लोकतंत्र और आज़ादी के असल मायने आदिवासी समाज से सीखने होंगे

विश्व आदिवासी दिवस: आदिवासियों की अपनी बोलचाल की भाषा और आम चर्चा में लोकतंत्र या आज़ादी शब्द का कोई स्थान नहीं है. किसी आदिवासी से इन शब्दों के बारे में पूछें तो वो शायद चुप रहे, लेकिन इसके असली मायने का एहसास उन्हें स्वाभाविक रूप से है.

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Indian tribal people sit at a relief camp in Dharbaguda in Chhattisgarh. File Photo Reuters

विश्व आदिवासी दिवस: आदिवासियों की अपनी बोलचाल की भाषा और आम चर्चा में लोकतंत्र या आज़ादी शब्द का कोई स्थान नहीं है. किसी आदिवासी से इन शब्दों के बारे में पूछें तो वो शायद चुप रहे, लेकिन इसके असली मायने का एहसास उन्हें स्वाभाविक रूप से है.

Indian tribal people sit at a relief camp in Dharbaguda in Chhattisgarh. File Photo Reuters
फाइल फोटो: रॉयटर्स

अंग्रेज भी आदिवासियों के आजादी एवं लोकतंत्र के मायने एवं उनके जीवन दर्शन को लेकर हमेशा न सिर्फ डरे रहते थे, बल्कि उसके उसके प्रति उनका एक जिज्ञासा भी थी, इसलिए वो लगातार आदिवासी जीवन को समझने की कोशिश करते थे.

आज जब देश में लोकतंत्र, आजादी एवं राष्ट्रवाद पर इतनी बहस चल रही है, तब 9 अगस्त, विश्व आदिवासी दिवस पर हमें इन बातों के मायने आदिवासी के संदर्भ में समझकर उनके जीवन दर्शन से कुछ सीखने की जरूरत है.

वैसे तो आदिवासी की अपनी बोलचाल की भाषा और आम चर्चा में लोकतंत्र या आजादी शब्द का कोई स्थान नहीं है. आप किसी भी आदिवासी से इन शब्दों के बारे में पूछेंगे तो वो शायद चुप रहे, लेकिन इसके असली मायने का एहसास उन्हें स्वभाविक रूप से है.

वे एक मात्र समुदाय है, जो अपने हिस्से के लोकतंत्र एवं आजादी के लिए लगातार सत्ता के साथ संघर्षरत है. लेकिन आदिवासी चाहे किसी भी विचारधारा से जुड़ा हो, बैलेट या बुलेट की, किसी भी रूप में उसका यह संघर्ष सत्ता पाने के लिए नहीं है.

क्योंकि सत्ता पर काबिज होकर फिर उसके जरिये अपनी सोच और विचारधारा से उस भू-भाग में रहने वाले सभी लोगों की जिदंगी को अपनी ही एक सोच के अनुसार नियंत्रित और संचालित किया जाए, यह आदिवासी के जीवन-दर्शन का हिस्सा नहीं है.

वो किसी की भी स्वभाविक गतिविधि पर रोक लगाने की सोच में विश्वास नहीं रखता. उसकी अपनी पंचायत में बहुमत से नहीं बल्कि सर्वमत से फैसले होते हैं, फिर चाहे जितना समय लगे. कई बार तो उनकी जात पंचायत कई दिन तक चलती है, जब तक सब लोग किसी एक मत से सहमत नहीं हो जाते, फैसला नहीं होता.

हम मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था से निकले लोग ज्यादातर शब्दों को अनुभव और व्यवहार से कम और उनके तकनीकी अर्थों से ज्यादा समझते है, जो हमें अपने स्कूली शिक्षा के दौरान रटा दिए जाते हैं. जैसे हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक पर्यावरण के बारे में पढ़ते हैं, मगर अपनी पूरी जिंदगी उसके उलट काम करते हैं.

इसी तरह से आज़ादी और लोकतंत्र के मामले में हमारी सोच है. हम रोजमर्रा की जिदंगी में इन दोनों शब्दों उसके व्यवहारिक रूप में एक हद के आगे नहीं समझते.

इसलिए हमारी व्यवस्था भले ही लोकतंत्र के नाम में चलती है, मगर व्यवहार में हमारी मुख्यधारा की सत्ता व व्यवस्था पर जिस व्यक्ति एवं विचारधारा का कब्ज़ा होता है, वो अपने आपको सारे देश के लोगों की जिंदगी का भाग्यविधाता मान लेता है. वो यह चाहता है कि हर कोई एक पुतले की तरह उसकी सोच के अनुसार चले.

आदिवासी की अपनी समझ, जीवन-दर्शन, शब्दावली उसके अपने आसपास के परिवेश से आते है इसलिए दुनिया भर में बसे हजारों तरह के आदिवासी समुदायों की मोटी-मोटी समझ एक जैसी होती है. जैसे दुनिया के किसी भी आदिवासी समाज में जमीन की मिल्कियत की धारणा का एहसास नहीं था.

भारत आए अंग्रेजों से लेकर दुनिया भर में नए उपनिवेश एवं बसाहट ढूंढते पश्चिमी देशों के गोरे जब अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड से लेकर अफ्रीका तक जिन आदिवासी इलाकों में गए और वहां जमीन हथियाने की कोशिश की, वहां उन्हें आदिवासियों की इस सोच से टकराना पड़ा.

आज़ादी शब्द भी आदिवासी के शब्दकोश में नहीं है क्योंकि ‘आजादी’ एक शब्द के रूप में उसी व्यवस्था और भाषा का हिस्सा होता है, जिसने गुलामी की व्यवस्था को ढांचागत रूप से अपनाया है.

अगर आप में किसी को गुलाम बनाकर रखने की सोच नहीं है, फिर वो चाहे जाति व्यवस्था के रूप में हो, राजशाही के रूप में या किसी अन्य रूप में, तो फिर उस समाज में सब स्वाभाविक रूप से सब आज़ाद हैं. लेकिन जिस समाज और व्यवस्था में गुलामी है तभी आजादी की बात होगी.

भिन्न-भिन्न समुदाय के लिए आजादी शब्द के अलग-अलग मायने होते है. दलितों के लिए यह जाति व्यवस्था से मुक्ति का मामला है, तो महिलाओं के लिए यह पुरुष सत्ता से मुक्ति का. आदिवासी तो सदियों से आजादी के एहसास को प्रकृति में जानवर, नदी और झरने में देखता आ रहा है, जहां सब अपनी मर्जी के मालिक होते है, उनके उपर किसी भी तरह की बाहरी लगाम नहीं होती है.

यही कारण है कि आदिवासी समुदाय में आजादी का एहसास तो है, लेकिन उसके अपने खुद के शब्दकोश या बोलचाल की भाषा में आजादी शब्द नहीं है क्योंकि उनकी अपनी व्यवस्था में गुलामी को कोई ढांचागत स्थान नहीं है. यह शब्द और व्यवस्था दोनों ही उसकी जिंदगी में मुख्यधारा के समाज ने थोपी हैं.

जब अंग्रेजों ने संसाधन की लूट के लिए आदिवासी इलाके में घुसना शुरू किया और इसके साथ ही साहूकारी व्यवस्था को वहां स्थापित किया, तब आदिवासियों ने इसे स्वाभाविक रूप से अपनी जिंदगी में दखल माना और बिना इस बात का आकलन करे कि वो अंग्रेजों की बंदूक और असलहे के सामने तीर-कमान और कुछ भरमार बंदूक से कैसे मुकबला करेंगे, उसका विरोध किया.

उसके अंदर लोकतंत्र एवं आजादी का एहसास इतना स्वभाविक है कि उसका सत्ता का विरोध आज भी जारी है क्योंकि 15 अगस्त 1947 को जो आजादी मिली उसके बाद विकास के नाम पर आदिवासी के साथ लूट और बढ़ी. उन्हें अपनी व्यवस्था चुनने के लिए कोई आजादी नहीं दी गई.

जिस कानून व्यवस्था, कोर्ट की उन्हें कल्पना तक नहीं है, वहां उन्हें न्याय दिलाए जाने की बात कही जाने लगी. मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था में उनकी भाषा, संस्कृति को कोई स्थान नहीं दिया गया. उनकी धारा को पिछड़ा बताकर उन्हें मुख्यधारा शामिल करने के लिए योजनाएं बनने लगी.

इतने बड़े संसाधन के असली मालिक होने के बावजूद आज वो सरकारी योजना की दया पर जिंदा है; यह योजना भ्रष्ट व्यवस्था के हाथ में है इसलिए या तो वो भूख से मरता है या जिंदगी भर कुपोषित रहता है.

1774 में हल्बा विद्रोह के साथ यह शुरुआत हुई थी, जो पिछले 250 वर्षों से आज तक जारी है. वो एकमात्र समुदाय है, जो लगातार सत्ता के साथ संघर्षरत है.

आदिवासी समाज, जिसने तमाम बड़े हमलों के बावजूद हजारों साल से अपनी स्वतंत्र संस्कृति और सोच को बचाकर मुख्यधारा के समाज से अलग अपना अस्तित्व बनाए रखा हो, उसके लिए आजादी शब्द के क्या मायने है, इसे समझना आसान नहीं है.

क्या आदिवासी के आजादी और लोकतंत्र के इस एहसास को मुख्यधारा का यह समाज और सत्ता व्यवस्था कभी भी अपना पाएगी?

(लेखक श्रमिक आदिवासी संगठन/समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)