फोटो पत्रकारिता: सौविद दत्ता की पेशेवर चोरी पर ख़ामोशी क्यों?

लंदन में रहने वाले भारतीय मूल के फोटो पत्रकार सौविद दत्ता द्वारा सेक्स वर्कर की ज़िंदगी पर खींची गई एक तस्वीर की चोरी करने का मामला सामने आया है.

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लंदन में रहने वाले भारतीय मूल के फोटो पत्रकार सौविद दत्ता द्वारा सेक्स वर्कर की ज़िंदगी पर खींची गई एक तस्वीर की चोरी करने का मामला सामने आया है.

Souvid Dutta Plagiarism
सौविद दत्ता द्वारा चोरी की गई तस्वीर (ऊपर), मैरी एलन मार्क द्वारा खींची गई असली तस्वीर (नीचे) जिसमें नज़र आ रही एक सेक्स वर्कर की तस्वीर को सौविद ने अपनी एक तस्वीर में इस्तेमाल किया.

सौविद दत्ता की जिन दो तस्वीरों को लेकर इस दिनों फोटो पत्रकारिता की विश्वसनीयता और मर्यादा पर बहस चल रही है, उनमें से एक में फोटोशॉप का इस्तेमाल करके मेरी एलन मार्क की तस्वीर का एक हिस्सा इस्तेमाल करने की बात वह ख़ुद स्वीकार कर चुके हैं.

कोलकाता के सोनागाछी इलाके में सेक्स वर्कर्स की ज़िंदगी पर उनके प्रोजेक्ट ‘इन द शैडो ऑफ कोलकाता’ की एक और तस्वीर इंसानी संवेदना के लिहाज़ से बेहद गंभीर है.

फोटोग्राफर की समझ और संवेदनशीलता के साथ ही यह उन लोगों के पेशेवर कौशल और समझदारी पर भी सवाल खड़े करती है, जिन्होंने इसे इस्तेमाल के लायक माना.

एक किशोरवय बच्ची से बलात्कार की यह फोटो लेंसकल्चर पत्रिका ने मैग्नम फोटोग्राफी अवॉर्ड के प्रचार के लिए फेसबुक पर पोस्ट कर रखी थी. दुनिया भर में इसको लेकर मचे बवाल और आलोचना के बाद लेंसकल्चर ने माफी मांगते हुए यह पोस्ट हटा ली.

फोटो पत्रकारिता की सच्चाई और उस पर भरोसे को लेकर ऐसी बहसें नई नहीं हैं और न ही उसकी मर्यादा परिभाषित करने और हदें याद दिलाने की कोशिशें नई हैं. पिछले साल मशहूर फोटोग्राफर स्टीव मैकरी की तस्वीरों में विषयवस्तु से छेड़छाड़ के तमाम नमूने उजागर होने के बाद अर्से तक ऐसी ही बहसें चलती रहीं.

स्टीव ने यह कहकर अपना बचाव किया कि तस्वीरों में गड़बड़ी उनके स्टूडियो के स्टॉफ ने की और यह भी कि वह फोटोजर्नलिस्ट नहीं, किस्सागो हैं. इस तरह परोक्ष रूप से उन्होंने अपनी तस्वीरों में छेड़छाड़ को सही ही ठहराया.

सौविद अपनी स्वीकारोक्ति में दूसरों की तस्वीरें चुराने के लिए प्रतियोगी माहौल और आर्थिक दबावों के बीच अपनी जगह बनाने की कोशिश को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. इन दोनों ही तर्कों पर किसी को भी कोफ्त हो सकती है.

उन्हें तो ज़रूर होगी, जो इनको फोटोजर्नलिस्ट मानते रहे हैं और इनकी तस्वीरों की सच्चाई पर भरोसा करते आए हैं. और अगर यह भरोसा न होता तो सौविद इतने कम समय में इतने सारे अंतर्राष्ट्रीय अवॉर्ड और ग्रांट भला कैसे हासिल कर पाते?

लेंसकल्चर ने सौविद दत्ता की जो फोटो फेसबुक पर पोस्ट की थी, उसमें किशोरी का चेहरा कैमरे की ओर और उसके दोनों हाथ ऊपर झुके शख़्स की पीठ पर दिखाई देते हैं. कैप्शन में उसकी 16 वर्ष की उम्र और नाम के साथ ही सोनागाछी के ग्राहकों के शराबी होने और इस नाते सेक्स वर्कर्स से दुर्व्यवहार की आशंका का ज़िक्र भी है.

सौविद के हवाले से कई जगह यह भी लिखा गया कि किशोरी की सहमति से उसकी प्रताड़ित ज़िंदगी का सजीव दस्तावेज़ बनाने के इरादे से ग्राहक की पीठ की ओर खड़े होकर उन्होंने यह तस्वीर बनाई.

पॉस्को एक्ट के उल्लंघन को थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं तो क्या सचमुच किसी सेक्स वर्कर की ज़िंदगी में तकलीफों के बयान के लिए आपको इसी क्षण के दस्तावेज़ की दरकार ज़रूरी लगती है?

फोटो एजेंसी ‘नूर’ की फोटोजर्नलिस्ट नीना बेरमन मानती हैं कि यह तस्वीर किसी सूरत में छपनी ही नहीं चाहिए थी. टाइम पत्रिका ने नीना के हवाले से लिखा, ‘मुझे नहीं लगता कि कोई संपादक अमेरिका या यूरोप में रहने वाली किसी किशोरी या महिला के साथ हो रहे बलात्कार की ऐसी तस्वीर छापने के बारे में सोचता भी. मानव तस्करी की शिकार किसी बच्ची के साथ सेक्स को बलात्कार नहीं तो और क्या कहेंगे?’

अभी पिछले साल सितंबर की बात है. फेसबुक ने विएतनाम युद्ध की एक आइकॉनिक तस्वीर ‘नापाम गर्ल’ को अपनी वेबसाइट से हटा दिया. तर्क यह दिया कि यह तस्वीर सोशल मीडिया में बच्चों की नग्नता के नियमों का उल्लंघन करती है.

नॉर्वे के एक लेखक ने युद्ध की विभीषिका बताने वाली कुछ तस्वीरें फेसबुक पर पोस्ट की थीं और इनमें यह तस्वीर भी शामिल थी. इसे हटाने के फैसले पर काफी छीछालेदर के बाद फेसबुक ने तस्वीर पर सेंसर का फैसला वापस लिया था.

ऐसे में सौविद की सोनागाछी की तस्वीर का फेसबुक पर ऐलानिया बने रहना सेंसरशिप के कायदों और नीयत पर संदेह पैदा करता है.

सौविद दत्ता ब्रिटेन में रहते हैं मगर हिंदुस्तानी मूल के हैं. मानव तस्करी और देह व्यापार जैसे गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर काम की शुरुआत से पहले उन्होंने कुछ रिसर्च भी की ही होगी.

ऐसे में यह मानने की कोई वजह नहीं कि इस बाबत कानूनों की जानकारी उन्हें नहीं रही होगी. तो क्या किसी मॉडल रिलीज़ (अगर सचमुच ऐसा है तो भी) के आधार पर कोई कानून तोड़ा जा सकता है?

दो साल पहले खींची गई यह तस्वीर अब तक जाने कितने संपादकों, प्रकाशकों और दर्शकों की निगाह से गुज़री होगी तो फिर किसी निगाह को यह उस तरह क्यों नहीं खटकी, जैसे कि बंगलुरु की श्रेया भट्ट को?

श्रेया ने ही सौविद की तस्वीर में मेरी ऐलन मार्क के किरदार की पहचान की है. बकौल श्रेया, मुमकिन है कि दूसरों ने इसे सिर्फ़ ऐसी तस्वीर के तौर पर देखा, जिसमें एक कहानी है. मगर कुछ लोगों ने इसे बेहद असंवेदनशील तरीके से बनाई गई आपराधिक कृत्य की तस्वीर ज़रूर माना होगा.

यह क्या कम हैरानी की बात है कि फेसबुक पर लेंसकल्चर के पेज को 9.5 लाख से ज्यादा लोग फॉलो करते हैं मगर फोटो देखने और कैप्शन पढ़ने के बाद भी यह बात किसी को नहीं अखरी.

कानूनी नहीं, कम से कम इंसानी पहलू से खटकने वाले सारे तत्व इस तस्वीर में मौजूद थे. ज़ाहिर है कि अगर ऐसा हुआ होता तो इस तस्वीर के हवाले से सौविद को इतनी शाबाशी और वाहवाही तो न मिल पाती.

यह भी कम हैरतअंगेज़ नहीं है कि अख़बारों या टेलीविज़न चैनलों को इंटरव्यू में फोटो पत्रकारिता की पवित्रता पर प्रवचन करने वाले हिंदुस्तानी फोटोजर्नलिस्ट सौविद के मसले पर अब तक कुछ नहीं बोले हैं.

पेटापिक्सल ने सौविद मामले में पहली रिपोर्ट तीन मई को छापी थी. ‘टाइम’ ने चार मई को सौविद का इंटरव्यू भी छाप दिया, जिसमें उन्होंने फोटो की चोरी के आरोपों को सही माना.

दुनिया भर के मीडिया और सोशल मीडिया में इस मसले पर ख़ूब गहमागहमी रही मगर हमारे यहां लगभग ख़ामोशी का हाल है.

स्टीव मैकरी के मामले में फोटोग्राफर कम से कम सोशल मीडिया पर ख़ूब सक्रिय रहे थे, कुछ ने अख़बारों में भी लिखा. सच्चाई, ईमानदारी, ऐतबार और पाक़ीज़गी को न्यूज़ फोटो की शर्त बताते हुए तमाम लोगों ने स्टीव मैकरी पर निशाना साधा.

भारतीयों की रेल यात्रा की उनकी तस्वीरों के असली किरदार खोज निकाले गए, कुली के हाथ-सिर की अटैचियों के ख़ाली होने के प्रमाण भी मिल गए.

अलबत्ता नामचीन लोगों का एक तबका ऐसा भी था, जिसने स्टीव के साथ मज़बूती से खड़े होकर तर्क दिए कि फोटोग्राफी को सच्चाई का दस्तावेज़ मानना ही सबसे बड़ी हिमाक़त है.

ऐसी उम्मीद भी नासमझी है क्योंकि फोटोग्राफ में हकीक़त से छेड़छाड़ हमेशा से होती आई है. यानी स्टीव के ऐसा करने से कोई आसमान नहीं टूट पड़ा है. इन्हीं लोगों ने बड़ी शाइस्तगी से यह भी मान लिया कि जब स्टीव ने ख़ुद के फोटोजर्नलिस्ट होने से ही इंकार कर दिया तो फिर झगड़ा ही ख़त्म.

मुमकिन है कि ताज़ा खामोशी की वजह शायद यह हो कि सौविद का मामला इस तरह के तर्कों से परे है या यह कि फोटोग्राफरों की बिरादरी में सौविद का क़द स्टीव से काफी छोटा है.

हालांकि एक सच यह भी है कि देश में प्रिंट मीडिया के एक सदी से ज़्यादा पुराने इतिहास के बावजूद फोटो पत्रकारिता के मामले में हम दुनिया के तमाम मुल्कों से पीछे ही है.

इसकी तमाम वजहें हैं- अख़बारों-पत्रिकाओं में तस्वीरों की क़द्र को लेकर अरुचि, पेशेवर माहौल और प्रतिबद्धता का अभाव, तस्वीरों को लेकर पाठकों-दर्शकों की समझ का स्तर.

दूसरे विजुअल माध्यमों की तरह ही तमाम फोटोजर्नलिस्ट यह तर्क देते मिल जाएंगे कि लोग उनकी तस्वीरों को सही संदर्भ में समझ ही नहीं पाते. इसे यों कहें कि उनकी तस्वीरों की तारीफ नहीं कर पाते.

एक हद तक शायद यह बात सही भी हो मगर इस स्थिति के लिए उनमें से कोई ख़ुद को ज़िम्मेदार मानने के लिए तैयार नहीं.

कुछ साल पहले वर्ल्ड प्रेस फोटो के सहयोग से हिंदुस्तानी फोटोजर्नलिस्ट्स के लिए एक कार्यशाला का आयोजन किया गया था. प्रशिक्षण देने वालों ने प्रोजेक्ट के तहत हुए काम का मूल्यांकन करने के बाद टिप्पणी की कि हिंदुस्तान के फोटोजर्नलिस्ट्स को अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है.

प्रशिक्षकों में शामिल रहे पाब्लो बार्थोलोम्यू ने एक बार अपने इंटरव्यू में कहा था, ‘मैं भरसक कोशिश करता हूं कि मेरी तस्वीरों में ज़िंदगी की सच्चाई झलके. मैंने आदिवासियों के बीच काफी काम किया है, मगर किसी स्त्री से उसके कपड़ों को दुरुस्त करने या चेहरे पर कोई ख़ास भाव लाने के लिए कभी नहीं कहा.’

कुंभ के मेले में मैंने बड़े-बड़े धुरंधरों को साधुओं से पोज़ बनाने, चिलम का धुंआ छोड़ने या त्रिशूल ऊपर उठाने के लिए कहते हुए सुना है. फोटो पत्रकारिता का मौजूदा परिदृश्य अगर वाकई संतोषजनक है तो हमें उस टिप्पणी को प्रशिक्षकों का पूर्वाग्रह मानकर भूल जाना चाहिए. और सौविद के मामले में प्रतिक्रियाहीन, ख़ामोश बिरादरी को उसका किरदार मानकर कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)