मोदी सरकार के इस कदम ने सात दशकों की आधिकारिक नीति को ख़त्म करते हुए देश को अनजान क़ानूनी और राजनीतिक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है.
संविधान के दो अहम पहलुओं, जो सामान्य तौर पर भारतीय संघ के भीतर प्रांतों की शक्तियों और विशेष तौर पर जम्मू-कश्मीर राज्य की शक्तियों को परिभाषित करते हैं, पर सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने सात दशकों की आधिकारिक नीति का खात्मा कर दिया है और देश को अनजान कानूनी और राजनीतिक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है.
बदलाव क्या हुआ है?
जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र बलों की भारी तैनाती, मुख्यधारा के राजनेताओं की नजरबंदी और सभी पर्यटकों और अमरनाथ यात्रियों को राज्य से निकलने का आदेश देने की पृष्ठभूमि में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सोमवार 5 अगस्त को सुबह 11 बजे राज्यसभा में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा वापस लेने के सरकार के फैसले की घोषणा की. यह भारतीय जनता पार्टी का दशकों पुराना वादा रहा है.
हैरानी की बात यह भी है कि भाजपा ने इस बारे में पहले कभी बात नहीं की थी, शाह ने जो विधेयक पेश किया वो दरअसल जम्मू कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनकर और इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांटता है.
अमित शाह ने कहा कि ‘केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख में कोई विधानसभा नहीं होगी. साथ ही वर्तमान जम्मू-कश्मीर राज्य में सीमापार आतंकवाद के साये में मौजूदा आंतरिक सुरक्षा हालात को देखते हुए जम्मू-कश्मीर का एक अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया जा रहा है. जम्मू-कश्मीर के केंद्रशासित प्रदेश में विधानसभा होगी.’
सदन में विरोध के बीच शाह ने कहा कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अनुच्छेद 370 के उपबंध 1 के तहत दी गई अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए संविधान के सभी प्रावधानों को जम्मू-कश्मीर में प्रभावी बना दिया है. इससे पहले सिर्फ वे प्रावधान ही वहां लागू होते थे, जिस पर जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति होती थी.
अनुच्छेद 370 को खत्म करने या उसे निरस्त करने की जगह सरकार ने इसके प्रावधानों के प्रभाव या दायरे को कम कर दिया है और राष्ट्रपति के आदेश को न्यायोचित साबित करने के लिए राज्यपाल को, जो कि केंद्र द्वारा मनोनीत होता है, उसे राज्य सरकार के बराबर मान लिया है.
क्या यह कानूनी है?
ऊपरी तौर पर देखने पर ऐसा लगता है कि अनुच्छेद 370 के प्रभाव को कम करना और राज्य का दो हिस्सों में बंटवारा और दोनों का दर्जा घटाकर उन्हें केंद्र शासित प्रदेश बनाने के काम उस तरीके से नहीं किया जा सकता है, जिस तरह से अमित शाह और सरकार इसे करना चाहते हैं.
संविधान का अनुच्छेद 3 कहता है कि किसी राज्य का नाम बदलने या उसके क्षेत्रफल को कम करने वाले किसी विधेयक को संसद में विचार के लिए प्रस्तुत किए जाने से पहले उसे अनिवार्य तौर पर पहले ‘राष्ट्रपति द्वारा राज्य की विधानसभा के पास विचार के लिए भेजा जाना चाहिए, ताकि राज्य उस पर अपनी राय दे सके.’
यह देश की संघीय व्यवस्था की रक्षा के खातिर शामिल किया गया एक अनिवार्य सुरक्षा कवच है, साफ तौर पर जिसका पालन इस मामले में नहीं किया गया है. संसद में शाह ने एक कानूनी काल्पनिक कथा गढ़ी कि चूंकि जम्मू कश्मीर की विधानसभा भंग है और राज्य केंद्र के शासन के अधीन है, इसलिए संसद के पास राज्य विधानसभा के विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करने की शक्ति मिल गई है.
अगर मोदी सरकार के इस तर्क को आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है, तो भारत के संघ के किसी भी राज्य के साथ ऐसा किया जा सकता है. यह दुखद है कि आम आदमी पार्टी, बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वायएसआर कांग्रेस ने इस कदम का समर्थन किया है, जबकि वे संघवाद के प्रबल समर्थक हैं.
जहां तक अनुच्छेद 370 का संबंध है, जम्मू कश्मीर के लिए इसके महत्व का विश्लेषण करने से पहले हम इसके खात्मे या इसे कमजोर करने के आधार के तौर पर इस्तेमाल में लाए गए प्रावधानों पर विचार करते हैं. अनुच्छेद 370 (3) साफतौर पर कहता हैः
राष्ट्रपति लोक अधिसूचना द्वारा यह घोषित कर सकेगा कि यह अनुच्छेद अमल में नहीं रहेगा या ऐसे अपवादों और संशोधनों सहित ही और ऐसी तारीख से अमल में रहेगा, जो वह निर्दिष्ट करें, परंतु राष्ट्रपति द्वारा ऐसी अधिसूचना निकाले जाने से पहले उस राज्य की संविधान सभा की सिफारिश आवश्यक होगी.
राष्ट्रपति आदेश का मकसद एक नया उपबंध शामिल करके संविधान के एक असंबद्ध अनुच्छेद (अनुच्छेद 367) को संशोधित करने का है, जो अन्य बातों के साथ राज्य की संविधान सभा को इसकी विधानसभा के तौर पर पुनर्परिभाषित करता है.
जबकि इस कदम की वैधानिकता भी सवालों के घेरे में है- सर्वोच्च न्यायालय का इस बाबत निर्णय है, जिसमें यह कहा गया है कि संविधान सभा के विघटन का एक तरह से मतलब है कि अनुच्छेद 370 को छुआ नहीं जा सकता है – कम से कम राज्य की विधानसभा को इस कदम पर अपनी मुहर लगानी होगी, जो कि इस मामले में नहीं किया गया है.
क्या हैं इसके सियासी मायने?
प्रधानमंत्री मोदी कश्मीर घाटी को एक केंद्र शासित प्रदेश में बदल रहे हैं, जिस पर सीधे दिल्ली से शासन चलाया जाएगा. लेकिन अगर आपने ध्यान न दिया हो, तो यह याद किया जा सकता है कि कश्मीर घाटी में एक साल से ज्यादा वक्त से सीधे दिल्ली से ही शासन चलाया जा रहा है, यानी एक तरह से यह केंद्र शासित प्रदेश है.
और 2015 से अप्रत्यक्ष तरीके से सीधे मोदी द्वारा इसका शासन चलाया जा रहा है, जब भाजपा ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ गठबंधन किया था. (पीडीपी को उन तीन परिवारों में से एक के द्वारा चलाया जा रहा है, जिसके बारे में अमित शाह ने संसद में कहा कि वे कश्मीर में सभी भ्रष्टाचार की जड़ हैं)
मोदी के प्रधानमंत्रीत्व में राज्य का सियासी और सुरक्षा माहौल दिन-ब-दिन बिगड़ता गया है. किसी भी समय की तुलना में सेना और अर्धसैनिक बलों के ज्यादा जवान आतंकी हमलों में मारे जा रहे हैं. इस साल की शुरुआत में सरकार ने संसद में निम्नलिखित जानकारियां दी थीं:
2014 में राज्य में आतंकी घटनाओं की संख्या 222 थी. 2018 में यह संख्या 614 थी.
2014 में 47 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए. पिछले साल यह संख्या 91 थी.
2014 में 28 आम नागरिकों की मौत हुई. 2018 में यह संख्या 38 थी.
इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जब बात सुरक्षा की आती है, तो कमान पूरी तरह से केंद्र के हाथों में होती है, भले राज्य में निर्वाचित सरकार हो या न हो. सुरक्षा माहौल में बेहतरी या उसके बदतर होने की सारी जिम्मेदारी केंद्र की है.
इन आशाजनक न कहे जा सकनेवाले आंकड़ों की पृष्ठभूमि में ही नरेंद्र मोदी अनुच्छेद 370 और राज्य के तौर पर कश्मीर के दर्जे जैसी बुनियादी चीज पर दांव खेल रही है.
क्यों अहम है अनुच्छेद 370?
अनुच्छेद 370 का जन्म विलय की संधि (Instrument of Accession) के साथ हुआ, जिस पर राजा हरिसिंह ने भारतीय संघ में शामिल होने के लिए 1947 में दस्तखत किया था. यह अनुच्छेद जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देता है, क्योंकि इन शर्तों पर ही यह भारतीय संघ में शामिल हुआ था.
हमें ब्यौरों में नहीं फंसना चाहिए, लेकिन दो आयामों पर गौर किया जाना जरूरी है: भारत जम्मू-कश्मीर की इस मांग पर सहमत हुआ था कि संसद प्राथमिक तौर पर रक्षा, विदेश मामलों और संचार के लिए जिम्मेदार होगा, लेकिन किसी भी अन्य कानून के लिए राज्य की सहमति की दरकार होगी.
दूसरा, अनुच्छेद 7 के तहत, विलय की संधि में यह स्पष्ट था कि इसका अर्थ भारत के भविष्य के किसी संविधान को अपने आप स्वीकार करना नहीं होगा, न ही यह भविष्य के किसी संविधान के साथ ‘नए समझौते करने’ के राज्य के अधिकार में रुकावट पैदा करता है.
हालांकि, अमित शाह का यह कहना सही था कि भारत अनुच्छेद 370 की बदौलत नहीं, बल्कि विलय की संधि के द्वारा भारत में शामिल हुआ था, लेकिन उन्होंने विलयपत्र की उन धाराओं का जिक्र नहीं किया, जिनको मानने के लिए भारत औपचारिक तौर पर प्रतिबद्ध है.
बीते वर्षों में यह अनुच्छेद घिसता गया और कमजोर कर दिया गया है, जैसा कि मनोज जोशी ने अपने लेख में बताया है, लेकिन ‘भले ही जितना भी खोखला हो, भारत की नज़र में कश्मीर की विशिष्टता का प्रतीक था.’
‘राज्य के दर्जे को घटाना बेहद अपमानजनक है. भारतीय राजव्यवस्था में राज्य की विशिष्ट हैसियत, जिसका कभी अपना प्रधानमंत्री हुआ करता था, को बचाए रखने की जगह, इसे एक अर्धराज्य में बदल दिया गया है, जिसका शासन एक लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा चलाया जाएगा… अपने इस कदम से सरकार कश्मीरियों को जबरदस्ती एक कड़वी दवा खाने के लिए मजबूर कर रही है, और संभावना है आनेवाली कई पीढ़ियों को इसका अंजाम भुगतना पड़ेगा.’
क्या अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान है?
संविधान में इसे अस्थायी उपबंध के तौर पर दर्ज किए जाने के आधार पर कई लोग इसे चुनौती देते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद न्यायालयों ने यह फैसला सुनाया है कि अनुच्छेद 370 संविधान का एक स्थायी प्रावधान है.
2018 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हालांकि अनुच्छेद के शीर्षक में इसे ‘अस्थायी’ बताया गया है, लेकिन इसकी प्रकृति काफी हद तक स्थायी किस्म की है.
दूसरी राजनीतिक पार्टियां क्या कह रही हैं?
5 अगस्त सुबह की कार्यवाही पर प्रतिक्रिया देते हुए जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने कहा कि यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला दिन है.’
Today marks the darkest day in Indian democracy. Decision of J&K leadership to reject 2 nation theory in 1947 & align with India has backfired. Unilateral decision of GOI to scrap Article 370 is illegal & unconstitutional which will make India an occupational force in J&K.
— Mehbooba Mufti (@MehboobaMufti) August 5, 2019
नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने भी कहा कि यह यह फैसला ‘जम्मू कश्मीर की जनता के साथ विश्वासघात है और इसके ‘गंभीर’ नतीजे होंगे.
कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि भाजपा ने भारत के संविधान और भारत के लोकतंत्र की हत्या की है. भाजपा की सहयोगी जनता दल यूनाइटेड ने भी कहा कि यह अनुच्छेद 370 को समाप्त किए जाने के पक्ष में नहीं है और इस पर सरकार का समर्थन नहीं करती है. जनता दल यूनाइटेड के नेताओं ने अपना विरोध करते हुए सदन से वॉकआउट किया.
बसपा सांसद सतीश चंद्र मिश्रा ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी सरकार के सभी प्रस्तावों का समर्थन करेगी. बीजू जनता दल, जो दोनों राष्ट्रीय पार्टियों से बराबर दूरी बनाए रखने का दावा करता है, उसने भी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया.
बीजद के सांसद प्रसन्ना आचार्य ने कहा कि चूंकि ‘भारत माता हमारे लिए सर्वोपरि है, इसलिए हम इस प्रस्ताव का समर्थन करते हैं. उन्होंने यह भी कहा बीते समय में किसी ने भी कश्मीरी पंडितों की चिंता नहीं की और उनकी पार्टी इस बात से खुश है कि इस प्रस्ताव के बात सभी कश्मीरियों को उनका हक मिलेगा.
वायएसआर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने भी प्रस्ताव का समर्थन किया.
इस सबके कश्मीर के लिए क्या मायने हैं?
इस घोषणा से पहले केंद्र द्वारा घाटी में 40,000 अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती से यह संकेत मिलता है कि उसे घाटी में व्यापक विरोध की आशंका है. जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट पार्टी के नेता शाह फैसल ने आरफा ख़ानम शेरवानी को एक इंटरव्यू में कहा था, ‘अगर अनुच्छेद 370 को समाप्त किया जाता है, तो भारत का कश्मीर के साथ संबंध भी समाप्त हो जाएगा.’
फिलहाल जम्मू-कश्मीर दुनिया के ऐसे क्षेत्रों में शुमार है, जहां सेना की सबसे अधिक उपस्थिति है. 2008 के बाद पहली बार संघर्षों में मारे गए लोगों की संख्या 500 से पार जा चुकी है. सरकारी आंकड़ों में सूचीबद्ध आतंकवादियों की संख्या 300 से ज्यादा हो चुकी है, जो दशक में सबसे ज्यादा है. 2013 में यानी नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने से पहले यह संख्या महज 78 थी.
अपने लेख में शाकिर मीर ने लिखा था कि यह सूची कश्मीर के बदतर होते हालात की एक साधारण रिपोर्ट जैसी नजर आ सकती है, लेकिन यह नए और संघर्ष के कहीं अंधकारमय युग की चेतावनी है, जिसके बेकाबू हो जाने का खतरा काफी ज्यादा है.
उनका कहना था कि ‘घाटी में राजनीतिक हालात न सुधारे जाने लायक स्तर तक बिगड़ चुके हैं और जिस तरह से घाटी की अशांति को लेकर भारत सरकार का रवैया रहा है, उसे देखते हुए कहा जा सकता ह कि कश्मीर एक और खूनी साल देखने के लिए अभिशप्त है. 2018 को अगर गौर से देखा जाए तो यह समझ बने बिना रहेगी कि असंतोष और दर्द परत दर परत जमा हो चुका है और जनभावना लगभग बेकाबू हो चुकी है.’
अज़ान जावेद ने अपने लेख में कहा कि 2018 में आतंकवादियों की बहाली का आंकड़ा एक दशक के समय में सबसे ज्यादा है- और यह आतंकवादी नेटवर्क पर जबदरस्त कार्रवाई के बावजूद हुआ है. अलगाववादी पहले ही भारत के साथ किसी भी तरह की चुनावी भागीदारी का विरोध कर रहे हैं और इस साल के आम चुनाव में घाटी के बड़े भाग ने हिस्सा नहीं लिया.
जैसा कि गज़ाला वहाब ने अपने लेख में कहा है, सच्चाई यह है कि पिछले 20 सालों में हालात कभी भी इतने बुरे नहीं हुए, जितने आज हैं. पाकिस्तान से बात करने की बात तो छोड़ दीजिए सरकार ने स्थानीय लोगों के साथ भी संवाद स्थापित करने की कोई कोशिश नहीं की.
मुख्यधारा के नेताओं को बदनाम किया गया है और अलगाववादियों को अपराधियों की तरह पेश किया गया है. कश्मीर के लोगों तक पहुंचने की बात एक खोखला नारा भर रह गया है क्योंकि लोगों के साथ बात करने या विचार-विमर्श करने की पहल कहीं नहीं है.
यह काम जनता के प्रतिनिधि के साथ किया जाता है. और आज कश्मीर के लोगों की नुमाइंदगी कौन कर रहा है? इसका कड़वा जवाब है, ‘किसी को इस बारे में जानकारी नहीं है.’
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)