अपनी मनमर्जी करने का मौका दे दिया.’
जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष रहे मोहित पांडेय इसके लिए कुलपति और उनकी नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं, ‘पोस्टर सभी विचारधाराओं को जगह दे रहे थे, जिस संस्कृति में पढ़कर वर्तमान कैबिनेट मंत्री निर्मला सीतारमण और एस. जयशंकर जैसे लोग भी निकले हैं, उसे भी ये कुलपति नहीं समझ रहे हैं. कैंपस को सिर्फ बर्बाद करने में लगे हुए हैं.’
पोस्टर हटाने के कदम को लेकर हमने ‘स्वच्छ जेएनयू’ अभियान के निदेशक प्रो. पीके जोशी से संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन उनके यात्रा पर होने के चलते संपर्क नहीं हो सका. उनसे संपर्क होने पर उनके जवाब के साथ इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
आंदोलन पर उतरे छात्र संगठन
पोस्टर हटाने की शुरुआत होते ही इसका चौतरफा विरोध भी शुरू हो गया. सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की मीडिया में इसके विरोध में बहुत कुछ लिखा और बोला जा रहा है.
छात्रसंघ और छात्र संगठन भी इसके विरोध में लामबद्ध हो गए हैं.
आइसा से जुड़े और वर्तमान छात्रसंघ अध्यक्ष एन. साईं बालाजी कहते हैं, ‘इसके विरोध में हमने सर्व-संगठन बैठक बुलाकर निर्णय लिया कि हम सामूहिक रूप से पोस्टर बनाएंगे और गांधीजी के दिखाए मार्ग पर चलते हुए ‘सविनय अवज्ञा’ करते हुए पोस्टर कैंपस की दीवारों पर चिपकाएंगे.’
बालाजी सवाल उठाते हैं, ‘विश्वविद्यालय की दीवारें सीखने और सीखाने के काम क्यों नहीं ली जा सकतीं, ये छात्र-छात्राओं की प्रकाशक क्यों नहीं बन सकती?’
एनएसयूआई के जेएनयू इकाई के अध्यक्ष विकास यादव कहते हैं, ‘हम इस निर्णय का पुरजोर विरोध करते हैं और इसके खिलाफ लड़ाई लड़ी जाएगी.’
जेएनयू के छात्र-छात्राएं इसे अकादमिक हमला मानते हैं, जो सोचने-समझने और पढ़ने की संस्कृति को सीमित कर देगा.
छात्र संगठन एसएफआई से जुड़ीं और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान की कन्वीनर आईशी घोष कहती हैं, ‘इन पोस्टर पर लोगों ने अपने अकादमिक शोध तक किए हैं. ये कला के पोषक और ज्ञान के विस्तारक रहे हैं. कैसे कोई इन्हें हटाने का निर्णय ले सकता है?’
आम छात्र भी इससे काफी चिंतित दिख रहा है और दुख भी प्रकट कर रहा है.
पिछले दो साल से जेएनयू में पढ़ रहे हिमांशु कुमार कहते हैं, ‘पोस्टर हटाना ऐसा लग रहा है जैसे जेएनयू को नंगा किया जा रहा है. ये तो कैंपस का लिबास हैं, बिना लिबास ये कैसा लगेगा ये सोचकर ही मन ख़राब हो जाता है.’
आम छात्र-छात्राओं में इसको लेकर इतना रोष है कि बीते 19 जुलाई को पोस्टर हटाने का आदेश जारी होने के बाद भी इसके विरोध में सैकड़ों छात्र-छात्राएं सामूहिक पोस्टर बना रहे हैं.
नया सत्र है, नए छात्र-छात्राएं आए हैं, जो शायद अभी कुछ निर्णय लेने की स्थिति में न हों और जल्दी ही छात्रसंघ के चुनाव भी होने हैं ऐसे में देखना ये है कि ये छात्र-छात्राएं जेएनयू की बोलती दीवारों को चुप होने से बचा पाएंगे या नहीं.
(महेश चौधरी राजस्थान विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं और खुशबू शर्मा जेएनयू में राजनीति विज्ञान की छात्रा हैं.)