अमिताभ बच्चन को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिलने के मायने…

समय के साथ अमिताभ बच्चन ने सतत तरीके से अपने को नए-नए रंगों में ढाला है और जोखिम लेने से गुरेज़ नहीं किया. दूसरे प्रतिक्रिया दें, इससे पहले ही वे बदलाव की नब्ज़ पकड़ने में कामयाब रहे.

अमिताभ बच्चन (फोटो साभार: फेसबुक/अमिताभ बच्चन)

समय के साथ अमिताभ बच्चन ने सतत तरीके से अपने को नए-नए रंगों में ढाला है और जोखिम लेने से गुरेज़ नहीं किया. दूसरे प्रतिक्रिया दें, इससे पहले ही वे बदलाव की नब्ज़ पकड़ने में कामयाब रहे.

अमिताभ बच्चन (फोटो साभार: फेसबुक/अमिताभ बच्चन)
अमिताभ बच्चन (फोटो साभार: फेसबुक/अमिताभ बच्चन)

हर साल किसी विशिष्ट फिल्मी शख्सियत को सरकार द्वारा दिए जानेवाले दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के लिए इस बार अमिताभ बच्चन का चयन हर तरह से उचित है. दरअसल उनको यह पुरस्कार पहले ही मिल जाना चाहिए था. उनके (फिल्मी) करिअर के बारे में मीनमेख निकालने के लिए भी काफी कुछ है.

विभिन्न मुद्दों वे अपने सार्वजनिक पक्ष (और अक्सर सार्वजनिक तौर पर उनके द्वारा कोई पक्ष नहीं लिए जाने) के लिए सुर्खियों में रहते हैं, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि उनका कद बहुत ही बड़ा है और भारतीय फिल्म उद्योग में उनकी बराबरी का कोई नहीं है.

परंपरागत तौर पर फाल्के पुरस्कार रिटायर हो चुके कलाकारों को दिया जाता है- लेकिन बच्चन अभी रिटायर नहीं हुए हैं. उम्र के आठवें दशक के आखिर की ओर बढ़ रहे अमिताभ बच्चन आज भी सक्रिय हैं और अभिनय हो या टेलीविजन कार्यक्रम, मॉडलिंग हो या ट्विटर सक्रियता, वे पूरी तरह से व्यस्त हैं.

वे आज भी हर रात ब्लॉग लिखते हैं, तस्वीरें अपलोड करते हें और उन्हें जो भी अच्छा लगता है कि उस पर लिखते हैं. उनके चाहने वालों की संख्या आज भी कम नहीं हुई है और युवा निर्देशक आज भी उन्हें अपनी फिल्मों में लेना चाहते हैं- जिस इंसान को फिल्मी परदे पर देखते हुए वे जवान हुए हैं, उन्हें निर्देशित करना, शायद अपने सपने को साकार करने की तरह है.

बच्चन कहेंगे: मैं रोज काम पर जानेवाला मजदूर हूं- मैं सुबह जागता हूं और काम पर जाता हूं और मुझे इस बात की खुशी है कि मेरे पास आज भी काम है.’ लेकिन यह अति विनम्रता एक चालाक और विचारवान दिमाग को छिपा लेती है- बीतते सालों के साथ बच्चन ने सतत तरीके से अपने को नए-नए रंगों में ढाला है और समय के थपेड़ों को मात देकर आगे बढ़ते गए हैं.

उन्होने जोखिम लेने से गुरेज नहीं किया और दूसरे लोग प्रतिक्रिया दें, उससे पहले बदलाव की नब्ज को पकड़ने में वे कामयाब रहे हैं. फिल्मी परदे के बड़े सितारे जब टेलीविजन की संभावनाओं को लेकर सशंकित थे, तब वे एक क्विज शो के जरिए उसे साध रहे थे, जिसने उन्हें एक नई पीढ़ी से जोड़ा.

कौन बनेगा करोड़पति  में बच्चन अपनेपन का ऐसा माहौल रचते हैं कि हॉट सीट पर पर बैठा व्यक्ति तुरंत उनके साथ एक जुड़ाव महसूस करने लगता है. सामान्य तौर पर यह व्यक्ति छोटे शहर या कस्बे से आया हुआ होता है, जिसकी आंखें इस मेगास्टार की चमक से चौंधियाई हुई होती हैं. लेकिन यह दीवार उस समय ढह जाती है, जब बच्चन सहज होने में उनकी मदद करते हें और कई मौके पर उन्हें गले लगा लेते हैं.

केबीसी के एक प्रतिभागी के साथ अमिताभ बच्चन (फोटो साभार: फेसबुक/अमिताभ बच्चन)
केबीसी के एक प्रतिभागी के साथ अमिताभ बच्चन (फोटो साभार: फेसबुक/अमिताभ बच्चन)

इसी तरह से वे अपने एंग्री यंग मैन  के दिनों से काफी दूरी तय कर चुके हैं. 1970 के दशक की कठिनाइयों और उसके बाद आपातकाल से पिसने वाली पीढ़ी को उनकी यह छवि खूब रास आयी, तो वर्तमान समय में वे पितातुल्य –(और दादा की तरह) नजर आते हैं, जो भरोसा, विश्वसनीयता जगाता है और परंपरा का प्रतीक है.

किसी जमाने में व्यवस्था से जंग लड़नेवाला आज खुद व्यवस्था बन गया है. (नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए गुजरात पर्यटन का ब्रांड एम्बेसडर बनकर उन्होंने निश्चित ही सत्ता के प्रति झुकाव वाले अपने पक्ष का प्रदर्शन किया था.)

बच्चन का फिल्मी सफर

लेकिन फाल्के पुरस्कार फिल्म उद्योग में योगदान के लिए दिया जाता है और हमें उनके फिल्मी करिअर पर ही बात करनी चाहिए. क्या हम यह कह सकते हैं कि वहां भी उन्होंने उतने ही जोखिम उठाए हैं?

क्या बच्चन को एक महान अभिनेता के तौर पर याद किया जाएगा- जो कि वे निश्चित तौर पर हैं- या एक ऐसे अभिनेता के तौर पर याद किए जाएंगे, जो जोखिम लेने के लिए और अपनी क्षमता को शीर्ष तक खींच कर ले जाने के लिए तैयार था?

क्या वे मुख्यधारा से बाहर कदम रखने और अपने कौशल को छोटे बजट की, ज्यादा आत्मीयतापूर्ण फिल्मों के लिए पेश करने के लिए तैयार थे? उन्होंने सात हिंदुस्तानी (ठीक 50 साल पहले) से शुरू होकर जिन 200 से ज्यादा फिल्मों में काम किया है, उनमें से कितनी क्लासिक फिल्म के तौर पर याद की जाएंगीं?

उनके खाते में दीवार  है, और निश्चित तौर पर जंज़ीर  और शोले  और अमर अकबर एंथनी  और आनंद  है. ये सब शानदार फिल्में हैं जिनका हम आज भी लुत्फ उठा सकते हैं.

Amitabh Bachchan Posters

मैंने अमर अकबर एंथनी  पर एक किताब लिखते हुए इसे कई बार देखा है और हर बार मुझे इसमें नई बारीकियां नजर आईं- बच्चन जो उस समय तक सिर्फ गंभीर और गुस्से वाली भूमिका ही कर रहे थे, एंथनी गोंसाल्विस  के किरदार में बेहद सहज और स्वाभाविक थे और इस फिल्म में आईने के सामने फिल्माया गया दृश्य, जिसे उन्होंने दोषरहित तरीके से निभाया है, सर्वकालिक श्रेष्ठ कॉमिक दृश्यों में से एक के तौर पर गिना जाएगा.

यह, उनकी ज्यादातर भूमिकाओं की तरह, एक बेहद बुद्धिमान अदायगी थी. यही वह चीज है, जो उन्हें अपने समकालीनों और अपने बाद आने वाली पीढ़ी अलगाती है.

लेकिन एक दर्शक के तौर पर मेरा एक बहुत बड़ा मलाल यह है, और यह बात मैं उनके प्रशंसक के तौर पर कहता हूं, कि बच्चन ने उस दौर में किसी समानांतर सिनेमा में काम नहीं किया, जब यह अपने उरुज पर था.

यह कोई अपराध नहीं है- यह उनका निजी चुनाव था और उन्होंने मुख्यधारा की मसाला फिल्मों की दुनिया में ही रहने का ही फैसला किया. लेकिन यह उन बड़े ‘अगर ऐसा होता तो क्या होता’ वाले सवालों में से एक है कि- क्या होता अगर हमें बच्चन बेनेगल, सईद मिर्जा या मृणाल सेन की जोड़ी देखने को मिलती!

सत्यजित रे की फिल्म में वहीदा रहमान ने अलग ही चमक बिखेरी और ऐसी ही फिल्मों में काम करनेवाले अन्य लोगों के बारे में भी यह बात कही जा सकती है. बच्चन अपने स्टारडम को नीरस फिल्मों के लिए भी दांव पर लगाने के लिए तैयार थे क्योंकि उन्हें पता था कि उनके प्रशंसक उन्हें स्वीकार कर लेंगे.

लेकिन उन्होंने निराशाजनक ढंग से उस दुनिया में कदम नहीं रखा, जो कि उस समय फल-फूल रही थी, जब वे अपने करिअर की चोटी पर थे. हृषिकेश मुखर्जी के साथ उनकी फिल्में इसके सबसे करीब आती हैं, लेकिन यह भी एक सुरक्षित दायरे के भीतर ही की गई पहल थी.

यह एक गैरजरूरी आलोचना की तरह लग सकता है, खासकर ऐसे मौके पर जब उन्हें इतना बड़ा सम्मान दिया गया है. लेकिन ऐसा नहीं है. 1970 के दशक में और उसके बाद भी समानांतर सिनेमा के लोग उनके साथ काम करना चाहते थे, लेकिन ऐसा मौका कभी नहीं आया.

ऐसा नहीं है कि बच्चन के मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा, रमेश सिप्पी की फिल्मों में काम करने से उनकी विश्सनीयता कम हो गई. उन्होंने बच्चन को अच्छी लिखी गई भूमिकाएं दीं, जिनमें उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया.

शक्ति  में वे और भी ऊंचाइयों तक पहुंचे, जो यह देखते हुए कोई छोटी-मोटी उपलब्धि नहीं थी उनके सामने दिलीप कुमार थे; लेकिन तब तक उनकी फिल्में और उनके किरदार एक हद तक दोहराव से ग्रस्त होने लगे थे और भले ही बच्चन हमेशा की तरह शानदार अभिनय कर रहे थे और दर्शकों का ध्यान  खींच रहे थे, लेकिन कुली, मर्द  या शराबी  जैसी फिल्मों को उनकी महानतम फिल्मों में नहीं गिना जाएगा.

फिल्म पा के एक दृश्य में अमिताभ बच्चन (फोटो साभार: यूट्यूब)
फिल्म पा के एक दृश्य में अमिताभ बच्चन (फोटो साभार: यूट्यूब)

तब से वे शायद ही कभी परदे से दूर हुए हैं और जबकि 1980 के दशक की लाउड फिल्मों को भुला दिया गया है- और करन जौहर की फैमिली ड्रामा वाली फिल्में एक तरह की शर्मिंदगी की तरह हैं- चीनी कम, बंटी और बबली और ब्लैक में पुराने बच्चन का अक्स देखा जा सकता है.

उन्होंने पा  में बहुत बड़ा जोखिम लिया, जिसमें उन्होंने करोड़ों में एक व्यक्ति को होनेवाले जेनेटिक दोष के शिकार किशोर की भूमिका की. यहां तक कि द ग्रेट गैट्सबी  में उनकी जांबाजी शानदार थी. लेकिन, इनके साथ उनके खाते में राम गोपाल वर्मा की आग  और झूम बराबर झूम  जैसी फिल्में भी हैं.

हर अभिनेता के हिस्से में कुछ महान, कुछ औसत से अच्छी और बहुत सारा तलछट होता है. बच्चन इनसे अलग नहीं हैं और उन्हें हमेशा उनके सर्वश्रेष्ठ के लिए याद किया जाएगा, न कि उनकी सबसे खराब फिल्मों के लिए. प्रशंसक माफ कर देनेवाले होते हैं और बच्चन से सभी की उम्मीदों पर खरा उतने की उम्मीद लगाना गैरवाजिब होगा.

दादा साहब फाल्के पुरस्कार सही व्यक्ति को गया है, लेकिन पीछे मुड़कर देखने पर एक ऐसे युग के द्वारा दिए गए मौकों को हाथ से गंवा देने की कसक उभर जाती है, जिसने कुछ यादगार कला फिल्में दीं. बच्चन ने निस्संदेह उन्हें भी और समृद्ध किया होता.

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