एक तरफ ईरान पश्चिमी एशिया में विरोधी सुन्नी अरब देशों और इस्राइल से घिरा हुआ नजर आ रहा है, तो दूसरी तरफ वह अमेरिकी ट्रंप प्रशासन के निशाने पर भी है. इस निर्णायक मोड़ पर बिना किसी अड़चन के नयी सरकार का गठन ईरान की स्थिरता के लिए बेहद जरूरी है. ईरान से द वायर संवाददाता देवीरूपा मित्रा की रिपोर्ट.
तेहरान: ईरानियों ने तीन हफ्ते के थका देनेवाले चुनाव प्रचार के बाद इस्लामिक गणराज्य का नया राष्ट्रपति चुनने के लिए 18 मई को मतदान किया. इन चुनावों में मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी को लोकलुभावन आर्थिक नीतियों के पैरोकार कंजरवेटिव (पुरातनपंथी) उम्मीदवार इब्राहिम रईसी से आश्चर्यजनक ढंग से कठिन चुनौती मिल रही है. मतदान ईरानी घड़ी के हिसाब से सुबह 8 बजे देश के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खमेनी द्वारा पहला वोट डालने के साथ शुरू हुआ. इसका टीवी और रेडियो से प्रसारण किया गया. अपना वोट डालने से पहले अयातुल्ला खमेनी ने चुनावों को देश के लिए एक बड़ा आयोजन करार दिया.
चुनाव लड़ने के लिए रजिस्ट्रेशन करानेवाले 1636 उम्मीदवारों में से गार्डियन काउंसिल ने 20 अप्रैल को 6 लोगों का चयन किया था. 21 अप्रैल से चुनाव प्रचार की आधिकारिक शुरुआत हुई. इसमें सोशल मीडिया, खासतौर पर टेलीग्राम और इंस्टाग्राम ने बड़ी भूमिका निभाई. इन चुनावों में मतदाताओं की कुल संख्या 56,410,234 है.
क्या है दांव पर
ईरान की वैश्चिक छवि के लिहाज से यह चुनाव बेहद अहम है. पदक्रम में राष्ट्रपति का स्थान सर्वोच्च नेता के बाद, यानी प्रोटोकॉल में दूसरे नंबर पर आता है. हालांकि, सर्वोच्च नेता के पास व्यापक शक्तियां हैं, मगर राष्ट्रपति को भी पर्याप्त अधिकार मिले हुए हैं. रूहानी अर्थव्यवस्था के अलगाव को खत्म करने और उसके दरवाज़ों को खोलने के पक्षधर हैं. युवाओं और मध्यवर्ग का एक बड़ा तबका इसके साथ नज़र आता है. दूसरी तरफ रईसी अर्थव्यवस्था के ‘जिहादी मैनेजमेंट’ की बात करते हैं. उनके बयानों के आधार पर राय बनाएं तो यह मुख्यतः लोकलुभावन उपाय है जिसमें मासिक भत्ते को तीन गुना करना और नई नौकरियों का निर्माण करना शामिल है.
रूहानी के विरोधियों ने अर्थव्यवस्था को रूहानी की सबसे बड़ी कमजोरी के तौर पर पेश किया है. हालांकि, इस नाखुशी की वजह उन आसमान छूती उम्मीदों का पूरा न होना है, जो जॉइंट कॉम्प्रेहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन (JCPOA) के तहत ईरान पर लगे अनेक प्रतिबधों के हटाए जाने से पैदा हुई थीं. परमाणु करार को ईरानी अर्थव्यवस्था का चेहरा बदलने की दिशा में पहले कदम के तौर पर पेश किया गया था. इससे भरपूर विदेशी निवेश के आने की कल्पना की गई थी. लेकिन हकीकत इससे अलग साबित हुई. दरअसल अभी भी अमेरिकी गैर-परमाणविक प्रतिबंधों को नहीं हटाया गया है. यह अंतरराष्ट्रीय बैंकों के ईरान में कारोबार का रास्ता रोके हुए है.
2016-17 में जीडीपी में 6 प्रतिशत से ज्यादा की वृद्धि के साथ अर्थव्यवस्था में उछाल आया. महंगाई भी घटकर एक अंक में आ गई. लेकिन बेरोजगारी अब भी काफी ऊंची (12.5 प्रतिशत) बनी हुई है, जिससे युवाओं में बेचैनी बढ़ी है.
अपने लोकलुभावन वादों से लैस होकर रईसी ने रूहानी को जेसीपीओए की वार्ता को लेकर आड़े हाथों लिया और इसे ‘चिरौरी डिप्लोमेसी’ करार दिया. चुनाव प्रचार की रणनीति में बदलाव लाते हुए रूहानी ने कंजरवेटिवों के वर्चस्व वाले रक्षा और उलेमाओं के प्रतिष्ठान पर तीखा हमला बोलते हुए उन पर परमाणु करार को विफल करने की कोशिश करने का आरोप लगाया.
लगभग सभी चुनावी सर्वेक्षणों में रूहानी आगे चल रहे हैं, मगर मतदान के एक सप्ताह पहले चुनाव प्रचार में कड़वाहट काफी बढ़ गई थी.
एक तरफ ईरान पश्चिमी एशिया में विरोधी सुन्नी अरब देशों और इस्राइल से घिरा हुआ नजर आ रहा है, तो दूसरी तरफ वह अमेरिकी ट्रंप प्रशासन के निशाने पर भी है. इस निर्णायक मोड़ पर बिना किसी अड़चन के नयी सरकार का गठन ईरान की स्थिरता के लिए बेहद जरूरी है. JCPOA के प्रति वफादार रहे यूरोपीय देश इन चुनावों को काफी बेचैनी से देख रहे हैं. उन्हें उम्मीद है कि रूहानी दूसरा कार्यकाल हासिल करेंगे. सूत्रों के मुताबिक कई यूरोपियन कंपनियां ईरानी बाजार में प्रवेश करने के लिए ‘सकारात्मक’ चुनाव परिणामों का इंतजार कर रहे हैं.
पर्यवेक्षकों के मुताबिक अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश के लिए खोलने के विरोध के पीछे बड़े आर्थिक हित काम कर रहे हैं. बड़े आर्थिक साम्राज्य चला रहे राज्य के सुरक्षा संस्थानों को लगता है कि विदेशी कंपनियों के आने से वे खतरे में आ जाएंगे. इसलिए वे रूहानी के खिलाफ सांस्थानिक विरोध को हवा दे रहे हैं.
क्यों दिलचस्प बना ईरानी चुनाव
इस्लामिक क्रांति से लेकर अब तक दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़नेवाले हर राष्ट्रपति को जीत हासिल हुई है. किसी राष्ट्रपति के चुनाव हारने की नौबत 2009 में आती दिखी थी, जब महमूद अहमदीनेजाद चुनाव लड़ रहे थे. लेकिन आख़िरकार एक विवादास्पद मतगणना के बाद उन्हें विजेता घोषित कर दिया गया था.
कुछ महीने पहले तक, चार साल के दूसरे कार्यकाल के लिए रूहानी की राह में कोई नज़र नहीं आ रहा था. सवाल पूछा जा रहा था कि क्या रूहानी से मुकाबला करने के लिए कोई मजबूत कंजरवेटिव उम्मीदवार मिल पाएगा? ऐसे में रईसी का उभार आश्चर्यजनक है. इस तथ्य के बावजूद कि वे ज्यादा चर्चित नहीं हैं, रूहानी कंजरवेटिव धड़े को अपने पीछे लामबंद करने में कामयाब हुए हैं. दो अन्य कट्टरपंथी उम्मीदवार मोहम्मद बाग़र घालीबाफ़ और मुस्तफा अक़ा-मीरसलीम भी उन्हें समर्थन दे रहे हैं.
रईसी दशकों से न्यायपालिका में रहे हैं, मगर उन्होंने कोई बड़ा सार्वजनिक पद सिर्फ एक बार, वह भी लगभग एक साल के लिए संभाला है. वे पवित्र शहर मशहाद में इमाम रेज़ा मस्जिद का प्रबंधन संभालने वाले अस्तान-ए कोद्स रज़ावी नाम के सबसे धनवान चैरिटेबल इनडॉवमेंट फंड के लिए नियुक्त किए गए थे.
सर्वोच्च नेता द्वारा रईसी की नियुक्ति से लोगों को हैरत हुई थी. इसने इन कयासों को जन्म दिया कि वे रईसी को अपने वारिस के तौर पर तैयार कर रहे हैं. लेकिन, जीवनभर के लिए मिलनेवाले इस्लामिक गणराज्य के सर्वोच्च पद के लिए रईसी का न्यायपालिका में लंबा कॅरियर और यह मान्यता कि वे पैगंबर मोहम्मद के सीधे वंशज हैं, काफी नहीं था. खासतौर पर यह देखते हुए कि उनके पास कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है. इसलिए अंदरखाने ऐसी चर्चाएं हैं कि सर्वोच्च पद पर उनकी दावेदारी को मजबूत करने के लिए उन्हें राष्ट्रपति के तौर पर एक कार्यकाल की जरूरत है.
दिलचस्प यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान दोनों उम्मीदवार अपनी भूमिका की अदला-बदली करते दिखे. रईसी सत्ताधारी लोकलुभावन उम्मीदवार के तौर पर प्रचार करते दिखे और रूहानी ने सिस्टम को चुनौती देनेवाले सत्ता से बाहर खड़े उम्मीदवार की तरह प्रचार किया, जबकि वे राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठे हुए थे. 16 वर्षों से रूहानी, सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के सचिव रहे हैं, जिसे ईरान में सुरक्षा समन्वय का केंद्र बिंदु (नर्व सेंटर) कहा जाता है.
आक्रामक चुनाव प्रचार का एक परिणाम यह भी रहा है कि दोनों पक्ष भाषा और विषय की खुली छूट लेते दिखे.
मतदान प्रतिशत पर सबकी नजर
रूहानी के चुनाव प्रचार में कुल मतदान पर काफी जोर रहा. ज्यादा मतदान को, खासकर शहरी क्षेत्रों में जहां ईरान की करीब 70 प्रतिशत आबादी रहती है, रूहानी के दूसरे कार्यकाल की चाबी माना जा रहा है. ग्रामीण इलाकों में, जहां मतदान प्रतिशत ज्यादा है, रईसी के आर्थिक तंगी और ज्यादा नकद भत्ते देने पर केंद्रित चुनाव प्रचार का ज्यादा असर दिख सकता है. कुछ जानकारों की राय में अगर शहरी क्षेत्र में कुल मतदान 55 प्रतिशत रहता है, तो रूहानी मजबूत स्थिति में होंगे. गृह मंत्रालय ने 72 फीसदी मतदान का अनुमान लगाया है. 2013 में यह आंकड़ा 76.25 प्रतिशत रहा था.
"If you don't want to vote, please convince us not to vote #talkchallenge," says the sign, calling passersby for a debate #iranelections pic.twitter.com/GK3vD7nVS3
— Devirupa Mitra (@DevirupaM) May 18, 2017
कब घोषित होंगे चुनाव परिणाम
ईरान के गृहमंत्रालय ने मतदान से एक दिन पहले घोषणा की कि चुनाव परिणाम ‘एक बार में’ घोषित न करके ‘धीरे-धीरे’ घोषित किए जाएंगे. इससे एक दिन पहले गृहमंत्री अब्दुलरेज़ा रहमानी फज़ली ने भी यह बात कही थी. चुनाव परिणाम 20 मई यानी आज रात से पहले घोषित किए जाने की उम्मीद नहीं है.
2009 में देश के विभिन्न हिस्सों से मतगणना के आंकड़े एक-एक कर आने से रुझानों में काफी उतार-चढ़ाव देखा गया. इसने ग्रीम मूवमेंट के नेतृत्व में भारी विरोध को जन्म दिया, जिसने चुनावों में धांधली का आरोप लगाया था.
चूंकि अब मैदान में सिर्फ दो उम्मीदवार ही रह गए हैं, इसलिए उम्मीद की जा रही है कि अगले राष्ट्रपति के नाम की घोषणा पहले चरण में ही हो जाएगी. अगर दोनों उम्मीदवारों में से कोई भी कुल मत का 50 प्रतिशत से ज्यादा पाने में नाकाम रहता है, तो शुक्रवार (26 मई) को दोनों के बीच फिर से मुकाबला होगा.
भारत के लिए इन चुनावों की अहमियत
इस बार के चुनाव-प्रचार में दोनों में से किसी भी उम्मीदवार ने अपनी विदेश नीति सामने नहीं रखी. चुनाव-प्रचार में आर्थिक मुद्दे ही हावी रहे. लेकिन फिर भी कूटनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक अगर चुनाव परिणाम के कारण क्षेत्र में अस्थिरता पैदा होती है, तो भारत पर भी इसका अप्रत्यक्ष असर पड़ेगा. कंजरवेटिव उम्मीदवार का चयन वाशिंगटन की तरफ से आक्रामक प्रतिक्रिया का सबब बन सकता है, जिससे विश्व समुदाय की बेचैनी बढ़ सकती है.
आधिकारिक सूत्रों के मुताबिक चाबहार पोर्ट, नॉर्थ-साउथ कॉरिडोर और तेल के कुओं के विकास के कारण भारत और ईरान के आर्थिक हित आपस में मिल गए हैं, जिसकी वजह से दोनों देशों के बीच रिश्ते स्थिर बने रहने की आशा की जा सकती है.