सीजेआई के ख़िलाफ़ शिकायत से निपटने में आंतरिक कमेटी की प्रक्रिया सवाल खड़े करती है: पूर्व जज

दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह ने यह टिप्पणी अप्रैल में सीजेआई रंजन गोगोई पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्व कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न और प्रताड़ना के आरोपों के संदर्भ में की है. उन्होंने कहा कि पूरी प्रक्रिया को न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के नाम पर गोपनीयता में बदल दिया गया.

दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह. (फोटो साभार: यूट्यूब)

दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह ने यह टिप्पणी अप्रैल में सीजेआई रंजन गोगोई पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्व कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न और प्रताड़ना के आरोपों के संदर्भ में की है. उन्होंने कहा कि पूरी प्रक्रिया को न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के नाम पर गोपनीयता में बदल दिया गया.

दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह. (फोटो साभार: यूट्यूब)
दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह. (फोटो साभार: यूट्यूब)

नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह ने रविवार को कहा कि उच्चतम न्यायालय की एक पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई के खिलाफ लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों से निपटने में आंतरिक जांच कमेटी की प्रक्रिया सवाल खड़े करती है.

27 वें रोजलिंड विल्सन स्मृति व्याख्यान में जस्टिस (सेवानिवृत्त) शाह ने कहा, ‘हमें एक मजबूत तंत्र की जरूरत है, ताकि भविष्य की घटनाओं को अलग तरीके से और बेहतर तरीके से निपटा जा सके.’

मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व कर्मचारी ने शीर्ष अदालत के 22 जजों को पत्र लिखकर आरोप लगाया था कि मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने अक्टूबर 2018 में उनका यौन उत्पीड़न किया था.

35 वर्षीय यह महिला अदालत में जूनियर कोर्ट असिस्टेंट के पद पर काम कर रही थीं.

इस मामले में न्यायमूर्ति एसए बोवडे के नेतृत्व में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय आंतरिक जांच समिति ने सीजेआई को क्लीनचिट देते हुए कहा था कि उनके खिलाफ लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों में कोई भी सच्चाई नहीं थी.

शाह ने कहा कि पूरी प्रक्रिया न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के नाम पर गोपनीयता के दायरे में रखी गई.

उन्होंने कहा, ‘आरोपों की सच्चाई या झूठे होने पर निर्णय किए बिना मैं स्वीकार करता हूं कि कुछ स्पष्ट तथ्य हैं जो विचार किए जाने की मांग करते हैं.’

उन्होंने कहा कि जांच की प्रक्रिया सवाल खड़े करती है. शिकायतकर्ता को वकील द्वारा प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं दी गई और आंतरिक प्रक्रिया के बारे में उसे समझाया नहीं गया.

उन्होंने कहा, ‘संपूर्ण प्रक्रिया को न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के नाम पर गोपनीयता में बदल दिया गया. यह सब भारत में न्यायाधीशों के लिए जवाबदेही प्रणाली पर फिर से गौर करने की मांग करती है, और कई सवाल उठाती है.’

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, जस्टिस शाह ने कहा, न्यायाधीशों के दिमाग में कोई पूर्व-निर्धारित नैतिक कोड नहीं होता है, जो कुर्सी पर बैठने के दौरान उनके व्यवहार को निर्धारित करता है. वास्तव में, वे वकील, वादी, प्रतिवादी, अपराधी, गवाह और पुलिस की तरह ही इंसान हैं.

उन्होंने कहा, केवल उनके कार्यालय की प्रकृति के कारण उन्हें नैतिक होने का अधिकार प्रदान कर देना झूठा और बहुत ही खतरनाक है. उनके पूरे जीवन में उन्हें यह लगातार याद दिलाया जाना चाहिए कि सही व्यवहार क्या है ताकि उनके ऊपर जिस निष्पक्ष न्याय की जिम्मेदारी डाली गई है अपनी उस भूमिका से वे कभी समझौता न करें. न्यायपालिका का यही एकमात्र और अंतिम लक्ष्य है.

हालांकि, उन्होंने कहा कि न्यायिक जवाबदेही की प्रणाली की बात न्यायपालिका के ही भीतर से आनी चाहिए, न कि सरकार के विधायी या कार्यपालिका के माध्यम से.

उन्होंने कहा, दुखद रूप से जिस तरह से इस मामले में हुआ उस तरह से किसी भी मामले में चीफ जस्टिस को अपवाद नहीं माना जा सकता है.कोई भी जवाबदेही प्रणाली निश्चित तौर पर बिना किसी भेदभाव के सभी जजों पर लागू होनी चाहिए. कानून और प्रक्रिया को इस बात के साथ भी जोड़ना चाहिए कि विशाखा दिशानिर्देश न्यायपालिका पर कैसे लागू किए जा सकते हैं और इसी तरह सूचना का अधिकार किस हद तक लागू है.

न्यायपालिका की स्वतंत्रता के नुकसान के साथ न्यायिक जवाबदेही के टकराव की ओर इशारा करते हुए, शाह ने तर्क दिया कि न्यायिक स्वतंत्रता का कोई अंत नहीं है लेकिन न्यायिक निष्पक्षता को बढ़ाया जा सकता है.

उन्होंने कहा कि नए तरह की न्यायपालिका में यह अधिक आवश्यक हो जाता है क्योंकि यह एक कार्यकर्ता की तरह अधिक व्यवहार कर रही है. यह पहले की तुलना में कहीं अधिक जनवादी बनकर नीति और कानून निर्माण का काम कर रही है.

शाह ने सूचना का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2019 के बारे में एक सवाल के जवाब में कहा कि इस कदम के पीछे मूल मकसद इस कानून के प्रावधानों को कमजोर करना है.

बता दें कि इससे पहले, सीजेआई रंजन गोगोई के ख़िलाफ़ पूर्व महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों के मामले में सुप्रीम कोर्ट की शुरुआती जांच को संस्थागत भेदभाव बताते हुए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मदन बी लोकुर ने कहा था, ‘मेरा मानना है कि कर्मचारी के साथ न्याय नहीं हुआ है.’

वहीं, पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को यौन उत्पीड़न मामले में क्लीनचिट देने वाली आंतरिक समिति की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए. उन्होंने कहा था कि आंतरिक जांच समिति द्वारा लिए गए निर्णय को सार्वजनिक न करने का कोई कारण या कानून आधार नहीं है.

pkv games bandarqq dominoqq