कश्मीर के भूगोल पर तो कब्ज़ा किया जा सकता है, पर कश्मीरियत का क्या होगा?

असुरक्षा का भाव समाज के सैन्यकरण की स्वीकृति का अनिवार्य तत्व होता है. सांप्रदायिक राजनीति उसके भीतर भी असुरक्षा बोध खड़ा करती है जिसके पक्ष में वह दिखना चाहती है और उसके भीतर भी, जिसे वह शत्रु के रूप में चित्रित करती है. कश्मीर में असुरक्षा की भावना का इस्तेमाल कश्मीरी हिंदुओं और कश्मीरी मुसलमानों दोनों के ख़िलाफ़ होता आ रहा है.

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असुरक्षा का भाव समाज के सैन्यकरण की स्वीकृति का अनिवार्य तत्व होता है. सांप्रदायिक राजनीति उसके भीतर भी असुरक्षा बोध खड़ा करती है जिसके पक्ष में वह दिखना चाहती है और उसके भीतर भी, जिसे वह शत्रु के रूप में चित्रित करती है. कश्मीर में असुरक्षा की भावना का इस्तेमाल कश्मीरी हिंदुओं और कश्मीरी मुसलमानों दोनों के ख़िलाफ़ होता आ रहा है.

Srinagar Police Reuters
फोटो: रॉयटर्स

कश्मीर से ताल्लुक रखने वाली संविधान की धारा 370 और 35ए को खत्म करने के फैसले को लेकर यह बहस बेमतलब है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और आरएसएस के नेतृत्व वाली सरकार ने संवैधानिक प्रक्रियाओं व प्रावधानों का किस तरह से उल्लंघन किया है और लोकतंत्र की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा है.

लोकतांत्रिक भावनाओं और संवैधानिक प्रक्रिया के आधार पर किसी फैसले को गलत ठहराना लोकतंत्र व संविधान की राजनीति की चिंता हो सकती है, लेकिन जब कोई फैसला लोकतंत्र और संविधान से परे एक विपरीत राजनीतिक इरादों को पूरा करने के लिए किया गया हो तो उसके राजनीतिक नतीजों पर गौर करना चाहिए.

एक संविधान की भावनाओं के अनुरूप समाज और व्यवस्था तैयार करने के विचारों को लगातार मजबूत करने वाली राजनीति हो सकती है, तो दूसरी तरफ संविधान से भिन्न एक राजनीतिक इरादे को पूरा करने के लिए संविधान के इस्तेमाल की राजनीति हो सकती है.

भाजपा और आरएसएस के लिए कश्मीर उनके राजनीतिक अंजाम तक पहुंचने का एक जरिया रहा है. राजनीति का हिंदूकरण करना होगा और हिंदू का सैन्यकरण करना होगा, यह ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ आंदोलन के दौरान ही स्पष्ट रूप से सामने आया था.

राजनीति के हिंदूकरण के राजनीतिक इरादों को पूरा करने के लिए कश्मीर और कश्मीरियत केंद्र में रहा है. संविधान में कश्मीर के लिए बनाई गई धारा 370 और 35 ए कोई अकेला उदाहरण नहीं है.

भारतीय संघ के लिए मुल्क के तमाम सूबों, समुदायों और संस्कृतियों के साथ जो समझौते हुए हैं, उन सबका संविधान की अलग-अलग धाराओं में उल्लेख किया गया है, लेकिन कश्मीर और कश्मीरियत राजनीति के हिंदूकरण और हिंदू के सैन्यकरण के लिए सबसे ज्यादा मुफीद समझा गया है.

यह बात भारत और पाकिस्तान बनने के साथ ही हिंदुत्ववादी राजनीति के सामने बहुत स्पष्ट हो गई थी, इसीलिए उसे एक अलग तरह से पेश किया जाता रहा है. एक खास पहलू पर गौर करें कि गैर-कश्मीरी इलाके में कश्मीर के बारे में तो ढेर सारी प्रचार सामग्री मिल सकती है लेकिन कश्मीरियत के बारे में जानकारी न के बराबर है.

ऐसा इसीलिए है कि केवल कश्मीर का नाम राजनीति के हिंदूकरण और हिंदू के सैन्यकरण की प्रक्रिया में मदद करता है जबकि कश्मीरियत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की योजना पर सवालिया निशान खड़ी करती है.

भारतीय पुरातत्व से प्राप्त एक दस्तावेज के एक छोटे से हिस्से को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं-

‘घाटी में सांप्रदायिक दंगे कभी नहीं हुए और स्थानीय लोगों ने उस वक्त भी सद्भाव को बिगड़ने नहीं दिया जब 1947 में सीमा पार पाकिस्तान से मुसलमान आक्रमणकारी आये थे. उन्होंने अमन तब भी बरकरार रखा जब 1965 में हथियारों से लैस बड़े पैमाने पर घुसपैठिए आए.

दोनों मौकों पर पाकिस्तान से मुसलमान उपद्रवियों ने जोर-शोर से जे़हाद का हिंसक आह्वान किया और तथाकथित भारतीय हिंदू शासन के चंगुल से कश्मीरी मुसलमानों को आज़ाद कराने का नारा बुलंद किया. इन अशांत हालातों में कश्मीर के मुसलमानों ने ऐसी किसी भी हरकत की इज़ाजत कभी नहीं दी जिससे घाटी में रहने वाले नगण्य हिंदू अल्पसंख्यकों का जीवन खतरे में पड़ता हो.

इस समय, कश्मीर के कुछ नेताओं द्वारा चाहे जो भी फैलाया जा रहा हो या सीमा पार से चाहे जितनी भी भड़काने वाली हरकत की जा रही हो, घाटी में सांप्रदायिक सद्भाव पहले की तरह बरकरार है और कश्मीरी के लोगों का धर्मनिरपेक्षता में यकीन बना हुआ है.’

कश्मीरियत एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया में बनी है. किसी भी समाज में रहने वाले लोगों का दिमाग किस तरह से तैयार हुआ है, यह एक महत्वपूर्ण बात होती है. कश्मीरियत का दिमाग तमाम धार्मिक झगड़ों व विवादों से निकलकर कर पुख्ता हुआ है. इसे हम आधुनिक राजनीतिक शब्दावली में धर्मनिरपेक्षता के रूप में भी जान सकते है.

ऐसा दिमाग ही किसी सांप्रदायिक राजनीति के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक होता है. कश्मीर में सांप्रदायिक दिमाग उस समय से तैयार करने का प्रयास हुआ यानी कश्मीरियत के दिमाग को खंडित करने का प्रयास शुरू हुआ, जब जमींदारों की जमीनें भूमिहीनों को बांटने की मांग शुरू हो गई.

दरअसल जिनका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व होता है वह अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए लोगों के बीच अपना एक आधार बनाने की कोशिश करते हैं और उसके लिए धर्म अब तक सबसे मुफीद माना जाता है.

कश्मीर में कश्मीरियत को तोड़ने की कवायद तब से शुरू हुई, लेकिन कश्मीरियत अब तक इतनी मजबूत रही है कि उसे झटका नहीं दिया जा सका. कश्मीर में इस्लाम को मानने वाले और शिव को मानने वाले दोनों ही कश्मीरियत की संस्कृति के हिस्से रहे हैं.

इतिहास के दस्तावेज बताते हैं कि एक धर्म को मानने वाले अलग अलग मुल्कों में अपनी-अपनी संस्कृति के साथ अलग पहचान बनाए रखते हैं. कश्मीर में हमने यह पाया है कि कश्मीर की घाटी को मुस्लिम घाटी के रूप में हिंदुत्ववाद की राजनीति ने पेश किया है. जबकि पाकिस्तान के कबीलाईयों के हमले का जवाब देने में सबसे ज्यादा अपनी जान घाटी के मुसलमानों ने दी और कश्मीर को भारत के साथ रहने के लिए अपना समर्थन दिया.

यहां कहने का अर्थ है कि एक बात प्रचार के लिए होती है और दूसरी बात जो प्रचार के लिए होनी चाहिए उसे भरसक दबाने की कोशिश व साजिश दोनों होती है. कश्मीर का प्रचार और कश्मीरियत को छुपाना सांस्कृतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल हुआ.

**EDS: RPT WITH DATE CORRECTION** Srinagar: A view of a deserted street during restrictions in Srinagar, Wednesday, Aug 7, 2019. Restrictions have been imposed in several districts of Jammu and Kashmir as a precautionary measure after the state lost its special status and was bifurcated on Tuesday as Parliament approved a resolution scrapping Article 370 of the Constitution and passed a bill to split the state into two Union Territories. (PTI Photo/S. Irfan)(PTI8_9_2019_000010B)
श्रीनगर में बंद के दौरान खाली पड़ी सड़कें. (फोटो: पीटीआई)

370 और 35ए को समाप्त करने का फैसला वास्तव में संविधान के समझौते और संविधान के प्रावधानों पर भरोसे को खत्म करने की कोशिश से जोड़कर देखा जाना चाहिए. समझौते को तोड़ना और उसके लिए एक सामाजिक राजनीतिक आधार का तैयार होना वास्तव में संविधान के समझौते को तोड़ने की राजनीति को लिचिंग को स्वीकृति देने जैसा है.

समाज में जब किसी तरह की घटनाएं होती है तो वह विविध रूपों में देखी जाती है. लिंचिग इस समय राजनीतिक हमले का एक रूप तैयार हुआ है और वह विविध रूपों में भारतीय समाज व उसकी व्यवस्था में दिखाई दे रहा है. लिचिंग सैन्यकरण का आधार तैयार करती है. इस राजनीति की एक खास प्रवृति यह है कि वह असुरक्षा की भावना को अपना चारा बनाती है.

असुरक्षा का भाव समाज के सैन्यकरण की स्वीकृति का अनिवार्य तत्व होता है. सांप्रदायिक राजनीति उसके भीतर भी असुरक्षा बोध खड़ा करती है जिसके पक्ष में वह दिखना चाहती है और उसके भीतर भी असुरक्षा बोध पैदा करती है जिसे वह शत्रु के रूप में चित्रित करती है.

कश्मीर में असुरक्षा की भावना का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया गया है. वह कश्मीरी हिंदुओं और कश्मीरी मुसलमानों दोनों के खिलाफ होता आ रहा है. हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि यह भारतीयकरण क्या है.

विविधता को नकारना और विशालता के लिए छोटे छोटे और असंख्य प्रतीकों को मारना एक सांस्कृतिक विचारधारा मानी जाती है. कश्मीर के भूगोल पर तो कब्जा किया जा सकता है लेकिन कश्मीरियत का क्या होगा?

इसे कश्मीरियत की सांस्कृतिक लिंचिग नहीं तो क्या कहें? यदि कश्मीरियत की संस्कृति पर हमले को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद द्वारा भारतीयता पर हमले को गहराई से समझना हो तो पिछले कुछ वर्षों में घटी और घटनाएं हैं.

मसलन भारतीय भाषाओं पर हमले हुए और उनका भी राष्ट्रीय भाषाओं का दर्जा खत्म कर दिया गया. 370 और 35 ए को खत्म करना आजादी के आंदोलन की विरासत के साथ खड़ी भारतीयता की संस्कृति पर हमला है. यह संविधान के अनुसार एक राज्य का दर्जा को खत्म करना भर नहीं है.

संस्कृति पर हमले के लिए जितना कश्मीरी हिंदुओं को आड़ बनाया जा रहा है उतना ही मुसलमानों को भी बनाया जा रहा है. एक दूसरे को आमने सामने खड़ा करने उनकी संस्कृति पर इस हमले की राजनीति को हमें समझना चाहिए.

(लेखक मासिक शोध पत्रिका जन मीडिया के संपादक हैं.)