बिहार में इस साल एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से जिन बच्चों की मौत हुई उनमें से 85 फीसदी से अधिक परिवार दिहाड़ी मजदूर हैं. वहीं, इस साल मरने वाले 168 बच्चों में से 104 लड़कियां थीं.
मुजफ्फरपुर: बिहार में इस साल एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से जिन बच्चों की मौत हुई उनमें से 85 फीसदी से अधिक परिवार दिहाड़ी मजदूर या मौसमी मजदूर के रूप में काम करते हैं. वहीं, इस साल मरने वाले 168 बच्चों में से 104 लड़कियां थीं.
बता दें कि, साल 2014 के बाद साल 2019 में एईएस से मरने वाले बच्चों के मरने के सबसे अधिक मामले सामने आए.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, बिहार सरकार द्वारा जुटाए गए ये आंकड़े विशेषज्ञों की उन बातों को सही साबित करते हैं, जिनमें वे लंबे समय से कहते आ रहे थे कि एईएस से होने वाली मौतों का एक सामान्य कारण इससे पीड़ित लोगों की खराब आर्थिक एवं स्वास्थ्य हालत है.
बिहार सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण को इस साल जून में तब किया गया जब एईएस के सबसे अधिक मामले सामने आए. सर्वे के अनुसार, एईएस से प्रभावित परिवारों की आय 2500 से 5500 रुपये प्रतिमाह है जबकि उनमें से 10 फीसदी से भी कम लोग मुख्यमंत्री कन्या सुरक्षा योजना के लाभार्थी हैं, जिसके तहत अधिकतम दो लड़कियों वाले परिवार को 2000 रुपये की राशि दी जाती है.
जन स्वास्थ्य अभियान के डॉ. शकील का मानना है कि सहायक नर्सों और दाइयों के भरोसे छोड़े गए बिहार के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र एईएस से निपटने में सक्षम नहीं हैं. वहीं डॉ रविकांत सिंह का कहना है कि राज्य की चिकित्सा प्रणाली खुद को मौसमी प्रकोप के लिए तैयार करने में विफल रही.
बता दें कि, डॉ रविकांत सिंह के मुंबई स्थित संगठन डॉक्टर्स फॉर यू ने बिहार सरकार के राहत कार्यों में सहायता की थी.
साल 2016 में बिहार सरकार ने एईएस से निपटने के लिए एक एक अच्छी तरह से तैयार मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का मसौदा तैयार किया था और 2018 में इसे संशोधित किया.
एसओपी के अनुसार, बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए अप्रैल के अंतिम सप्ताह जून के अंत तक आशा कार्यकर्ताओं और सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) ने एईएस से सबसे अधिक प्रभावित इलाकों का दौरा किया था.
डॉ. रविकांत सिंह के अनुसार, ‘यह अभियान लगातार कमजोर होता जा रहा था और खासकर इस बार आम चुनावों के कारण यह काफी प्रभावित हुआ.’
मुजफ्फरनगर जिले के मीनापुर ब्लॉक की एएनएम मिंटू देवी ने कहा कि यह कहना गलत होगा कि इस बार जागरूकता अभियान पर कोई जोर नहीं दिया गया, लेकिन इस बार उन्हें ऊपर से ज्यादा दिशानिर्देश नहीं मिले.
वैशाली जिले की आशा कर्मचारी ने अपनी पहचान गुप्त रखने की शर्त पर कहा, ‘इससे पहले के सालों में मध्य अप्रैल में हमें स्वास्थ्य विभाग से लिखित आदेश मिलते थे. इस बार बीमारी फैल जाने के बाद आदेश जून में आए.’
लापरवाही के आरोपों से इनकार करते हुए बिहार के मुख्य स्वास्थ्य सचिव संजय कुमार ने कहा, ‘स्वास्थ्य विभाग का चुनावों में क्या काम होता है?’
करीब एक महीने तक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के 270 से अधिक डॉक्टरों को संवेदनशील बनाने के लिए अभियान चलाने का दावा करते हुए कुमार ने कहा, अगर कोई कमी रह गई है तो हम उसकी जांच करेंगे.
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों द्वारा मरीजों को भर्ती न किए जाने से इनकार करते हुए कुमार ने कहा कि 374 बच्चों के परिवारों ने उनसे परामर्श किया था और उनमें से केवल 170 को अन्य चिकित्सा केंद्रों में भेजा गया था.
डॉ सिंह ने जागरूकता अभियान के अलावा राज्य सरकार को इस बात के लिए भी जिम्मेदार ठहराया कि उसने अपने लगभग आधे कुपोषित बच्चों को इलाज के लिए राज्य से बाहर नहीं भेजा. उन्होंने कहा, ‘हम यह भी जानते हैं कि पुरुष बच्चे की तुलना में बालिकाओं में कुपोषण का खतरा अधिक होता है.’
भोजन का अधिकार अभियान के एक कार्यकर्ता रूपेश कुमार का कहना है कि अपने शुरुआती वर्षों में नीतीश कुमार सरकार ने मिड-डे मील कार्यक्रम में सुधार किया था, लेकिन अब पूर्णिया और गया जिलों को छोड़कर यह अच्छी तरह से काम नहीं कर रहा था.
कुपोषण को लोगों के खान-पान में आ रहे बदलाव से जोड़ते हुए उन्होंने कहा, ‘पहले खाली समय में लोग तालाब में मछली पकड़ने चले जाते थे लेकिन अब तालाब कहां हैं? इसके साथ ही कीड़ों और चूहों को खाने वाले लोग अपने मान-सम्मान की चिंता करते हुए उनसे बचते हैं.’