पहाड़ काट कर हो रहे निर्माण और पनबिजली संयंत्र लगाने के धमाकों से पहाड़ का सीना फट रहा है. तलहटी के हरिद्वार, देहरादून सरीखे शहर बजबजाते स्लम बन चुके हैं. गोमुख से हरिद्वार तक सभ्यता का ज़हरीला कचरा फैल गया है.
कुछ पाठकों को यह बात एक उलटबांसी प्रतीत हो सकती है कि देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड की भूमि धार्मिक पर्यटन के बोझ तले खंड-खंड हो रही है. पर यह बात सच है. पिछले साल जुलाई माह में भारी भूस्खलन की चपेट ने लगभग चालीस जानें ले ली थीं.
इस बार मई माह में बद्रीनाथ और केदारनाथ के मंदिरों के पट खुलते ही चार धाम यात्रा को देश भर से यात्रियों का भारी जत्था फिर निकल पड़ा. अब खबर मिली है कि उसके हज़ारों सदस्य नंदप्रयाग चमोली इलाके में राजमार्ग पर हुए भारी भूस्खलन के कारण एक बार फिर खतरनाक इलाके में अटक गये हैं.
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उनको बाहर निकालने, मलबा हटाने और (फकत एक दिन की) मूसलाधार बारिश से टूटी कुल 284 सड़कों को दुरुस्ती के बाद खोलने का क्रम चालू है, और अभी तो मानसून की भारी बारिश शुरू भी नहीं हुई है .
इसी यात्रा के दौरान जून 2013 में केदारनाथ क्षेत्र में विकट बाढ़ से जो भीषण तबाही मची, जितनी जानें गईं और ताश के पत्तों की तरह मकानात गिरे, उसकी छवियां सबके मन से मिटी नहीं. फिर भी न जाने क्यों तीर्थयात्रियों ही नहीं, राज्य की नई भाजपा सरकार ने भी पुरानी सरकार की गलतियों से सबक नहीं लिया.
धार्मिक पर्यटन से भरपूर कमाई करने का मोह त्यागने तथा इलाके के नाज़ुक पर्यावरण की चिंता करने की बजाय गर्मी से पहले ही निजी एजेंटों ने तीर्थयात्रा के लिये तमाम तरह के आकर्षक टूर पैकेज और सरकार ने देव भूमि के दर्शन के लिये नए मुख्यमंत्री की छवि समेत श्रद्धालुओं का स्वागत करते हुए अनेक विज्ञापन अखबारों, टी वी पर जारी कर दिये.
मीडिया में यह देख कर कि किस तरह मंदिरों के पट खुलते ही पहले ही दिन देश के लोकप्रिय-धर्मपरायण प्रधानमंत्री दर्शनार्थ केदारनाथ मंदिर चले आये, सामान्य पर्यटकों श्रद्धालुओं को भी चार धाम यात्रा को ले कर आकर्षित और आश्वस्त होना स्वाभाविक था .
हिमालय का यह इलाका जिसमें उत्तर भारत के सबसे विख्यात धर्मस्थल और उसकी सबसे बडी नदियों के उद्गम स्थित हैं, लंबे समय से (पर्यावरण और भूकंप की दृष्टि से) देश-विदेश के वैज्ञानिकों द्वारा लगातार बेहद नाज़ुक बताया जाता रहा है.
ग्लोबल गर्मी बढ़ने से ॠतुचक्र में भारी असामान्यता भी आई है जिससे इलाके में अकारण बादल फटने और बेमौसम ओले बरसने का नया क्रम कुछ सालों से देखने में आ रहा है जिससे जान माल की भारी क्षति हुई है.
पर्यावरण शास्त्रियों की गंभीर चेतावनियों और क्षेत्र के चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुन्दरलाल बहुगुणा सरीखे पर्यावरण संरक्षण से जुड़े लोगों के दबाव से 18 दिसंबर 2012 को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की तरफ से (पर्यावरण संरक्षण कानून 1986 के हवाले से) एक अध्यादेश जारी किया गया था.
इसके तहत गोमुख से उत्तरकाशी तक का 135 किमी इलाका पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील बता कर राज्य सरकार को आदेश दिया गया था कि इस नाज़ुक इलाके में नदियों के तटों या पर्वतीय ढलानों पर इमारती निर्माणकार्य, सड़कों का निर्माण तथा खनन पूरी तरह बंद हो.
साथ ही भागीरथी के तट पर निर्माणाधीन 70 छोटी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को भी निरस्त किया जाये.
राज्य सरकार जिसने धार्मिक पर्यटन और पनबिजली से भारी मुनाफा कमाना सीख लिया था, इस प्रस्ताव को लेकर कितनी गंभीर रही इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अध्यादेश के बाद जब 29 जून 2013 को केदार घाटी में जलप्रलय आया, तो (कुल 500 लोगों की जनसंख्या वाले) इलाके में 17,000 तीर्थयात्री मौजूद थे.
और 2005-06 तक इलाके की कमज़ोर आधार वाली सड़कों पर तीर्थस्थलों तक भारी तादाद में निरंतर आवाजाही करने वाले वाहनों की तादाद साल 2012-13 के बीच 10 गुनी बढ़ गई थी.
इन वाहनों में वह भारी मशीनरी भी शामिल थी जिससे पहाड़ काटकर सड़कें बनाई जा रही थीं.
बताया गया कि राज्य सरकार को 2013-14 में धार्मिक पर्यटन के प्रताप से 23,000 करोड़ की कमाई हुई जिससे न सिर्फ राज्य की प्रतिव्यक्ति आय बढ़ी बल्कि सरकारी खज़ाना भी मालामाल हुआ.
नतीजतन केदारनाथ त्रासदी के चार साल बाद केंद्र सरकार सगर्व घोषणा कर रही है कि न केवल उत्तराखंड में यात्रियों पर्यटकों को चारधाम तक पहुंचाने वाली सड़कों को और चौड़ा किया जायेगा, बल्कि चारों धामों को जोड़नेवाले एक विशाल राजमार्ग का निर्माण भी होगा. और साथ ही कर्णप्रयाग तक रेल लाइन भी बिछाई जायेगी ताकि अधिकाधिक श्रद्धालुजन साल भर तीर्थाटन पर आते जाते रहें .
ईश्वर न करे पर्यावरण के बुनियादी नियमों का ऐसा उल्लंघन किसी नई और पहले वाली से भी बड़ी त्रासदी की पूर्वपीठिका रचने वाला कदम साबित हो.
चुनाव प्रचार के भाषणों से लेकर अब तक धार्मिक पर्यटन को बढ़ाने की जो जो बातें कही गईं और जैसी ताज़ा घोषणायें हो रही हैं, उनको देख सुन कर तो लगता है कि हमारे नेता देश काल से परे एक तटस्थ ज़मीन पर जा खड़े हुए हैं जहां पर्यावरण के प्रति आदरयुक्त नरमी बरतने की पेशकश करने वाले अनुभवसमृद्ध पुराने रस्मोरिवाज या वैज्ञानिक तर्क दोनों ही खारिज कर दिये गये हैं.
नेता अफसर, ठेकेदार, भवन निर्माता, टूरिस्टों को विडियो कोच और एसयूवी दिलवा कर गाते-बजाते ऐन देवस्थल तक ले जाने वालों, सबका बस एक ही लक्ष्य है, इलाके की धार्मिक और नदीमातृक धरोहर को दुहते हुए अधिकाधिक पैसा कमाना और फिर उसे विकास के नाम पर नाना पर्यटक भवन, लॉज, होटलों तथा चौडी सड़कों के निर्माण, तथा पनबिजली संयंत्र लगाने सरीखे कामों पर (जो हिमालयीन क्षेत्र में बार बार विनाशक साबित हो चुके हैं) पानी की तरह बहाना.
अफसर, वैज्ञानिक, नेता, टूर आपरेटर सब एक नई तरह की कमेटी नैतिकता अपना कर हिमालय की अनदेखी कर पर्यटन रथ को दांत भींच कर धक्का दे रहे हैं .
और कट्टर नव ब्राह्मण नैतिकता और सनातन धर्म तो बस वे खालें हैं, जो इस ताकतवर मशीन ने अपने असल हितस्वार्थ छिपाने को ओढ़ ली है .
धर्म के इस दोहन और विकास के ग्राफ ने सूबे को क्या दिया? सड़कें नई पीढ़ी के मैदानों को पलायन को बढ़ा रही हैं और खुद बाहरी पर्यटकों की भारी आवाजाही से टूट रही हैं.
पहाड़ काट कर हो रहे निर्माण और पनबिजली संयंत्र लगाने के धमाके से पहाड़ का सीना फट रहा है, तलहटी के हरिद्वार, देहरादून सरीखे शहर बिजबिजाते स्लम बन चुके हैं, गोमुख से हरिद्वार तक सभ्यता का ज़हरीला कचरा फैल गया है, और बेरोज़गार नई पीढ़ी के मैदानी पलायन से हज़ारों गांव उजड़ रहे हैं.
चुनावों में धर्म के हवाई नारों या शराब से बह कर आते वोट, विकास के नाम पर बस कमीशनखोर इंजीनियरों, ओवरसियरों, भ्रष्ट नेताओं और नियमों की अवहेलना कर अपने लिये संरक्षित इलाकों में सुरम्य भवन बनवाने वाले बड़े अफसरों से बना शासक वर्ग जनता को लुटेरा नज़र आये तो अचरज क्या?
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)