सोनभद्र में किसी ने उन आदिवासियों की भुखमरी के हालात की तह में जाने की कोशिश तक नहीं की, यह सवाल नहीं पूछा कि मौत का ख़तरा होते हुए भी वे इस अनउपजाऊ क्षेत्र में ज़मीन से क्यों चिपके हुए थे?
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के घोरावल तहसील के उम्भा गांव में गोंड आदिवासियों के कब्जे की जमीन पर जबरन कब्जा करने के लिए गांव प्रधान 20 ट्रैक्टरों में 200 हथियारबंद लोगों को लेकर आया और अंधाधुंध फायरिंग कर 3 महिलाओं सहित 11 आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया और दो दर्जन से ज्यादा लोगों को घायल कर दिया.
जिस तरह से इस घटना को अंजाम दिया गया, उससे ऐसा लग रहा है, जैसे किसी ने आज की पीढ़ी के लिए इतिहास के पन्नों से राजशाही समय से चली आ रही सामंती व्यवस्था का बिहार के बेलछी गांव की घटना तरह एक बार फिर सजीव चित्रण पेश किया हो, लेकिन इतनी वीभत्स घटना भी हमारे देश के जनमानस को झंझोड़ने में नाकामयाब रही.
और तो और, राष्ट्रीय अनूसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति का 22 जुलाई को प्रस्तावित दौरा रद्द हो गया. यह क्यों हुआ? किसके दबाव में हुआ? यह स्पष्ट नहीं है. सिर्फ इस बारे में 21 जुलाई को केन्द्रीय प्रेस सूचना विभाग ने एक छोटी सी सूचना जारी की. अगर इतनी बड़ी घटना के बाद आदिवासियों के हित के नाम पर बना आयोग वहां नहीं जाता है या जा पाता है, तो इससे समझ आता है उसका अस्तित्व क्या है और वो दिखावे के लिए भी कुछ नहीं करना चाहता है.
खैर, सोनभद्र की इस घटना के पीड़ितों को लेकर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने आवाज उठाई, यह विपक्ष की नेता होने के नाते उनका कर्तव्य था, जो वहां कि अन्य प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने नहीं पूरा किया. उनके दौरे ने इस मुद्दे के प्रति मीडिया में कुछ रुचि पैदा कर दी, लेकिन मीडिया की रुचि इस इलाके के आदिवासियों के भविष्य में कम और प्रियंका गांधी के भविष्य में ज्यादा थी.
किसी भी न्यूज़ चैनल ने यहां के आदिवासियों की भुखमरी के हालात की तह में जाने की कोशिश तक नही की. यह सवाल नहीं पूछा कि मौत का खतरा होते हुए भी आदिवासी इस अनउपजाऊ क्षेत्र में जमीन से क्यों चिपके हुए थे?
मीडिया की रुचि तो बस इस बात में थी कि 1977 की जबरदस्त हार के बाद कैसे इंदिरा गांधी ने बिहार के बेलछी में हुए दलितों के नरसंहार के मुद्दे को उठाकर राजनीति में वापसी की थी. वो यह कयास लगाने में लगे थे कि क्या उसी तरह उनकी पोती गांधी परिवार और कांग्रेस को राजनीति में वापस ला पाएगी?
मीडिया कोशिश करती तो उसे मालूम होता कि जिस तरह से देश के सारे खनिज बाहुल्य आदिवासी इलाके में होता है, वैसा यहां भी हुआ. यहां की सारी समृद्धि पूंजीपति और सरकार ने अपने कब्जे में ले ली और आदिवासियों के लिए छोड़ दी गरीबी और भुखमरी. यह इलाका झारखंड, छतीसगढ़, मध्य प्रदेश और बिहार से सटा होने के कारण खनिज समृद्ध इलाके का हिस्सा है.
आजादी के बाद भी यह तब तक मुख्यधारा से कटा रहा जबतक यहां सीमेंट, एल्युमीनियम और बिजली बनाने के लिए प्लांट नहीं खड़े किए गए. खनिज संसाधन यहां के आदिवासियों के लिए अभिशाप बन गया. उन्हें उनके जंगल और जमीन से दूर कर पर्यावरण का विनाश तो किया ही गया, साथ ही वो भूमिहीन बन गए और जो जंगल से भोजन और कुछ संसाधन मिलता था, वो भी छिन गया.
उत्तर प्रदेश का सोनभद्र और उससे सटा मध्य प्रदेश का सिंगरौली जिला मिलाकर देश की 10% बिजली आती है, इसे देश की विद्युत राजधानी भी कहा जाता है. उत्तर प्रदेश तो इस जिले के बिना अंधेरे में डूब जाएगा, उसकी 18,000 मेगावाट बिजली की मांग में से अधिकांश की आपूर्ति इस जिले से होती है. यह अलग बात है कि यहां के लोग अंधेरे में रहते हैं. एशिया का सबसे बड़ा सीमेंट प्लांट भी इस जिले में है.
आजादी के 72 साल पूरे होने को आए, लेकिन दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के दावे करने वाले भारत देश के खनिज समृद्ध इलाके का आदिवासी के पास अपनी भूख से लड़ने के लिए दो ही विकल्प बचे हैं: या तो वो भ्रष्टाचार से भरी सरकारी व्यवस्था से भोजन मिलने के इंतजार करता-करता भूख से मर जाए.
या वो जंगल में जमीन जोतने के लिए सरकारी जमींदार (वन विभाग, जिसके पास देश 25% भू-भाग है, जो कभी आदिवासियों का था) और उसकी हथियारों की ताकत से निपटे, और नहीं तो राजस्व इलाके में निजी जमींदार से निपटता मारा जाए.
सोनभद्र जिले के उम्भा गांव की ताज़ा घटना ने इस कड़वी सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित कर दिया है.
इस इलाके में जंगल जमीन पर हक़ को लेकर ‘ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल के बैनर तले लंबे समय से गोंड एवं अन्य समुदाय के लोग संघर्षरत है.
इसे लेकर वो अक्सर वन विभाग के अत्याचारों का शिकार होते रहते हैं. वो लगातार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से वन अधिकार कानून, 2006 के तहत आदिवासियों को अधिकार देने की मांग करते आ रहे हैं, लेकिन, इसे लेकर सरकार के कान पर अब तक जूं नहीं रेंगी.
योगी सरकार तो अपनी नाकामी का ठीकरा नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस पर फोड़ने की मोदी-शाह की ‘चाणक्य नीति’ को आगे बढ़ाते हुए ने सोनभद्र की घटना के मामले में 1955 की कांग्रेस सरकार को जिम्मेदार ठहराया है.
वो अगर थोड़ा और शोध करते तो उन्हें मालूम पड़ता कि इस सब झगड़े के बीज तो अंग्रेजों बो कर गए थे, उनकी नीतियों के चलते ही आदिवासियों का राजस्व और वन भूमि से हक़ छीन लिया गया था, लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या यह व्यवस्था बदलेगी? या आदिवासियों को उनके हिस्से के हक़ देने के मामले में व्यवस्था 1947 के आसपास ही अटकी रहेगी?
आज आदिवासी के लिए बच्चे के पैदा होने से पहले गर्भवती मां को पोषक अहार देने से लेकर बूढ़े होने पर अन्त्योदय योजना के तहत भोजन देने की योजना कागजों पर है, लेकिन जमीनी हक़ीक़त यह है है कि आज भी 50% के लगभग आदिवासी महिलाएं शारीरिक ऊर्जा की भारी कमी एवं 70% खून की कमी की बीमारी से पीड़ित हैं.
देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से सटे पालघर जिले में 2013 से 2016 के बीच कुपोषण से हर साल 500 के लगभग आदिवासी बच्चों की मौत हुई.
वहीं इस देश के लोकतंत्र की विडंबना देखिए कि भोजन के साधन वितरण की इस व्यवस्था को सरल करने की बजाय भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर और जटिल बना दिया गया जिससे इन आदिवासियों को पेट भरने के लिए अनाज मिलना और दूभर हो गया.
इसके उलट, केंद्रीय सूचना आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट भी 12 बड़े पूंजीपति, जिनके ऊपर बैंक के कुल बकाया की 25% राशि (ढाई लाख करोड़ रुपए के लगभग) बाकी है, के नाम तक सार्वजनिक नहीं करवा पाया. इतना ही नहीं, पहले दस हजार करोड़ और अब 30 हजार करोड़ के बैंक घोटाले के आरोपी तो विदेश जा बैठे.
वहीं गरीब आदिवासी अपना पेट जैसे-तैसे भर सके, ऐसी योजनाओं में चंद सैंकड़ा रुपए मूल्य की कल्याणकारी योजना का लाभ देने के लिए आधार की अनिवार्यता की सरकार की शर्त को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मंजूरी दे दी.
इससे सरकार को अब इस बात का हक़ मिल गया कि वो कुपोषित और भूखे आदिवासी को चंद किलो अनाज तब तक न दे , जब तक उसकी उंगलियों के निशान न मिल जाए. इसका परिणाम यह है कि अकेले झारखंड में राशन न मिलने से कई आदिवासी भूख से मर गए.
सोनभद्र की घटना हमसे चीख-चीखकर कह रही है कि आदिवासियों को सरकार की भ्रष्ट व्यवस्था से राशन की भीख नहीं, इस आसमान के नीचे अपने हक़ की जमीन चाहिए. आजादी के समय कांग्रेस द्वारा ‘जो जोते उसकी जमीन’ का वादा किया गया था, वह आजादी के बाद 1954 में जमींदारी व्यवस्था खत्म करने के लिए कानून भी लाई. वहीं, जंगल-जमीन से सरकारी जमींदारी खत्म करने की बात करने में उसे 59 साल लग गए.
आदिवासियों को जमीन और जंगल पर हक़ मामले में ऐतिहासिक अन्याय हुआ था, जिसे उन्हें वापस देने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार 2006 में वन अधिकार कानून लाई.
राजस्व इलाके से जमींदारी कुछ हद तक तो खत्म हुई है, लेकिन अब भी बड़ा काम बाकी है. मगर जंगल जमीन पर वन विभाग की जमींदारी खत्म करने के मामले में तो 2006 से अब तक नाममात्र ही काम हुआ है.
मोदी और योगी सरकार हर मामले में कांग्रेस पर ठीकरा फोड़ना बंद कर इतने बड़े बहुमत का उपयोग आदिवासियों को बिना गोली और जेल के भय के इज्जत से जीने का हक़ दे. मीडिया को भी चाहिए कि वो प्रियंका गांधी के भविष्य की चिंता छोड़े और आदिवासियों के भविष्य पर अपना फोकस रखे.
(लेखक श्रमिक आदिवासी संगठन/समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)