श्रीनगर से ग्राउंड रिपोर्ट: मुख्यधारा के मीडिया में आ रही कश्मीर की ख़बरों में से 90 प्रतिशत झूठी हैं. कश्मीर के हालात मामूली प्रदर्शनों तक सीमित नहीं हैं और न ही यहां कोई सड़कों पर साथ मिलकर बिरयानी खा रहा है.
कश्मीर में क्या चल रहा है? यह एक ऐसा सवाल जिसका जवाब हर कोई जानना चाहता है. दो हफ्ते पहले मैं भी इसी सवाल के साथ श्रीनगर पहुंचा था. ये मेरी कश्मीर की पहली यात्रा थी. मेरा राज्य में कोई संपर्क नहीं था, वहां किसी को जानता भी नहीं था, लेकिन अपनी आंखों से देखना चाहता था कि अनुच्छेद 370 और 35 ए के खत्म होने के बाद कश्मीर के असल हालात कैसे हैं.
दिन के तीन बजे मैं श्रीनगर पहुंचा. एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही तेज बारिश से सामना हुआ. ऑटो में बैठने के बाद देखा कि हर दस मीटर पर सीआरपीएफ के जवान खड़े थे. कोई रेनकोट पहने हुए बारिश में भीग रहा था तो कोई पेड़ की ओट में खड़ा था. लेकिन उनकी निगाहें हर चलती फिरती चीज़ पर नज़र रख रही थीं.
श्रीनगर में ऑटो में दरवाजे लगे होते हैं लेकिन सामने से सब दिख जाता है. कुछ देर चलने के बाद मैंने मेरी नज़र आस-पास की दीवारों पर पड़ी. वहां गो इंडिया, गो बैक, वी वॉन्ट फ्रीडम, शेम ऑन इंडिया लिखा हुआ था. दुकानें बंद, सड़कें एकदम सुनसान. हर तरफ सिर्फ जवान और इक्का-दुक्का गाड़ियां. एहसास होने लगा था कि ये कोई दूसरी दुनिया ही है.
यहां इंटरनेट और फोन बंद होने की वजह से जिस काम के 150 रुपये लगने थे, उसके 500 दिए, लेकिन फिर भी होटल नहीं पहुंच सका. वहां से मेरे होटल की दूरी लगभग तीन किलोमीटर थी. अभी 4:30 बज रहे थे और बहुत हल्की बारिश हो रही थी, सो मैंने पैदल चलने का इरादा किया.
आगे बढ़ा तो देखा कहीं पूरे चौराहे को कंटीले तारों से बंद करके सिर्फ पैदल निकलने का रास्ता था, तो कहीं से बाइक भर निकल सकती थी. कई फ्लाईओवर पूरी तरह से बंद थे. इक्का-दुक्का कश्मीरी आपस में बोलते-बतियाते घरों और बंद दुकानों के बाहर दिख रहे थे.
मैं बालगार्डन इलाके से आगे बढ़ा तो बारिश तेज़ हो गई. थोड़ी देर बाद जब छतरी जवाब देने लगी और मेरे जूतों में पानी भरने लगा तो कहीं रुकने का इरादा किया. एक प्लास्टिक की पन्नी के नीचे तीन लोग खड़े दिखे. सामने मेज पर पेट्रोल की बोतल रखी हुई थी. पेट्रोल पंप की जगह यहां से भी पेट्रोल खरीदा जा सकता था.
वे सब आपस में हंस-बोल रहे थे लेकिन मुझे देखकर चुप हो गए. मैंने मुस्कुराते हुए अपनी छतरी समेटी और उनके छप्पर के नीचे हो लिया. ये श्रीनगर का बरबर शाह इलाका था. हल्की-फुल्की बातचीत के बाद मैं वहीं बैठ गया. थोड़ी देर बाद एक बुज़ुर्ग आए. उनका नाम ग़ुलाम मोहम्मद था.
उन्होंने हालचाल पूछा, बातचीत शुरू हुई तो वे खुद ही कहने लगे, ‘एक वो भी ज़माना था कि इंदिरा गांधी यहां एक मामूली से गार्ड के साथ घूमा करती थीं और हम उन्हें इसी सड़क पर खड़े होकर सलाम किया करते थे. कश्मीरी अवाम उन्हें देखने आती थी, पसंद करती थी. क्या आज आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी यहां आएं और हम उनको सलाम करें? कभी नहीं. उन्होंने हमारे साथ गद्दारी की है. मजहब के नाम पर हमें बांट दिया है. जो नफरत का बीज उन्होंने बोया है उसका अंजाम कितना गलत हो सकता है उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा. अरे! हम तो पैदा ही हिंदुस्तान में हुए हैं अफगानिस्तान या पाकिस्तान में नहीं. लेकिन पहले हिंदुस्तानन की सरकार के खिलाफ जो नफरत 25 प्रतिशत थी वह अब बढ़कर 125 प्रतिशत हो गई है.’
मैं शांत होकर उनको सुनता रहा, फिर उन्होंने अपने बेटे को मुझे मेरे होटल तक छोड़कर आने को कहा.
15 अगस्त
यह पहली बार था जब मैंने 15 अगस्त के दिन कोई तिरंगा नहीं देखा. इस बार रक्षाबंधन भी स्वतंत्रता दिवस के साथ था. सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील दिन.
श्रीनगर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट लगभग न के बराबर है. आपको कहीं जाना है तो तीन तरीके हैं. ऑटो में जाएं, गाड़ियां बुक करें या तो अपना कोई साधन हो. मैंने चौथा ही तरीका चुना और पैदल श्रीनगर घूमने निकल पड़ा.
आरामवाड़ी, राजबाग, इखराजपोरा जवाहर नगर में टहलता रहा. एक अजीब-सा सन्नाटा पूरे इलाके में फैला हुआ था. कोई चहल-पहल नहीं, आवाज़ नहीं. श्रीनगर का हर छोटा-बड़ा व्यापारी यही कह रहा था कि मोदी जी को जो करना था करते, लेकिन ये उनके सीजन का टाइम होता है. इससे उनकी रोज़ी-रोटी खत्म हो चुकी है. दिसंबर में कर देते तो शायद इतनी दिक्कत नहीं होती.
एक मन किया कि सब बंद ही है वापस लौट जाता हूं लेकिन फिर लगा कि नहीं इतनी दूर आए हैं तो नाले के उस पार भी देख ही आता हूं. जिस पुल से मुझे जाना था वहां एक तरफ सीआरपीएफ के जवान थे और दूसरी तरफ छिटपुट खड़े सात-आठ लड़के.
मुझे लगा पत्थरबाज़ होंगे लेकिन कोई हलचल न देखकर पुल पार किया. ये इलाका महजूर नगर का था. यहां घर बंद थे लेकिन बाकी इलाकों के मुकाबले यहां लोग बाहर घूम रहे थे और हर निगाह मुझसे मेरे वहां होने की वजह जानना चाहती थी.
एक चचा ने आगे बढ़कर पूछा- कहां जाना है? मैंने कहा- जवाहर नगर. वो बोले- इधर पथराव होने वाला है जितनी जल्दी हो सकता है पुल पार कर वापस चले जाओ. उसी पार जवाहर नगर है और वो सेफ भी है.
मैं आगे बढ़कर अंदर देखना चाहता था लेकिन अजीब-सा डर लग रहा था इसलिए पुल से वापस उसी रास्ते पर आ गया. पैर जवाब दे चुके थे. फोन पर मैप खुल नहीं रहा था, पता ही नहीं था कितनी दूर आ गया हूं. घंटे भर बाद जाकर मुझे एक ऑटो मिला. ऑटो वाले ने बताया कि वे सवारी लेने नहीं निकले बल्कि सेब ढो रहे थे. सभी ऑटो वालों ने उस दिन बंद का ऐलान किया था.
इतना कहकर उसने एक गली में ऑटो मोड़ा. मुड़ते ही सामने से शोर सुनाई दिया और एक भागती भीड़ हमारी तरफ आई. इससे पहले कि ड्राइवर ऑटो घुमा पाता ऑटो बंद हो गया और हम भीड़ के बीच में बुरी तरह फंस गए. हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था सिर्फ शोर सुनाई दे रहा था. मैंने ऑटो वाले को मुड़ने के लिए कहा लेकिन वो मुझसे भी ज़्यादा डरा हुआ था.
उससे ऑटो भी नहीं स्टार्ट हो पा रहा था. तभी एक अंकल आए और ऑटो वाले को ज़ोर-ज़ोर से कश्मीरी में कुछ कहने लगे. मुझे उनकी शक्ल नहीं दिखी लेकिन उन्होंने पठानी सूट पहना था. उन्होंने ऑटो बैक कराया और हम वापस दूसरे रास्ते से निकले.
लेकिन वहां क्या हुआ था वो मुझे अब तक नहीं पता चला है. हालांकि यह एहसास हो चुका था कि कश्मीर में कंटीले तारों और घूमते जवानों के वीडियोज़ से कहीं ज़्यादा चीज़ें चल रही हैं. मैं वापस आ तो गया लेकिन अपने कैमरे में कुछ 8-10 फोटो और 3-4 व्यापारियों की बाइट ले पाया था.
अभी शाम के 4:30 बज रहे थे. पूरी शाम पड़ी थी, सो मैं फिर कैमरा लेकर निकल पड़ा और लाल चौक पहुंच गया. सब कुछ बंद था इसलिए मैं सड़क पर बिछे तार का एक वीडियो बनाने लगा. तभी दो-तीन सीआरपीएफ वाले चिल्लाए और एक मेरी तरफ लपका और बोला फोटो नहीं खींचना है.
मैंने कहा- मैंने तो वीडियो बनाया है. उसने कहा कि सुरक्षा की वजह से ऐसा करने की अनुमति नहीं है. मैंने कहा- इसमें तो ऐसा कुछ है ही नहीं. इस पर उसने तर्क दिया कि हमारे चेहरे खुले हैं, हमारी सुरक्षा के लिए के लिए ठीक नहीं है.
मैंने कहा कि वीडियो देख लीजिए, इसमें किसी का चेहरा ही नहीं दिख रहा है. उसने कहा- तुरंत डिलीट करो. मैंने उसके सामने वो वीडियो डिलीट कर दी, लेकिन वो फिर कहने लगा कि और क्या-क्या रिकॉर्ड किया है?
मैंने कैमरा बंद करना चाहा लेकिन उसने कैमरे पर झपट्टा मारा और अजीब-सी अंग्रेजी में चिल्लाने लगा. मुझे डर लगा और मैंने कैमरा उसे दे दिया. उसने बाकायदा सर्च करके मेरा कार्ड फॉर्मेट कर दिया और मैं सिवाय खीझने के और कुछ नहीं कर सका.
16 अगस्त
यह शुक्रवार का दिन था. 370 हटने के बाद पहले शुक्रवार को जुमे की नमाज़ के बाद श्रीनगर के सौरा इलाके में प्रदर्शनऔर पत्थरबाज़ी की ख़बरें आई थीं. इस शुक्रवार को पहुंचा तो पूरा इलाका सील था. कहीं से भी आने-जाने की जगह नहीं थी. सुरक्षा बलों के इतने जवान खड़े थे कि फोटो लेने की हिम्मत ही नहीं हुई.
मेन रोड पर ही दो राउंड लगाने के बाद एक अंकल के पास में गया, जो स्कूटी बगल में लगाकर सिगरेट पी रहे थे. उन्होंने पूछा- जर्नलिस्ट हो? मैंने कहा हां. वो बोले इधर कुछ नहीं मिलेगा. फोर्स भी ज़्यादा है और लोगों ने भी इलाके को सील कर दिया है. न लोग अंदर जा सकते हैं, न बाहर.
हम बातचीत कर ही रहे थे कि एक जवान गुलेल लेकर चिल्लाने लगा. वह कुछ कह रहा था, जिससे बाकी के जवान भी सतर्क हो गए. उनमें से कुछ सीआरपीएफ की बस के पीछे छुप गए और कुछ ने सीआरपीएफ जवानों को पत्थरबाज़ों से बचने के लिए दी जाने वाली ढाल उठा ली.
अंकल स्कूटी पर बैठे और बोले- बैठौ, इधर हालात बिगड़ने वाले हैं. मैंने पत्थर और पैलेट तो सुना था लेकिन यहां तो गुलेल भी चल रही थी. मैं अंकल के साथ वहां से आगे बढ़ा तो वे खुद ही बताने लगे- अब तो बहुत ठीक है, पत्थर मारते हैं. पहले हमारे ज़माने में तो गोली मारते थे. मैं भी मीडिया में था लेकिन मैंने ये काम छोड़ दिया.
मैं खुश हुआ कि चलो इनसे तो बहुत मदद मिल जाएगी. मैंने उनसे कहा- थोड़ा कुछ दिखाइए सर, क्या चल रहा है इधर कश्मीर में. वे बोले- चलो ठीक है. मगर थोड़ी देर इंतज़ार करना पड़ेगा. मैंने कहा- ठीक है.
यह जगह श्रीनगर का बटमालू इलाका था. कहते हैं मिलिटेंसी की शुरुआत में इस इलाके का बड़ा हाथ था. थोड़ी देर बाद वे स्कूटी छोड़कर बाइक से आए, तो तीन ख़बरें पता चलीं.
पहली, बटमालू इलाके के ही एक 8 साल के बच्चे को पैलेट गन से चोट लगी है और वो अस्पताल में है. दूसरी ज़ुक्रा इलाके में बवाल हुआ है और वहां के एसएचओ को सस्पेंड कर दिया गया है. तीसरी कि कश्मीर डाउनटाउन में पत्थरबाज़ी का जवाब में सेना पैलेट फायरिंग और आंसू गैस से दे रही है.
मैंने उनसे पूछा- सर डाउनटाइन इलाके में जा सकते है ? जवाब मिला नहीं. मैंने कहा- अगर खतरा लगेगा, तो दूर से ही वापस आ जाएंगे. अब रास्ते में उन्होंने मेरा परिचय लेना मुनासिब समझा. वे मुझे सारे इलाके दिखाते हुए समझाते जा रहे थे.
जैसे ही हम डाउनटाउन की तरफ जाने वाले पुल पर पहुंचे, हमने देखा कि सीआरपीएफ वाले किसी को वहां से जाने दे रहे हैं, तो किसी को नहीं. कारें, बाइक सब वापस हो रही थीं. सिर्फ दो जवान लोगों पर चिल्ला रहे थे. पता चला सिर्फ उनको जाने दे रहे हैं जिनका डाउनटाउन में घर पड़ता है. आधार दिखाओ नहीं तो वापस जाओ.
हमने बाइक घुमाई ही थी कि पता चला कि यहां भी पत्थरबाज़ी शुरू हो गई है. एक जवान ने गुलेल भी निकाल ली, लेकिन उसे पत्थरबाज़ दिख नहीं रहे थे. मुझे भी वे नहीं दिख रहे थे. हम वापस आ गए और इधर से देखा तो एक अधबने पुल पर कुछ लड़के छुपकर बैठे थे और पत्थर मार रहे थे.
जवानों के सपोर्ट में एक और गाड़ी भरकर सीआरपीएफ वाले आए और भगदड़-सी मच गई. फिर उन अंकल ने मुझे कहीं नहीं छोड़ा और सीधे होटल पर ड्रॉप किया.
17 अगस्त
आज मैंने कैमरा लिया और उस 8 साल के बच्चे, जिसे पैलेट से चोट लगी थी, को खोजने पैदल ही बटमालू की तरफ निकल पड़ा. उसके घर पहुंचा तो पता चला कि बच्चा किसी और के घर में छिपा हुआ है क्योंकि पुलिस उसे खोज रही है.
दरअसल पहले पुलिस या सीआरपीएफ वाले पैलेट फायर करते हैं, फिर जिसे भी पैलेट की चोट लगी होती है उसे गिरफ्तार कर लेते हैं क्योंकि उनको पता चल जाता है कि ये पत्थरबाज़ी में शामिल था.
ठीक वैसे ही जैसे हांगकांग में चीन वाले वॉटर कैनन के साथ स्याही मिलाकर लोगों पर फेंक रहे हैं, फिर जिसके शरीर पर स्याही दिखी, उसे गिरफ्तार कर ले रहे हैं. स्याही वाला तरीका वैसे अच्छा है. सरकार को सोचना चाहिए इस पर!
मैं उस बच्चे के दोस्त के घर गया तो पता चला कि वह नानी के घर चला गया है. इतने में ख़बर मिली कि ईदगाह के इलाके में बवाल होने की संभावना हैं. मैं भी ऑटो पकड़कर वहीं पहुंच गया.
जो मैंने देखा वो अब तक का सबसे अलग अनुभव था. हर तरफ पुलिस का पहरा और एकदम सन्नाटा. थोड़ा आगे बढ़ा तो देखा मेन रोड की तरफ सेना के जवान दीवार और सीआरपीएफ की गाड़ियों के पीछे छिपे हैं और दूसरी तरफ से लड़के पत्थर फेंक रहे थे.
एक गली से आगे बढ़ा तो दो तीन गली बाद एक जगह और यही हाल. इधर गौर करने वाली बात ये थी कि सीआरपीएफ के जवान भी पत्थर का जवाब पत्थर से दे रहे थे.
उस समय फोटो तो लेनी थी और सीआरपीएफ वालों के साथ अनुभव अच्छा नहीं था इसलिए सोचा कि एक सुनसान गली से पीछे चला जाऊं और दूसरी ओर से फोटो या वीडियो बना लूं, लेकिन मैं उस गली तक पहुंच पाता इससे पहले ही पत्थरबाज़ों की भीड़ दौड़कर मेरी ही तरफ ही आती दिखी.
कोई 10 मीटर की दूरी पर एक आंसू गैस का गोला गिरा, फिर दूसरा फिर तीसरा. भीड़ तितर-बितर हो गई. मैंने देखा तकरीबन 30-32 की उम्र के एक लड़के के सिर से खून निकल रहा था, वो एक हाथ से घाव ढंके हुए रो रहा था और रह-रहकर भागने की कोशिश कर रहा था.
मैं भी एक ओर भागा और टकराकर गिरा, पर किसी तरह से वापस होटल पहुंचा. मेरे पैर में भी मामूली चोट आई थी. मैं उस दिन बहुत डर गया था, रात भर ठीक से नींद नहीं आई. मेरा वास्ता खूबसूरत कश्मीर के उस हिस्से से पड़ चुका था जिसे हमेशा से छुपाने की कोशिश की जाती रही है. यहां से कश्मीर के हालात बिल्कुल ब्लैक एंड व्हाइट दिखने लगते हैं.
18 अगस्त
16 तारीख को जिस स्थानीय पत्रकार से मेरी मुलाकात हुई थी उनसे मुझे दो पते मिले थे. एक परवीना आहंगर का और दूसरा एक अलगाववादी नेता का, जो उस समय तक गिरफ्तार नहीं हुए थे.
मैं पहले पते पर निकल पड़ा और पैदल जाने का इरादा था लेकिन होटल के बाहर ही वे (स्थानीय पत्रकार) दिख गए और बोले चलिए. रास्ते में वे मुझे बताने लगे कि कैसे उनके पड़ोस के एक बच्चे ने खाना-पीना छोड़ दिया है क्योंकि उसकी किसी दोस्त से बात नहीं हो पा रही है.
उन्होंने ख़बर सुनाई कि सभी फौजियों के परिवारों को बॉर्डर के पास वाले इलाके से निकाला जा रहा है क्योंकि पाकिस्तान की तरफ से बहुत हैवी फायरिंग की जा रही है. कई बार घुसपैठियों को कवर देने के लिए भी पाकिस्तान इस तरह की फायरिंग करता रहा है.
फिर उन्होंने मुझे बताया कि जिस परवीना आहंगर जी से वे मिलवाने जा रहे हैं. 90 के दशक में उनका 16 साल का बेटा गायब हुआ था, वो आज तक लापता है.
इसके लिए परवीना न केवल खुद लड़ाई लड़ रही हैं बल्कि उन्होंने एक संगठन- एसोसिएशन ऑफ पैरेंट्स ऑफ डिसएपियर्ड पर्सन्स (एपीडीपी) की भी शुरुआत की है, जिसमें वे हर महीने की दस तारीख को लापता लड़कों के परिवार वालों के साथ श्रीनगर के प्रताप पार्क में चुपचाप प्रदर्शन करती हैं.
परवीना का आरोप है कि उनके बेटे को शक के आधार पर सेना वालों ने पकड़ा था. आज तीस साल हो चुके हैं लेकिन उनके बेटे का कोई अता-पता नहीं है. परवीना को शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया जा चुका है.
अगली मुलाकात हुर्रियत के एक वरिष्ठ नेता से होनी थी, जिनको अब तक पुलिस कैद नहीं कर पाई थी. हम तय जगह पर पहुंचे और उनका इंतज़ार करने लगे. थोड़ी देर बाद पता चला कि वे नहीं आ सकेंगे क्योंकि पुलिस उन्हें रात भर खोजती रही है और वे जगह-जगह भाग रहे हैं.
फिर कुछ स्थानीय लोगों से बातचीत की तो पता चला कि उस इलाके के सभी 10-12 साल तक के बच्चों को पुलिस उठा ले गई है.
19 अगस्त
आज पता चला कि ईदगाह इलाके में आंसू गैस फेंकने की वजह से एक शख्स की मौत हो चुकी है मगर मीडिया में ये खबर हमें कहीं नहीं दिखी. मैं ख़बर की पुष्टि के लिए हिम्मत करके दोबारा ईदगाह इलाके तक गया. इस काम में मुझे यह खबर सुनाने वाले एक जनाब ने पूरी मदद की.
यह ईदगाह के दूसरी तरफ का इलाका था. पूरे इलाके में कोई हलचल नहीं, एकदम सन्नाटा. चप्पे-चप्पे पर सीआरपीएफ वाले खड़े थे. हम किसी तरह उस घर पर पहुंचे तो देखा वहां कई लोग इकट्ठा थे.
जैसे ही हमने अपना परिचय दिया तो वे लोग बोले कि कोई फायदा नहीं है. आप बातचीत करेंगे मगर छाप नहीं सकेंगे. कई लोग आते हैं कहानियां ले जाते हैं लेकिन वे हमें देखने पढ़ने को कहीं नहीं मिलती हैं. मैंने उनसे कहा कि मैं ज़रूर छापूंगा. तब जाकर उन्होंने बात शुरू की.
बीच में किसी को मुझ पर शक भी हुआ और उन्होंने सबको आगाह किया. लोग गुस्सा हुए, थोड़ी कहासुनी हुई लेकिन मैंने धैर्य से काम लिया और अंत में उन्होंने मुझसे बात की. जिस शख्स की मौत हुई थी उनका नाम मोहम्मद अयूब था. उनकी 3 बेटियां हैं.
उनके भांजे ने बताया कि गली के बाहर बहुत शोर हो रहा था वे जिसे देखने के लिए बाहर गए थे. लेकिन तभी आंसू गैस फेंकना शुरू हो गया और वे बीच में फंस गए. उन्हें हार्ट अटैक हुआ और मौत हो गई.
मौत के बाद भी इकट्ठा भीड़ पर पैलेट गन फायर किए गए. तमाम दिक्कतों के बाद उन्हें दफनाया जा सका. ये ख़बर तीन दिन पुरानी थी लेकिन कहीं भी नहीं छपी थी.
दोपहर 3:30 बजे तक मैं प्रेस कॉलोनी आ गया. श्रीनगर की मीडिया के बारे में कहा जाता है कि अगर यहां कोई काम करता है और किसी के पास असली कहानियां हैं, तो वो हैं यहां के फोटोजर्नलिस्ट जो सचमुच बेहद अच्छा काम करते हैं.
मैं ऐसे ही किसी फोटोजर्नलिस्ट को खोज रहा था और संयोग से एक जनाब मिले भी, जो बस अनंतनाग निकलने वाले ही थे. मामूली परिचय के बाद उन्होंने मुझे अपनी बाइक पर बैठने दिया और उसके बाद पांच बजे के करीब हम अनंतनाग ज़िले में पहुंच गए.
यहां इतनी बंदिशें थीं कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप कुछ करें और कोई आपको न देख रहा हो. अजीब-सा डर लग रहा था. चार जगह मैंने अपनी आईडी दिखाई, सीआरपीएफ वालों के सवालों के जवाब दिए.
लेकिन इस बीच जो बात मुझे चुभी, वो थी सीआरपीएफ वालों के बात करने का तरीका. वे इतनी बुरी तरह आपको आवाज़ लगाकर बुलाएंगे कि आपको बहुत अपमानित महसूस होगा.
सीआरपीएफ वालों ने हमें एक जगह जाने से एक बार मना कर दिया, तो फोटो जर्नलिस्ट ने तुरंत बाइक वापस मोड़ ली. मैंने कहा- बात करके तो देखते. उन्होंने कहा नहीं. फिर बाइक रोकी और दिखाया कि कैसे एक बार ऐसे ही ज़िद करने की वजह से उन्हें सीआरपीएफ वालों ने बंदूक के बट से मारा था. उस चोट का उनके हाथ में गहरा निशान था. इसीलिए अब वे बहस नहीं करते हैं.
इस सफ़र का हासिल
यह बिल्कुल सच है कि कश्मीर की जो खबरें मुख्यधारा का मीडिया दिखा रहा है उनमें से 90 प्रतिशत झूठी हैं. कश्मीर के हालात मामूली प्रदर्शनों तक सीमित नहीं हैं और न ही यहां कोई सड़कों पर साथ मिलकर बिरयानी खा रहा है.
अनुच्छेद 370 पर अपने फैसले को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही सरकार ने कश्मीरियों के घाव पर मरहम लगाने की जगह नमक रगड़ दिया है. जगह-जगह बवाल हो रहा है, पत्थरबाज़ी, गुलेलबाज़ी हो रही है, पैलेट गन चल रहे हैं, आंसू गैस फेंकी जा रही है और लोगों की जान पर बन आई है.
पाकिस्तान उधर से भारी फायरिंग कर रहा है. जवानों के परिवारों को घर भेजा जा रहा है. ऐसी आशंका जताई जा रही है कि पाकिस्तान से घुसपैठिए कश्मीर में भेजे जा रहे हैं. स्थानीय अख़बारों की हालत ऐसी है कि उनके दफ्तर के पीछे वाली गली में क्या हुआ है, यह भी उनको तीन दिन बाद पता चल रहा है.
सार्वजनिक परिवहन लगभग पूरी तरह से बंद है. कई इलाके लोगों ने सील कर रखे हैं, तो कई सुरक्षा बलों ने. 10-12 साल तक के बच्चों को पुलिस उठा ले जा रही है.
कश्मीर पर रिपोर्ट करने गए पत्रकार डल गेट के सुरक्षित इलाके से सिर्फ प्रेस कॉलोनी, लाल चौक और यूएन के दफ्तर तक के ही चक्कर लगा पा रहे हैं. सुरक्षा के नाम पर कैमरा की तस्वीरें और वीडियो डिलीट करवाए जा रहे हैं.
स्कूल कॉलेज सिर्फ अखबारों और रेडियो पर खुल रहे हैं. सारे नेता पकड़े जा चुके हैं, जो बचे हैं वे यहां-वहां भाग रहे हैं. जिस इलाके में पैलेट गन का इस्तेमाल हो रहा है उस इलाके के घरों में पुलिस घुस रही है और जिनको पैलेट की चोट लगी है, उनको उठा ले जा रही है.
पीएसए का खौफ इतना है कि कोई कैमरा पर कुछ बोलने को तैयार नहीं हो रहा है. कोई दक्षिण कश्मीर नहीं जा पा रहा है और श्रीनगर के डाउनटाउन में कोई जाना नहीं चाहता. कुल मिलाकर कहा जाए तो कश्मीर में कुछ भी सामान्य नहीं है और न ही जल्द ऐसा होने की संभावना है.
सरकारी आदेश था कि 19 तारीख को दुकानें खुलेंगी लेकिन किसी ने भी दुकान नहीं खोली. न ही बच्चे स्कूल गए. डल लेक के हाउसबोट वाले, शहर के होटल वाले, रेहड़ी-पटरी वाले, रेस्टोरेंट वाले सब के काम धंधे ठप हो गए हैं, जो शायद अगले साल मार्च में ही शुरू हो पाएंगे.
सबके चेहरे पर एक अजीब-सी ख़ामोशी है. कुल मिलाकर कहा जाए तो अंदर ही अंदर सुलग रहे कश्मीर पर सरकार ने फिलहाल फौजी बूट रख दिए हैं और अपनी पीठ थपथपा रहे हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)