महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ ही मध्य प्रदेश की झाबुआ विधानसभा सीट पर भी उपचुनाव होने हैं. बहुमत के अभाव में गठबंधन की सरकार चला रही कांग्रेस और तख़्तापलट का सपना देख रही भाजपा, दोनों के लिए अपने यह सीट जीतना ज़रूरी बन गया है.
महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनावों पर देश भर की निगाहें टिकी हैं. लेकिन चुनाव केवल इन दो राज्यों में ही नहीं हैं. देश के 18 राज्यों की 64 विधानसभा और 1 लोकसभा सीटों पर भी उपचुनाव हैं. इनमें एक विधानसभा सीट मध्य प्रदेश की झाबुआ भी है, जिस पर महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ ही 21 अक्टूबर को मतदान होगा और 24 को नतीजे घोषित किए जाएंगे.
झाबुआ सीट की चर्चा विशेष तौर पर करना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि 230 सदस्यीय प्रदेश विधानसभा में सत्ता के संतुलन के लिहाज से यह सीट बेहद ही महत्वपूर्ण हो गई है.
मुख्यमंत्री कमलनाथ के नेतृत्व में प्रदेश में सरकार चला रही कांग्रेस के पास वर्तमान में सदन में 114 विधायक हैं. बहुमत के आंकड़े 116 से वह दो सीट दूर है. चार निर्दलीय, दो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और एक समाजवादी पार्टी (सपा) के विधायकों के सहयोग से वह गठबंधन की सरकार चला रही है.
जबकि 2018 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 109 सीटों पर जीत दर्ज की थी. झाबुआ से विधायक जीएस डामोर को भाजपा ने बाद में झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा दिया और वे जीत भी गये. जीतने के बाद उन्होंने विधानसभा सीट छोड़ दी. इस तरह यह सीट खाली हुई और भाजपा के विधायकों की संख्या सदन में 108 रह गई.
गौरतलब है कि जब से प्रदेश में कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है भाजपा नेताओं की ओर से लगातार सरकार के तख्तापलट के दावे जोर-शोर से किए जाते रहे हैं. दूसरी ओर, समर्थन दे रहे निर्दलीय, बसपा और सपा के विधायक भी सरकार को अक्सर आंखें दिखाते ही रहते हैं.
कई बार उनके बगावती तेवरों के आगे सरकार को झुककर फैसले लेने पड़े हैं. वहीं, सरकार के पांच साल से पहले गिरने की अटकलों के बीच कमलनाथ को बार-बार सामने आकर भरोसा दिलाना पड़ता है कि सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी.
इसीलिए यह एक सीट जीतना कांग्रेस के लिए अतिमहत्वपूर्ण हो गया है. यदि वह जीतती है तो सदन में उसके सदस्यों की संख्या 115 पहुंच जाएगी जो कि बहुमत से बस एक सीट दूर है. निर्दलीय विधायक प्रदीप जायसवाल को कांग्रेस ने सरकार को समर्थन देने के एवज में खनिज जैसा महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंप रखा है. इसलिए वे सरकार के साथ दृढ़ता से खड़े रहते हैं.
इस तरह झाबुआ जीतने की स्थिति में कमलनाथ सरकार 116 विधायकों के स्पष्ट बहुमत में होगी और बसपा विधायक रामबाई और संजीव सिंह कुशवाह, सपा विधायक राजेश शुक्ला, निर्दलीय सुरेंद्र सिंह शेरा के बगावती तेवर उसके लिए चिंता का विषय नहीं रहेंगे.
हालांकि, जुलाई माह में विधानसभा सत्र के दौरान कांग्रेस भाजपा के दो विधायक शरद कौल और नारायण त्रिपाठी को अपने पाले में करने में सफल रही थी. उसके बाद मान लिया गया था कि अब सरकार के पास पूर्ण बहुमत हो गया है. लेकिन तब से अब हालात बदले हैं.
भाजपा के दोनों बागी विधायक अब तक भाजपा में ही बने हुए हैं. उन्होंने न तो दल बदला है और न ही भाजपा छोड़ी है. भाजपा भी उन्हें अपना विधायक बताती रही है. उसके नेताओं का कहना है कि वह एक विधेयक पर मत विभाजन था, कोई फ्लोर टेस्ट नहीं था. दोनों विधायक उस विधेयक से सहमत थे. इसलिए कांग्रेस के पक्ष में वोट किया. वे कांग्रेस में शामिल नहीं हुए हैं, वे हमारे ही हैं.
बीते दिनों बागी शरद कौल ने भी ऐसा ही बयान दिया था और कहा था कि वे भाजपा के साथ हैं. इसलिए अपनी सरकार में स्थायित्व लाने के लिए झाबुआ सीट कांग्रेस के लिए प्रासंगिक बनी हुई है.
वहीं, भाजपा के नजरिए से देखें तो विधानसभा चुनावों में वह कांग्रेस से केवल 5 सीटें ही पीछे रही थी. इसलिए उसके नेताओं को उम्मीद थी कि वे सरकार को समर्थन दे रहे 7 गैरकांग्रेसी और एकाध किसी कांग्रेसी विधायक को तोड़कर भविष्य में कमलनाथ सरकार को गिरा सकते हैं.
लेकिन यदि झाबुआ में भाजपा हारती है तो दोनों दलों के बीच अंतर 7 सीटों का हो जाएगा, जिससे भाजपा का तख्तापलट करने का ख्वाब थोड़ा मुश्किल हो जाएगा. वहीं, यह हार पार्टी के प्रादेशिक नेतृत्व के उन दावों को खोखला साबित कर देगी जहां वे जनता को वर्तमान सरकार से त्रस्त ठहराते हुए कहते हैं कि जनता भाजपा को वापस सत्ता में देखना चाहती है.
यही कारण है कि उपचुनाव जो साख के प्रश्न पर लड़े जाते हैं, इस बार प्रश्न सत्ता का है. इसलिए झाबुआ सीट का महत्व बढ़ गया है. नतीजतन दोनों दल ताकत लगाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं. दोनों दलों के स्टार प्रचारकों की सूची तो यही बयां करती है.
केवल इस एक सीटे के लिए कांग्रेस ने पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी, पूर्व पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को स्टार प्रचारक बनाने के साथ – साथ मुख्यमंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अपने आदिवासी मंत्रियों को मैदान में उतारा है. गौरतलब है कि झाबुआ अनुसूचित जनजाति (एसटी) यानी आदिवासी आरक्षित सीट है.
तो भाजपा भी स्टार प्रचारक के तौर पर पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और कैलाश विजयवर्गीय जैसे बड़े चेहरों को वोट बटोरने के काम पर लगा रही है.
30 सितंबर को प्रत्याशियों के नामांकन के दौरान भी सीट का महत्व पता चला. जहां कांग्रेस प्रत्याशी के नामांकन के लिए स्वयं कमलनाथ मौजूद रहे तो वहीं भाजपा के लिए शिवराज सिंह चौहान और नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव पहुंचे.
इस दौरान भार्गव का बयान कि यह दो पार्टियों का नहीं, बल्कि हिंदुस्तान-पाकिस्तान का चुनाव है, कांग्रेस की जीत पाकिस्तान की जीत होगी, भाजपा के लिए इस एक सीट का महत्व स्पष्ट कर देता है. जिसे जीतने के लिए वह अपने चिर परिचित राष्ट्रवाद के हथकंडे तक को आजमा रही है.
वहीं, कांग्रेस की ओर से लोकसभा चुनावों के बाद से कमलनाथ करीब दर्जनभर बार झाबुआ का दौरा कर चुके हैं. जीत के महत्व को समझते हुए सत्ता का लाभ इस तरह उठा रहे हैं कि क्षेत्रीय विकास के लिए अरबों रुपये की योजनाओं की घोषणाएं कर चुके हैं.
पिछले दिनों ‘मुख्यमंत्री शहरी आवास योजना’ की घोषणा भी उन्होंने झाबुआ से ही की थी. वहीं, आदिवासी किसानों के साहूकारी कर्ज को माफ करने की घोषणा भी उन्होंने इसी आदिवासी आरक्षित सीट पर की थी.
आसान नहीं रहा टिकट वितरण
कांग्रेस ने पांच बार के पूर्व सांसद, थांदला सीट से चार बार विधायक, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री रहे कांतिलाल भूरिया को मैदान में उतारा है.
2018 के विधानसभा चुनाव में भी कांतिलाल के बेटे विक्रांत भूरिया को टिकट दिया गया था. लेकिन वे जीएस डामोर की चुनौती से पार नहीं पा सके थे और 10,437 मतों से हार गये थे. वहीं, लोकसभा चुनाव में झाबुआ-रतलाम सीट से स्वयं कांतिलाल भूरिया जीएस डामोर से हार गये थे.
इन दो हारों के बावजूद कांग्रेस ने उन पर दांव खेला है तो इसका कारण इसी सीट से पूर्व कांग्रेस विधायक जेवियर मेड़ा हैं. विधानसभा चुनाव विक्रांत भूरिया हारे थे तो इसका कारण टिकट न मिलने पर कांग्रेस से बगावत कर निर्दलीय मैदान में उतरने वाले जेवियर मेड़ा ही थे. उन्होंने 35,943 वोट काटे थे.
लोकसभा चुनावों से पहले मेड़ा कांग्रेस में लौट आए. नतीजा ये रहा कि भले ही झाबुआ-लोकसभा सीट कांतिलाल भूरिया हार गये लेकिन सीट के अंतर्गत आने वाले झाबुआ विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने भाजपा पर आठ हजार से अधिक मतों की बढ़त बनाई थी.
हालांकि, मेड़ा भी टिकट की दावेदारी में थे लेकिन कमलनाथ ने उन्हें किसी निगम या बोर्ड में पदस्थ करने के आश्वासन पर मना लिया. यही कारण रहा कि मेड़ा स्वयं भूरिया का नामांकन भरवाने पहुंचे.
बहरहाल, कांग्रेस जीत के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है. इसलिए आदिवासी तबके में गहरी पकड़ रखने वाले जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) को स्वयं मुख्यमंत्री ने मनाया ताकि वह अपना प्रत्याशी न खड़ा करे.
लेकिन, भाजपा के लिए राह थोड़ी कठिन हो गई है. विधानसभा चुनावों में भितरघात के चलते सत्ता में वापसी करने से करीब से चूकी भाजपा का पीछा यह बीमारी अभी भी नहीं छोड़ रही है. इस सीट पर पार्टी की युवा, नया और निर्विवादित चेहरा उतारने की मंशा ने अन्य दावेदारों को नाराज कर दिया है.
पार्टी ने भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) के जिलाध्यक्ष भानु भूरिया को टिकट दिया है. टिकट की रेस में पूर्व विधायक शांतिलाल बिलवाल और एक अन्य गोविंद अजनार भी थे.
बिलवाल 2013 में जीते थे. 2018 में पार्टी ने उनका टिकट काट दिया था. टिकट न मिलने से ये दोनों नेता नाराज हैं और पार्टी से दूरी बनाए हुए हैं. वहीं, भाजपा के एक अन्य नेता कल्याण सिंह डामोर ने निर्दलीय पर्चा भर दिया है.
बहरहाल, यह सीट कांग्रेस की पारंपरिक सीट मानी जाती रही है. 1998 तक उसका एकछत्र राज था. भाजपा पहली बार 2003 में यह किला भेदने में कामयाब हुई थी. तब से हुए चार विधानसभा चुनावों में से तीन में उसे जीत मिली है. केवल 2008 में जेवियर मेड़ा ने कांग्रेस को जीत दिलाई थी.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)