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जब भारत के संविधान का ऐलान हुआ तब डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि इसने ‘मनु के शासन की समाप्ति की है.’ और इसके बावजूद यह दिख रहा है कि मनु की वापसी हो रही है, उसकी प्रसिद्ध रचना मनुस्मृति नियमित तौर पर सुर्खियों में बनी रहती है. यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि मनुस्मृति की रचना ईसापूर्व दूसरी सदी और ईसा के बाद तीसरी सदी के दरमियान हुई.
अक्तूबर 2018 में, रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (खरात) – एक आंबेडकरवादी समूह के तीन सदस्य महाराष्ट्र के औरंगाबाद से राजस्थान के जयपुर पहुंचे. शीला बाई पवार, कांता रमेश अहिरे और दाउद शकील शेख, इन्होंने सुना था कि जयपुर उच्च अदालत के सामने मनु की मूर्ति स्थापित है.
वर्ष 1989 में उसकी स्थापना वहां हुई थी, जब सूबे में संघ से जुड़े रहे भाजपा के नेता भैरों सिंह शेखावत की सरकार थी. उसी समय से दलित संगठनों एवं अन्य मानवाधिकार संगठनों ने मूर्ति को वहां पर लगाये जाने का विरोध किया था. अदालत ने इस बारे में निर्णय भी लिया था, लेकिन विश्व हिंदू परिषद के नेता आचार्य धर्मेंद्र ने इसे रोकने के लिए एक जनहित याचिका दायर की, और उच्च अदालत ने इस पर स्थगनादेश दिया.
अदालत का कहना था कि मुख्य न्यायाधीश के साथ दो अन्य न्यायाधीशों की पीठ को इस मसले पर विचार करना चाहिए और तबसे मामला वहीं लटका हुआ है. मूर्ति वहीं बनी हुई है और इसी वजह से पवार, अहिरे और शेख अदालत पहंुचे थे. यह दो महिलाएं – पवार और अहिरे – मूर्ति पर चढ़ी और उन्होंने मूर्ति के चेहरे पर कालिख पोत दी. लोग वहां एकत्रित हुए और उन्होंने उन महिलाओं को पीटना शुरू किया.
वहां पहुंचे एक आदमी ने इन महिलाओं से कहा ‘मैं भी ब्राह्मण हूं, मेरे पर पोत कालिख.’ महिलाओं को हिरासत में लिया गया और धार्मिक भावनाएं आहत करने का आरोप उन पर लगाया गया. कुछ माह बाद उन्हें जमानत मिली.
उनकी कार्रवाई को धार्मिक भावनाएं आहत करने में शुमार किया गया, लेकिन देखा यही गया है कि मनु की हिमायत से किसी की भावनाएं आहत होती हैं, जबकि मनु की रचना किसी भी ऐसे व्यक्ति के लिए जो समानता और आज़ादी में यकीन रखता हो, बेहद आपत्तिजनक है. आंबेडकर की मूर्ति भी अदालत में लगी है, अलबत्ता वह किसी कोने में स्थित है.
संभाजी भिड़े, उम्र 85 साल, जो शिव प्रतिष्ठान संगठन के संस्थापक हैं, उन्होंने अपने अनुयायियों-धारकरियों को पुणे (महाराष्ट्र) के जंगली महाराज रोड पर पुलिस की बिना अनुमति के एकत्रित किया. भिड़े ने अपने धारकरियों को बताया कि उन्हें हिंदू राष्ट्र के निर्माण की दिशा में कोशिश करनी चाहिए.
उन्होंने यह भी बताया कि मनुस्मृति संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम की शिक्षाओं से काफी बेहतर है, दरअसल मनु की रचना किसी भी अन्य ग्रंथ से बेहतर है. मानव भी एक तरह से जानवर ही होता है, मगर जो चीज़ उसे अलग बनाती है, वह उसका धर्म होता है क्योंकि जानवरों के पास धर्म का कोई विचार नहीं होता.
अपनी विचारों की पूर्ति की क्षमता भगवान ने मनुष्य को दी है. अपने मन को नियंत्रित करने की क्षमता हासिल करना, धर्म के अनुगमन का रास्ता है. आप को अपने मन पर नियंत्रण कायम करने की क्षमता हासिल करनी चाहिए. संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम ने हमें इसका रास्ता बताया. लेकिन मनु इनसे एक कदम आगे थे और सिर्फ धर्म ही देश को बचा सकता है.
भिड़े ने जिस तरह खुल्लमखुल्ला भक्ति आंदोलन के संतों पर हमला किया, उससे यह सवाल उठा कि आखिर लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत करने के लिए उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया. जनवरी 2018 के भीमा कोरेगांव हिंसा में उनकी कथित भूमिका के बावजूद और हिंसा के बीच उनके खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर होने के बावजूद उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया.
सुर्खियां इस वजह से भी बनी कि जब उन्होंने यह बयान दिया कि उनके बगीचे के आम से निसंतान दंपति को संतान हो सकती है. यही वह बकवास है जो उनकी वास्तविक भूमिका और उनको खारिज किए जाने के बीच बार बार आता है. भिड़े को मोदी के गुरु और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के संरक्षक के तौर पर देखा जाता है.
मोदी का प्रसिद्ध वक्तव्य है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मैं उनके अनुरोध पर नहीं बल्कि उनके आदेश पर उनसे मिलने आया हूं.’ आचार्य धर्मेंद्र, संभाजी भिड़े और हिंदुत्व का कोई भी अनुयायी मनु को सम्मान और प्यार के काबिल समझता है. उनके लिए मनुस्मृति संविधान से भी अधिक महत्वपूर्ण चीज है.
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महाड सत्याग्रह की 90वीं सालगिरह के महज दो सप्ताह पहले वर्ष 2017 के अंत में, आरएसएस के विचारक इंद्रेश कुमार ने जयपुर में चाणक्य गण समिति द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सेदारी की. इस कार्यक्रम में चर्चा का विषय था ‘आदिपुरुष मनु को पहचानें, मनुस्मृति को जानें.’
कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में बताया गया था कि मनुस्मृति ‘जातिभेद और जाति व्यवस्था’ के विरोध में थी. इंद्रेश कुमार ने अपने संबोधन में बताया कि मनु न केवल जाति व्यवस्था के खिलाफ थे बल्कि वह गैरबराबरी के भी विरुद्ध थे.
उनका यह भी कहना था कि इतिहासकारों ने मनु के बारे में दिग्भ्रमित करने वाली छवि पेश की है. मनु, उनका कहना था, वह सामाजिक सद्भाव और सामाजिक न्याय के मामले में दुनिया का सबसे पहला न्यायविद था. इंद्रेश कुमार का यह वक्तव्य पवार और अहिरे द्वारा जयपुर के उच्च अदालत में स्थित मनु की मूर्ति को कालिख पोत दिए जाने के कुछ माह पहले आया था.
इतिहास गवाह है कि वर्ष 1949 के नवंबर में संविधान सभा ने भारत के संविधान पर अपनी मुहर लगायी, उसके सिर्फ तीन दिन बाद संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने अपने संपादकीय में न केवल इस संविधान को खारिज करने बल्कि मनुस्मृति को ही देश का संविधान बनाने की बात कही थी, लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत के इस अनोखे संवैधानिक घटनाक्रम का कोई उल्लेख नहीं है.
स्पार्टा के लिकर्गस या पर्शिया के सोलोन के बहुत पहले मनु के कानूनोंं को रचा गया था. आज तक मनुस्मृति में प्रस्तावित कानून दुनिया की प्रशंसा का सबब बनते हैं और स्वतःस्फूर्त पालन और पुष्टिकरण को निमंत्रण देते हैं. मगर हमारे संवैधानिक विद्वानों के लिए उसके कोई मायने नहीं हैं.
(ऑर्गेनाइजर, 30 नवंबर 1949)
दस साल पहले अपनी रचना ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ में गोलवलकर ने मानवता के सोपानक्रम को लेकर मनु के विचारों की हिमायत की थी.
विराट पुरुष, वह सर्वशक्तिमान जो अपने आप को प्रगट करता है / पुरुषसूक्त के हिसाब से/ सूर्य और चंद्रमा उसकी आंखें हैं, तारे और आसमान उसकी नाभि से निर्मित हुए हैं, ब्राह्मण उसका मस्तिष्क है, क्षत्रिय उसके हाथ हैं, वैश्य जांघ हैं और शूद्र उसके पैर हैं.
इसका मतलब यही हुआ कि ऐसे लोग जिनके यहां ऐसी चतुःस्तरीय प्रणाली है अर्थात हिंदू जन, हमारे ईश्वर हैं. ईश्वर की यह सर्वोच्च दृष्टि ही ‘’राष्ट्र ’ की हमारी अवधारणा है, जो हमारे चिंतन में पहुंची है और उसने हमारे सांस्कृतिक विरासत के विभिन्न अनोखी अवधारणाओं को जन्म दिया है.
वर्ष 1942 में गोलवलकर ने संघ के एक शिविर में एक व्याख्यान दिया, जिसको अपनी किताब ‘आरएसएस’ में प्रोफेसर जयदेव डोले ने उद्धृत किया है. इस व्याख्यान का बड़ा हिस्सा देना समीचीन होगा:
हम इस संदर्भ में भगवान मनु और मछली की कहानी पर चर्चा कर सकते हैं. एक बार मनु ने पानी के बाहर एक मछली को देखा जो मरने के करीब थी. उसे उस पर दया आयी और उसने उसे अपने कमंडल में रख दिया. कुछ ही समय में मछली बढ़ने लगी और वह कमंडल उसके लिए छोटा पड़ गया.
मनु ने उसे एक तालाब में छोड़ा और जब उसने देखा कि तालाब भी मछली के छोटा पड़ने लगा है तो उसने पहले उसे एक छोटी नदी में, फिर बड़ी नदी में और बाद में समुद्र में पहुंचा दिया. जब एक भारी विपदा आयी और समूची दुनिया समाप्त होने के करीब थी तब इस विशालकाय मछली ने अपनी पीठ पर मनु को रख कर उन्हें बचाया. जब प्रलय की घड़ी समाप्त हुई – तो मनु ने समूची दुनिया का पुनर्निर्माण किया.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसी मछली की तरह बढ़ रहा है. समूची दुनिया अपने आप को प्रलयकारी स्थिति में देखती है, मौजूदा नाजुक परिस्थिति को लेकर लोग भी बेहद डरे हुए हैं और बदहवास होकर भाग रहे हैं और अपने आप को बचाने की कोशिश में मुब्तिला हैं. हर तरफ अराजकता है.
लोग इस कदर डरे हुए हैं कि वे शेर से भी लिपटने को तैयार है मगर संघ उन्हें जबरदस्त आत्मविश्वास के साथ बता रहा है कि अगर हिंदू समाज संगठित हुआ तब वह अपने धर्म को और अपने आप को इस तूफान से बचा लेगा. एक संगठित समाज अपने आप को तबभी बचा सकता है जब ऊपर से आसमान जबरदस्त ताकत के साथ गिरने को हो.
डोले इस व्याख्यान के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित करते हैं. सबसे पहले, गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मनुस्मृति के साथ जोड़ते हैं. यह व्याख्यान महाड सत्याग्रह की 15वीं सालगिरह पर दिया गया था, जब आंबेडकर और उनके अनुयायियों ने मनुस्मृति का दहन किया था.
भारत के बारे में संघ के नज़रिये और भारत के बारे में आंबेडकर के नज़रिये के बीच गोलवलकर ने एक मोटी रेखा खींच दी थी. दूसरी, महत्वपूर्ण बात यह है कि उन दिनों भारत एक अहम उपनिवेशवाद विरोधी विद्रोह – भारत छोड़ो आंदोलन- के बीच में था. संघ इस आंदोलन से कहीं से भी नहीं जुड़ा था.
जिस जन आंदोलन ने ब्रिटिश शासकों को हिला दिया था, इस बात की चर्चा किए बिना, गोलवलकर हिंदुओं को संघ से जुड़ने के लिए कह रहे थे, एक ऐसे संगठन से जिसकी इस उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में कोई भूमिका नहीं थी. वह निष्क्रियता की हिमायत करते हैं और पीछे देखने के लिए लोगों का आह्वान करते हैं.
संघ के नेता केआर मलकानी (1921-2003) अपनी किताब ‘द आरएसएस स्टोरी’ में इस बात को स्वीकारते हैं कि गोलवलकर के लिए ‘ऐसी कोई वजह नहीं दिखती थी कि हिंदू विधि को मनुस्मृति के साथ अपने प्राचीन रिश्तों को समाप्त करना चाहिए.’
मनु की किताब के सम्मोहन को लेकर गोलवलकर अकेले नहीं थे. विनायक दामोदर सावरकर, जिन्होंने पहली दफा हिंदुत्व की संकल्पना पेश की, वह इस किताब की जबरदस्त तारीफ करते हैं और उन्हें लगता था कि उसे भारतीय संविधान बनना चाहिए था. मनुस्मृति में स्त्रियां नामक आलेख में वह लिखते हैं:
मनुस्मृति वह ग्रंथ है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक व्यवहार्य है और जो प्राचीन समय से हमारी संस्कृति ‘-रिवाजों, चिंतन और व्यवहार का आधार रहा है. हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दैवी यात्रा को उसी ने सदियों से संहिताबद्ध किया है. आज भी करोड़ों हिंदुओं द्वारा अपनी जिंदगियों में और आचरण में जिन नियमों का पालन किया जाता है वह मनुस्मृति पर आधारित है. आज मनुस्मृति ही हिंदू कानून है.
सावरकर से लेकर गोलवलकर से लेकर मौजूदा समय तक, भारत के संविधान को बदनाम करने की और साथ-साथ मनुस्मृति की हिमायत करने की चाल चली जा रही है, ताकि समानता पर आधारित ग्रंथ को सोपानक्रम पर आधारित किताब से प्रतिस्थापित किया जाए.
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2017 में संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत ने हैदराबाद में अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद को संबोधित किया. भागवत ने कहा कि संविधान ‘विदेशी स्रोतों के आधार पर’ लिखा गया है, जो एक ऐसा मसला है ‘जिसे हमे संबोधित करना चाहिए.’
उनका कहना था कि ‘इस देश की मूल्य प्रणाली के अनुकूल’ संविधान को बदलना चाहिए. इस प्रसंग के कुछ माह बाद भाजपा से जुड़े केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े ने कर्नाटक में एक कार्यक्रम में कहा कि संविधान को बदलना चाहिए और उसे ‘आने वाले दिनों में बदल दिया जाएगा.’
भागवत और हेगड़े गैर नहीं हैं. भाजपा के चुनाव घोषणापत्रों में नियमित तौर पर भारतीय संविधान की समीक्षा की बात की जाती रही है. जब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री (1999-2004) थे, तब उन्होंने संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था, जिसकी अगुआई जस्टिस एमएन आर वेंकटचलैया ने की थी.
आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट 2002 में जमा की थी, लेकिन वह मामला आगे नहीं बढ़ सका क्योंकि वाजपेयी सरकार उतनी मजबूत नहीं थी. जब उमा भारती मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री थी, तब उन्होंने गोहत्या पर पाबंदी लगाने के लिए एक अध्यादेश जारी किया था, जिसमें जनवरी 2005 में सरकार की तरफ से जो आधिकारिक वक्तव्य जारी हुआ उसमें ‘मनुस्मृति’ के गुणों की प्रशंसा की गयी थी.
बयान में कहा गया था, ‘मनुस्मृति गाय के हत्यारे को नरभक्षी/दरिंदे की श्रेणी में शुमार करती है और उसके लिए सख्त से सख्त सज़ा का प्रावधान करती है.’ आज़ाद हिंदुस्तान के कानूनी इतिहास में यह पहली दफा था कि किसी अध्यादेश या कानून को मनुस्मृति का आधार प्रदान किया गया था.
संविधान को बदनाम करने और मनुस्मृति को नवजीवन देने की कोशिश संयोगवश नहीं है. वह संघ-भाजपा के एजेंडा का अनिवार्य हिस्सा है. महिलाओं और उत्पीड़ित जातियों के बड़े हिस्से के लिए मानवाधिकार से वंचित करने की यह परियोजना है.
मालूम हो कि दलितों और आदिवासियों के कल्याण और सशक्तिकरण के लिए नवस्वाधीन मुल्क द्वारा लिए गए सकारात्मक कार्रवाई के कार्यक्रमों (affirmative action programmes ) को गोलवलकर ने कभी उत्साह से नहीं देखा.
उन्होंने इसके प्रति अपनी असहमति यह कहते हुए दर्ज करा दी कि इसके जरिए शासकवर्ग हिंदू सामाजिक एकता की जड़ों पर चोट कर रहे हैं और अतीत में जिस सद्भावपूर्ण माहौल में हिंदू धर्म के तमाम संप्रदाय एक पहचान की भावना के तहत रहते थे, उस भावना को चोट पहुंचायी जा रही है.
इस बात से इनकार करते हुए कि निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिंदू समाज व्यवस्था जिम्मेदार है, उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों को आपसी वैमनस्य बढ़ाने के लिए जिम्मेदार ठहराया.
डॉ. आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिए विशेष प्रावधानों की बात, भारत के 1950 में गणतंत्र बनने के, दस साल बाद तक के लिए की थी; मगर वह चले ही जा रहे हैं, यहां तक कि उन्हें विस्तारित भी किया जा रहा है. जाति के आधार पर विशिष्ट अधिकारों को देने से उनके अंदर अलग रहने के लिए स्वार्थी तबका तैयार होगा. यह शेष समाज में उनके एकीकरण में बाधा पहुंचाएगा.
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शूद्रों की स्थिति को लेकर मनु का कानून एक दिलचस्प स्थिति को रेखांकित करता है. सिर्फ इसी वजह से कि उन्होंने हिंदुओं की मानसिकता को ढाला है और शूद्रों के बारे में उनके रूख को निर्धारित किया है. यह न केवल आज बल्कि पहले से चले आ रहे समय में हिंदू समाज का सबसे विपुल हिस्सा है. नीचे उन्हें अलग अलग मदों में स्पष्ट किया है ताकि पाठक के लिए समग्रता में यह जानना संभव हो कि शूद्र समाज को लेकर मनु ने उन्हें क्या ओहदा प्रदान किया है.
– आंबेडकर
मोदी कहते हैं कि वह डॉ. आंबेडकर के ‘शिष्य’ हैं. अब जहां मनु की बात आती है तो उन दोनों के बीच खाई/चौड़ा फासला दिखता है.
मोदी हिंदुत्व के भक्त हैं. हम लोगों ने पहले भी देखा कि हिंदुत्व के गुरुजन मनु की रचनाओं के हिमायती रहे हैं, यह ऐसी चीज़ है जो उन्हें डॉ. आंबेडकर से अलग करती है.
मोदी की किताब ‘ज्योतिपुंज’ – जो पहली दफा वर्ष 2008 में गुजराती में प्रकाशित हुई थी- जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पंद्रह कार्यकर्ताओं की जिंदगी के बारे में बताया है. इनमें से अधिकतर लोग संघ के दायरे के बाहर अपरिचित हैं.
इस किताब में गोलवलकर पर सबसे अधिक फोकस है. मोदी उन्हें अच्छे संगठनकर्ता, एक समर्पित व्यक्ति और महान प्रतिभा वाला व्यक्ति घोषित करते हैं. मोदी कहीं भी गोलवलकर से असहमत नहीं होते, कम से कम मनु के बारे में उनके विचारों के मामले में.
ऐसा नहीं दिखता कि गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर और देश के प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी कभी जाति व्यवस्था और जातीय सोपानक्रम से जनित अपराधों को लेकर कभी अधिक चिंतित रहे हैं. और यह सब उनकी अपनी कहानियों के बावजूद कि वह जाति व्यवस्था की असंगतताओं या असम्मतियों का शिकार रहे हैं.
उन्होंने वर्चस्वशाली जातियों के लिए दस फीसदी आरक्षण का ऐलान करने में देर नहीं लगायी ताकि वह प्रमाणित कर सकें कि वह इन समूहों को लेकर कितने चिंतित रहते हैं. मनुस्मृति के विश्वदृष्टिकोण को कहीं से भी कोई बुनियादी चुनौती उनके चिंतन में नहीं दिखती.
स्वच्छता/सफाई के बारे में मोदी का नज़रिया इसी बात को दिखाता है कि उन्होंने किस हद तक जाति व्यवस्था की बुराइयों को जज्ब किया है. और सबसे ख़राब बात यह है कि प्राचीन भारत के बारे में वह अजीब-सा सम्मोहन रखते हैं.
संसद में मोदी ने कहा कि ‘पंडित नेहरू के चलते भारत को जनतंत्र की प्राप्ति नहीं हुई, जबकि अपने ‘समृद्ध इतिहास’ से ‘सदियों पुरानी समृद्ध जनतांत्रिक परंपराओं से’ उसे वह हासिल हुई. उनके मुताबिक ‘जनतंत्र इस देश में और हमारी संस्कृति में एकाकार है.’
आखिर वह क्या साबित करना चाहते हैं जब वह कहते हैं कि जनतंत्र ‘हमारी संस्कृति में है?’ जाति के सोपानक्रम को भला जनतांत्रिक कैसे कहा जा सकता है?
प्रोफेसर डीएन झा ने इस संबंध में इंडियन एक्स्प्रेस में लिखा था ताकि प्राचीन भारत के बारे में इन दावों की समीक्षा की जा सके. उनका कहना था कि ‘जिसकी कतारों से निकले मोदी प्रधानमंत्री बने हैं’ इतिहास का ज्ञान कभी उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मजबूत पक्ष नहीं रहा है.
प्राचीन भारत में गणतांत्रिक राज्यों की उपस्थिति के बारे में झा लिखते हैं:
‘अगर वह प्राचीन भारतीय इतिहास से परिचित होते तो वह जानते कि जनजातीय सभा (संथागार) में कुलीनों और क्षत्रियों का बोलबाला रहता था, गुलामों और कामगारों को इसमें कोई स्थान नहीं रहता था. सभा के सदस्यों को राजा कहा जाता था और लिच्छवियों के मामले में 7,707 राजा थे, जो सभा में बैठते थे और उनके राज्य का प्रमुख एक सेनापति था, इस शब्द से राजतंत्र के सेनाध्यक्ष का बोध होता है.
जनतंत्र कहना दूर बल्कि लिच्छवी राज्य एक कुलीनतंत्र था. यह राज्य कार्यकारी फरमानों और विधेयकों के जरिए अपनी प्रजा पर सख्त नियंत्रण रखते थे, जो उनके गैरजनतांत्रिक स्वरूप को उजागर करता था, खासकर किस तरह वह लड़कियों की शादी के लिए नियम बनाते थे या किस तरह वह ‘असमान जन्मों’ के लोगों के बीच सहभोजन को प्रतिबंधित करते थे.’
झा लिखते हैं, ‘ऐसे नियम उन कानूनों से बेहतर नहीं थे जिन्हें धर्मशास्त्रों के ब्राह्मण लेखकों ने विकसित किया था. अगर बारीकी से देखें तो लिच्छवी, शाक्य और मल्ल के यहां एक राजतंत्र का पूरा साजोसामान मौजूद था. इतनी उम्मीद अवश्य की जा सकती है कि अपने जीर्णशीर्ण और पुराने पड़ चुके विचारों को प्रस्तुत करने और इस तरह मुल्क के लोगों को गुमराह करने के पहले दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र का प्रधानमंत्री मुल्क के अतीत के बारे में अधिक जानकारी रखे.’
प्राचीन भारत के बारे में मोदी के दावे अज्ञान की उपज नहीं हैं. वे ‘क्षत्रियों के गणतंत्र’ को -‘जनतंत्र’ के लिए वर्चस्वशाली जातियों के शासन को आदर्श माननेवाले चिंतन को – महिमामंडित करने की जरूरत से उपजे हैं. यहां आधुनिक जनतांत्रिक नियमों और डॉ. आंबेडकर जैसे लोगों के नज़रिये के प्रति तिरस्कार साफ झलकता है.
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संघ के बुद्धिजीवी दो बातों के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं: पहले, दलितों एवं स्त्रियों को लेकर अंजाम दी गयी हिंसा में मनुस्मृति के शामिल होने को लेकर उसे दोषमुक्त साबित करने और दूसरे, जाति व्यवस्था तथा जाति सोपानक्रम से ध्यान हटा कर अन्यों को – मुख्यतः मुसलमान – सदियों से चली आ रही हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराने को लेकर.
इसी मकसद से संघ के बुद्धिजीवी अपने लिए ‘अनुकूल आंबेडकर’ गढ़ने में मुब्तिला हैं, एक ऐसे ‘सूटेबल आंबेडकर’ जो इस दोहरे विपथगमन में उनकी मदद कर सकें. संघ बुद्धिजीवियों द्वारा लिखी गयी किताबें, लेख और पुस्तिकाएं नियमित तौर पर मनुस्मृति को महिमामंडित करती रहती हैं, जहां आंबेडकर को भी अपने साथ जोड़े रखते हैं.
केवी पालीवाल की किताब ‘मनुस्मृति और आंबेडकर’ (हिंदू राइटर्स फोरम, 2007) इसका एक उदाहरण है. पालीवाल नियमित तौर पर सुरुचि प्रकाशन के लिए- जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का करीबी प्रकाशन है- लिखते रहते हैं, जिन्होंने इनकी किताबें भी प्रकाशित की हैं, जिनके शीर्षक उनके नज़रिये को उद्घाटित करते हैं.
ईसाइयत की असलियत, जिहाद क्या और कैसे? इस्लामी राज्य की ओर, हिंदू जागरण क्यों और कैसे?, ‘मनुस्मृति और आंबेडकर’ शीर्षक किताब में पालीवाल मनुस्मृति से नए सिरे से पढ़ने की जरूरत को रेखांकित करते लिखते हैं:
यह पुस्तक उन लोगों के लिए लिखी गयी है जिन्हें यह भ्रम है कि स्वायंम्भुव मनु की मनुस्मृति हिंदू समाज में आज व्याप्त जात-पांत, ऊंच नीच और छूआछूत का समर्थन करती है. इसका दूसरा उद्देश्य इस भ्रम को भी दूर करना है कि मनु, शूद्रों और स्त्रियों के विरोधी और ब्राह्मणवाद के समर्थक हैं.
इसका तीसरा उद्देश्य आधुनिक युग के समाज सुधारक और दलित नेता डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा मनुस्मृति के संबंध में फैलायी गयी भ्रांतियों को भी सप्रमाण दूर करना है. यहां सभी उद्धरण बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के संपूर्ण वाडमय (खंड 1 से 14, परिशिष्ट 1) से दिए गए हैं.
डॉ. आंबेडकर ने खुद इस बात को स्वीकारा है कि वह संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व होने का दावा नहीं करते हैं. (हू वेअर द शूद्राज, वॉल्यूम 13, पेज 3). दुर्भाग्य से डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति पर लिखा वेदविरोधी मैक्समुलर के संपादित संस्करण के आधार पर, जिसका अंग्रेजी अनुवाद जार्ज बुहलर ने किया था, जिससे कई भ्रांतियां पैदा हुईं.
अगर बुहलर के बजाय उन्होंने रंगनाथ झा द्वारा अनुवादित और 1920-24 में प्रकाशित संस्करण को देखा होता तो कम भ्रांति बनती. हिंदू धर्म पर लिखी अपनी रचनाओं में डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति के 475 श्लोकों का इस्तेमाल बार-बार किया है, इनमें से 200 श्लोक स्त्रियों, ब्राह्मणों और शूद्रों से संबंधित हैं, जिनमें से अधिकतर मिलावटी/संमिश्र हैं.
अगर हम इन मिलावटी वेदविरोधी श्लोकों को हटा दें तो हम पाएंगे कि मनु और आंबेडकर में कोई फर्क नहीं है.
पालीवाल की प्रस्तावना यह भी दावा करती है कि मनुस्मृति के कुल 2,865 श्लोकों में से लगभग 56 फीसदी बाद में मिला दिए गए हैं. वह किन्हीं डॉ. सुरेन्द्र कुमार का उल्लेख करते हैं, जिन्होंने इन बाद के मिलावटों के मद्देनज़र मनुस्मृति को संशोधित किया है और एक विशुद्ध मनुस्मृति 1985 में प्रकाशित की है.
पालीवाल आगे लिखते हैं कि ‘अगर यह विशुद्ध मनुस्मृति वर्ष 1935 के आसपास ही उपलब्ध होती, तब डॉ. आंबेडकर यह समझते कि वर्णों के बीच फर्क प्राकृतिक होता है और फिर मनुस्मृति के लिए इतना विरोध नहीं होता. पालीवाल की किताब कथित तौर पर ‘इन भ्रांतियों को तार्किक ढंग से’ दूर करने के लिए लिखी गयी है.
मनुस्मृति के साफ-सुथराकरण/सैनिटायजेशन की यह कोशिश संघ से संबद्ध बुद्धिजीवियों की लंबे समय से चली आ रही कोशिश है, भले ही इस साफ-सुथराकरण का मतलब हो ‘प्राचीन हिंदू ग्रंथों का’ भी परिशोधन करना.
वर्ष 2017 में अमीर चन्द, जो संस्कार भारती के नेता हैं, जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आनुषंगिक संगठन है, ने संस्कृति मंत्री महेश शर्मा से यह अपील की कि ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाए ताकि ‘प्राचीन हिंदू ग्रंथों की सही छवि’ लोगों के सामने प्रस्तुत की जा सके.
अमीर चन्द इस बात से चिंतित थे कि यह ग्रंथ दलित विरोधी तथा स्त्रीविरोधी दिखते हैं. इन हिस्सों का नया रंगरोगन जरूरी था. मनुस्मृति की एक किस्म की रिब्रांडिंग के लिए नये अनुसंधान की आवश्यकता थी.
मनु का जन्म 8,000 साल पहले हुआ. मनुस्मृति के कई संस्करण हैं, जो उनके जन्म के 5,500 साल बाद लिखे गए हैं इसलिए उन लेखकों एवं उनके लेखन की विश्वासार्हता पर सवाल उठाना जरूरी है. यह अनुसंधान का मामला है, किसी को इसमें ध्यान देना चाहिए.
अमीर चन्द के इस प्रस्ताव का आधार पत्रकार सूर्यकांत बाली की किताब ‘भारत गाथा’ (जागृति प्रकाशन, 2015) है. यह किताब जिसके विद्वतापूर्ण होने का दावा संघ करता है, अपने दावों को पुष्ट करने के लिए किताब में कहीं भी स्रोतों को चिह्नित नहीं करती.
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सर टी. माधव राव ने अपने वक्त़ के हिंदू समाज के बारे में कहा था, ‘अपने लंबे जीवनकाल में मनुष्य जब चीजों का अवलोकन करता है और सोचता है, तब उतनी ही गहराई से उसे यह महसूस होता है कि पृथ्वी पर हिंदू समुदाय जैसा और कोई समुदाय नहीं है, जो राजनीतिक बुराइयों से कम और स्वतः दंडित, स्वतः स्वीकृत या स्वतः निर्मित और टाले जाने योग्य बुराइयों से कहीं अधिक परेशान रहता है.’
यह नज़रिया बिल्कुल सटीक है औैर बिना किसी अतिशयोक्ति के हिंदू समाज में समाज सुधार की जरूरत को अभिव्यक्त करता है. सबसे पहले समाज सुधारक गौतम बुद्ध थे. समाज सुधार का कोई भी इतिहास उनसे ही शुरू होना चाहिए और भारत में समाज सुधार का कोईभी इतिहास उनके बिना पूरा नहीं हो सकता जो उनकी महान उपलब्धियों की अनदेखी करता है.
डॉ. बीआर आंबेडकर, द अनटचेबल एन्ड पैक्स ब्रिटेनिका 1931
क्या डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति को गलत ढंग से पढ़ा था, जैसा कि पालीवाल का दावा है? यह कहना मात्र भी इस महान विद्वान को अपमानित करना है, एक ऐसी शख्सियत जिन्हें भली-भांति समझ में आ रहा था कि वह क्या पढ़ रहे हैं और उसे किस तरह पढ़ा जाना चाहिए.
उनके लेखन का विशाल दायरा, चुने हुए विषयों की व्याप्ति और उनका गहरा ज्ञान इसी बात को प्रमाणित करता है कि वह महज मनुस्मृति जैसी किताब को ऊपर-ऊपर से नहीं देख रहे थे और इसलिए वह मनु की रचनाओं को ठीक से संदर्भित कर पा रहे थे.
आंबेडकर के लेखन में एक अधूरी पांडुलिपि दिखती है- रेवोल्यूशन एंड काउंटर रेवोल्यूशन इन एनशिएंट इंडिया- जिसे आंबेडकर की संकलित रचनाओं के तीसरे खंड में प्रकाशित किया गया है. इस विशाल परियोजना के तहत सात किताबों को लिखने की योजना थी, हालांकि वह इस काम को पूरा नहीं कर सके.
आंबेडकर यह तर्क करनेवाले थे कि बौद्ध धर्म प्राचीन भारत का सबसे महत्वपूर्ण इंकलाब था. ब्राह्मणों की अगुआई में चली प्रतिक्रांति में उसे शिकस्त दी गयी. अपनी रूपरेखा में उन्होंने तेरह अध्यायों की फेहरिस्त बनायी थी, जो इस प्रकार थी:
1. उत्खनन पर प्राचीन भारत
2. प्राचीन शासन- आर्य समाज की स्थिति
3. गर्क पुरोहितशाही
4. सुधारक और उनकी नियति
5. बौद्ध धर्म का पतन और विनाश
6. ब्राह्मणवाद का साहित्य
7. ब्राह्मणवाद की जीत
8. घर के रीतिरिवाज – मनुस्मृति या प्रतिक्रांति का ग्रंथ
9. प्रतिक्रांति की दार्शनिक हिफाजत (कृष्ण और उनकी गीता)
10 विराट पर्व और उद्योग पर्व का विश्लेषण
11. ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय
12. शूद्र और प्रतिक्रांति
13. महिलाएं और प्रतिक्रांति
आंबेडकर के लिए, मनुस्मृति ‘हिंदू समाज में सम्पन्न सबसे बड़ी सामाजिक क्रांति का रिकॉर्ड है.’ वह समझते हैं कि यह किताब एक विधि की किताब है- जो आंशिक तौर पर नीतिशास्त्र है तो आंशिक तौर पर धर्म. आंबेडकर मनुस्मृति को ‘प्रतिक्रांति का ग्रंथ’ समझते हैं.
आंबेडकर नोट करते हैं कि इस प्रतिक्रांति का मकसद ‘बौद्ध धर्म को शिकस्त देना था और ब्राह्मणवाद को पुनर्स्थापित करना था.’ आंबेडकर रेखांकित करते हैं कि यह किताब, ब्राह्मणों को विशेषाधिकारों से लैस करती है और ब्राह्मण सत्ता की दावेदारी के लिए तथा उसे बनाए रखने के लिए जबरदस्त हिंसा का प्रयोग करती है.
आखिर ब्राह्मणवाद बौद्ध धर्म के खिलाफ क्यों था? इसका एक मुख्य कारण है कि बौद्ध धर्म दरअसल ब्राह्मणवाद की जड़ पर चोट करता है- वह जाति व्यवस्था और जाति सोपानक्रम को खारिज करता है.
यह मुमकिन है कि जाति व्यवस्था उतनी कठोर उस वक्त नहीं थी जैसी वह बाद में बनी, मगर इसके बावजूद यह बात रेखांकित करनेलायक है कि बौद्ध धर्म ने सोपानक्रम के सिद्धांत पर ही हमला किया.
बुद्ध के दृष्टिकोण पर अमल बौद्ध धर्म शुद्धता और शूद्र के अपमान के विचार पर ही सीधे हमले के रूप में सामने आया. भिक्खु के तौर पर सभी लोग समान होंगे. ब्राह्मणवाद पर बौद्ध हमले की यही अन्तर्वस्तु थी.
इसी वजह से, मनुस्मृति बौद्ध धर्म को विधर्मी या धर्मभ्रष्ट मानती है. तीन प्रावधानों के उल्लेख से खुद आंबेडकर उस दुश्मनी को परिभाषित करते हैं जो मनुस्मृति में बौद्धों के बारे में नज़र आती है. आंबेडकर इन्हीं बौद्धधर्मियों का आदर करते हैं और वर्ष 1956 में वे उनके साथ जुड़ भी जाते हैं :
1. ऐसे लोग जो ईशनिंदा करते हैं …………………….राजा को चाहिए कि उन्हें अपने राज से निकाल दे
2. भेस बदलकर रहने वाले यह डकैत, जो राजा के राज में रहते हैं लगातार अपनी बुरी हरकतों से सुयोग्य प्रजा को क्षति पहुंचाते रहते हैं.
3. जल से बने मद्य को उन लोगों को या ऐसी आत्माओं नहीं अर्पण किया जाएगा, जो तयशुदा रिवाजों की उपेक्षा करते हैं और जो व्यर्थ जनम लिए होते हैं या जो जातियों के अवैध संमिश्रण से जनमे होते हैं या जो विधर्मी संप्रदायों के योगी होते हैं और जो खुदकुशी करते हैं.
7
अपनी एक अहम अप्रकाशित पांडुलिपि ‘फिलॉसॉफी आफ हिंदुइज़्म’ में डॉ. आंबेडकर मनुस्मृति से फ्रेडरिक नीत्शे से नात्सियों तक एक सीधी रेखा खींचते हैं.
इस आलेख को संभवतः तीस के दशक के उत्तरार्द्ध में या 40 के दशक के पूर्वार्द्ध में लिखा गया था क्योंकि यहां आंबेडकर नात्सीवाद के बारे में वर्तमान काल में लिख रहे हैं, जबकि नात्सियों को 1945 में शिकस्त मिली थी.
आंबेडकर लिखते हैं, ‘नात्सी, अपनी वंशावली नीत्शे से रेखांकित करते हैं और उसे ही अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हैं. नीत्शे की एक मूर्ति के पास हिटलर ने अपनी एक तस्वीर भी खिंचवायी है. उसने अपने गुरु की पांडुलिपियों को अपने खास संरक्षण में रखा है. नीत्शे के लेखन के हिस्से चुने जाते हैं और नात्सीवाद के समारोहों में नयी जर्मन निष्ठा और विश्वास के तौर पर उनकी उदघोषणा होती है.’
आंबेडकर लिखते हैं कि यह बात विवाद से परे है कि नीत्शे नात्सियों में प्रिय थे. इसी बीच आंबेडकर लिखते हैं, नीत्शे की सुपरमैन की संकल्पना हिटलर को बेहद पसंद थी, वह सीधे मनुस्मृति से निकली थी.
अपनी रचना ‘एंटी क्राइस्ट’ (1888) में नीत्शे बेहद आत्मीयता से मनु की विधि की किताब को ‘लॉ बुक आफ मनु’ लिखते हैं. इसी से कुछ साल पहले आयी नीत्शे की रचना ‘दस स्पोक जरथुस्त्र’ (1883) में ऐसा प्रतीत होता है कि विधिनिर्माता जरथुस्त्र मनु का ही कोई रूप है. आंबेडकर लिखते हैं ‘दस स्पोक जरथुस्त्र, मनुस्मृति का ही नया संस्करण लगता है.’ नीत्शे के लिए ब्राह्मण सुपरमैन की श्रेणी में ही शुमार थे.
आंबेडकर मनुस्मृति से उद्धृत करते हुए कहते हैं, ‘शूद्र को ब्राह्मण की सेवा करने दो’ और फिर कहते हैं, ‘हिंदू धर्म सुपरमैन का सुसमाचार है और वह यही शिक्षा देता है कि सुपरमैन के लिए जो चीज़ सही है वही नैतिक तौर पर सही है और अच्छी है.’
ये मजबूती से रखी गई बातें हैं और यह कहना कि आंबेडकर ने अध्ययन नहीं किया या गलत पढ़ा था, अपने आप में आश्चर्यजनक है. वह नीत्शे की व्याख्या करते हैं और मनु की रचना के आशय व निहितार्थ देखते हैं. और यह निहितार्थ फासीवादी है.
वह लिखते हैं ‘हिंदू धर्म के दर्शन की समानांतर बातें नीत्शे में मिल सकती हैं’ और ये लिखे जाने के आधी सदी बाद नात्सीवाद की फंतासियों में परिणत होती हैं.
(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)
(नोट: यह किताब अंग्रेज़ी में Modinama- Issues That Did Not Matter के नाम से प्रकाशित हुई है.)