पुण्यतिथि विशेष: उत्तर प्रदेश के अविभाजित फ़ैज़ाबाद ज़िले में जन्मे राजबली यादव 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी को मुकम्मल नहीं मानते थे. आज़ादी के बाद भी उन्होंने सरकार और सामंतों के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखा था और कई बार जेल भी गए.
देश हमारा, धरती अपनी,
हम धरती के लाल,
नया इंसान बनाएंगे,
नया संसार बसाएंगे…एक करेंगे हम जनता को,
सींचेंगे जग की ममता को,
नई सभ्यता रचना रचके,
उन्नतहाल बनाएंगे!
अवध में क्रांतिकारी वामचेतना के अग्रदूत माने जाने वाले राजबली यादव की रची ये पंक्तियां कभी इस अंचल के वंचितों का प्रयाण गीत हुआ करती थीं, लेकिन अब जैसे राजबली यादव को वैसे ही उनके इस गीत को भी भुला दिया गया है.
कारण यह कि उनके दुनिया से जाते ही खुद को उनके सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध बताने वाले साथियों तक ने जनता के सबसे निचले तबके के साथ रहकर संघर्ष करने और उसकी मुक्तिकामना को सफल बनाने के लंबे और कठिनाइयों भरे रास्ते छोड़कर अपनी-अपनी सहूलियतों के शॉर्टकट तलाश लिए हैं.
इसके चलते अब कोई नई पीढ़ी को यह भी बताने वाला नहीं है कि उनके रहते उनके द्वारा लिखित, निर्देशित व मंचित ‘धरती हमारी है’ शीर्षक नाटक का दलित-वंचित, शोषित और पीड़ित तबकों पर ऐसा चुम्बकीय असर था कि जहां भी उसके मंचन की घोषणा होती, सामंती तत्वों को उससे खतरा लगता और वे उसे रोकने पर तुल जाते.
फिर भी उनके समय में अवध के गांवों और कस्बों से लेकर कोलकाता, मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों तक इस नाटक के 800 से ज्यादा मंचन हुए.
कैफ़ी आज़मी ने आज़मगढ़ स्थित अपने गांव मिजवां में इसका मंचन देखा तो उसे फिल्मांकित करने की घोषणा कर दी. यह और बात है कि वे इस घोषणा पर अमल नहीं कर सके.
उनकी अभिनेत्री बेटी शबाना आज़मी, प्रसिद्ध अभिनेता एके हंगल और शौकत आदि भी राजबली यादव के प्रशंसकों में थे और एक समय उन्हें इप्टा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य भी बनाया गया था.
अब से कोई 113 साल पहले 1906 में सात नवंबर को अविभाजित फैजाबाद जिले के अरई गांव में (जो अब उसे विभाजित करके बनाए गए आंबेडकरनगर जिले में स्थित है) जन्मे राजबली ने अपनी मां को जल्दी ही खो दिया था.
वे अपने माता-पिता के तीन पुत्रों में सबसे बड़े थे और प्रकृति ने उन्हें अच्छी कद-काठी व बलिष्ठ शरीर प्रदान किया था. लेकिन तत्कालीन पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां उनकी ऊंची औपचारिक स्कूली शिक्षा के रास्ते में इस तरह बाड़ बनकर खड़ी रहीं कि उनका प्राथमिक शिक्षा से आगे बढ़ना संभव नहीं हो पाया.
अलबत्ता आगे चलकर यत्नपूर्वक अर्जित की गई प्रखर वैचारिक चेतना के बूते उन्होंने न सिर्फ इस अभाव को भरा बल्कि छुटपन में ही देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में कूदकर वहां अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा दी.
उनके होश संभालने तक देश में स्वतंत्रता संघर्ष के महात्मा गांधी के खोजे सत्याग्रह नामक हथियार की धूम मच चुकी थी. लेकिन युवा राजबली की मान्यता थी कि बिना भरपूर साहस के इस हथियार के इस्तेमाल का न कोई मतलब है और न ही उससे किसी उद्देश्य की पूर्ति होती है.
इसी मान्यता के साथ वे फैजाबाद जिले के पूर्वांचल के अप्रतिम स्वतंत्रता सेनानी वसुधा सिंह के संपर्क में आए और जल्दी ही अपना साहस प्रदर्शित करने का मौका पा लिया.
एक योजना के तहत दोनों ने मिलकर राजे सुल्तानपुर थाने पर लगा अंग्रेजी सत्ता का प्रतीक यूनियन जैक उतारकर फाड़ा और उसकी जगह तिरंगा फहरा दिया.
फिर तो राजबली गोरी सरकार के ऐसे कोपभाजन बने कि 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ तक उनकी जेलयात्राओं की संख्या दर्जनों में पहुंच गई थी.
अपनी देशसेवा के पुरस्कार स्वरूप उन्हें न केवल फैजाबाद बल्कि हरदोई, लखनऊ, जौनपुर और उन्नाव की जेलों में सात वर्षों तक कठिन शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेलनी पड़ीं.
इन यातनाओं में तनहाई में डालना, कोड़े बरसाना और चक्की पिसवाना शामिल था. एक बार उन्होंने भूमिगत होकर संघर्ष की रणनीति अपना ली तो सत्ता ने उनकी गिरफ्तारी में मदद करने वाले के लिए पांच हजार रुपयों के इनाम की घोषणा भी की थी.
हां, 15 अगस्त, 1947 को कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच हुए सत्ता हस्तांतरण को वे कभी भी मुकम्मल आजादी नहीं मान पाए, इसलिए उसके बाद भी सरकारों और सामंतों के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष करते व उनकी कीमतें चुकाते रहे. उनके अंचल के सामंतों ने कई बार उन पर प्राणघातक हमले कराए लेकिन उनका मनोबल नहीं तोड़ सके.
अपने आखिरी दौर में वे यह देखकर बहुत दुखी रहने लगे थे कि अमीरी व गरीबी के बीच की खाई बढ़ती जा रही है और बेकारी, महंगाई व भ्रष्टाचार के साथ सरकारी और सामंती जोर-जुल्म आम लोगों का जीना दूभर किए हुए हैं.
इस दुख का निदान उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लाल झंडे तले संघर्ष करके आजादी को मुकम्मल करने में दिखाई दिया तो उन्होंने अपना समूचा जीवन उसके नाम कर दिया.
जानकारों के अनुसार उत्तर प्रदेश में जमींदारी खत्म होने का कानून बनने के बाद चकबंदी शुरू हुई तो अनेक सामंतों ने अपना भू-स्वामित्व बचाने के लिए कई चोर दरवाजे खोल लिए थे. तब राजबली यादव ने उन्हें विफल करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी.
इस क्रम में आजाद भारत में भी उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा. स्वाभाविक ही गरीबों, किसानों और मजदूरों की वर्गीय एकता को मजबूत करने वाले जुझारू संघर्षों के लिए उन्हें दूर-दूर तक जाना जाने लगा. 1967 में वे फैजाबाद जिले के मया विधानसभा क्षेत्र से प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी निर्वाचित हुए.
1972 में आजादी की 25वीं वर्षगांठ पर उन्हें ताम्रपत्र देकर स्वतंत्रता संघर्ष में उनके योगदान के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की गई तो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी उन्हें सम्मान पत्र देने फैजाबाद आए थे.
फैजाबाद की धरती ने और भी कई बेहद कांतिवान वामपंथी नेता दिए हैं लेकिन राजबली यादव को इस मायने में सबसे अलग रेखांकित किया जा सकता है कि उन्होंने न सिर्फ अपनी जनता को नेतृत्व प्रदान किया बल्कि अपने कविकर्म, संस्कृतिकर्म व रंगकर्म की मार्फत जनता की चेतना का स्तर ऊंचा उठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.
इसके लिए वे जनता के सबसे निचले संस्तर पर सक्रिय हुए और कभी खुद को उससे ऊंचा नहीं समझा.
दिलचस्प यह कि 1942 में नौ अगस्त की जो तारीख ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के उद्घोष की तारीख बनी थी, साल 2000 में वही कॉमरेड राजबली यादव के इस संसार को अंतिम प्रणाम करने की बन गई.
अपने अंतिम दिनों में भी उनकी यह उम्मीद उनके साथ रही कि जालिमों की सारी जालिमाना हरकतों के बावजूद मजदूरों का खून पसीना और आंखों का पानी एक न एक दिन रंग लाएगा जरूर. वे प्रायः गाते थे:
किसे मालूम था आजादी का दिन ऐसा आएगा,
तमन्नाएं हमारी यों तड़पता छोड़ जाएंगी.खुशी रोती गरीबों की उजड़ती दुनिया है लेकिन,
उजाला आने वाला है, अंधेरा बीत जाएगा.उठो मेहनतकशो! जागो, जरा कुछ करके दिखला दो,
तुम्हारा खूं पसीना भी किसी दिन रंग लाएगा.सता लो ऐ हमें जालिम, सता लो जितना जी चाहे,
हमारी आंख का पानी किसी दिन रंग लाएगा!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)