बुंदेलखंड के गांवों में बहुत से हैंडपंप हैं, पर उनमें पानी नहीं है. गांव वालों को दो किमी. दूर तालाब पर जाना पड़ता है. गंदे पानी के उपयोग से कई बीमारियां फैल रही हैं.
(हाल के वर्षों में पेयजल संकट के संदर्भ में बुंदेलखंड क्षेत्र बार-बार चर्चित होता रहा है. मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश के 13 ज़िलों में फैले बुंदेलखंड में विशेषकर पठारी व पथरीले गांव इस समस्या से अधिक त्रस्त रहे हैं. इस वर्ष गर्मी के बढ़ते प्रकोप के बीच जब बुंदेलखंड में जल-संकट गहराने लगा तो भारत डोगरा ने क्षेत्र के तीन जिलों टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश), ललितपुर व झांसी (उत्तर प्रदेश) के दूर-दराज के गांवों का दौरा कर 21 से 23 मई तक जल-संकट से जुड़े इन गांववासियों के दुख-दर्द को जानने का प्रयास किया. यह बुंदेलखंड में जल-संकट पर रिपोर्ट का पहला भाग है.)
टीकमगढ़ ज़िले के जतारा ब्लाक में स्थित मस्तापुर गांव में 350 परिवारों के लिए मात्र एक हैंडपंप ऐसा है जिसमें अभी पानी आ रहा है. यह भी एक कोने में स्थित है. यहां के गंभीर जल संकट को देखते हुए प्रशासन ने यहां एक नए बोरवेल के लिए 300 फीट तक खुदाई करवाई पर बहुत कम पानी मिला.
पिछले वर्ष सूखे के समय यहां परमार्थ संस्था ने सात टैंकरों से जलापूर्ति करवाई, पर इस वर्ष सरकारी या गैर-सरकारी स्तर पर कोई टैंकर यहां पानी नहीं पहुंचा रहा है जिससे यहां के लोगों के लिए जल संकट सूखे के वर्ष से भी अधिक विकट हो रहा है.
वैसे गांव में बहुत से अन्य हैंडपंप भी हैं, पर उनमें पानी नहीं है. नहाने-धोने के लिए उन्हें दो किमी. दूर तालाब पर जाना पड़ता है. दूषित पानी का उपयोग भी करना पड़ता है जिससे कभी त्वचा रोग तो कभी उल्टी-दस्त की बीमारी होती है.
गांव की एक महिला रेखा ने बताया- लगभग आधा दिन तो पानी के इंतज़ाम में ही गुज़र जाता है. कोई क्या कमाए तो क्या खाए? एक अन्य महिला कला ने कहा- दिन-रात बड़ी चिंता बनी रहती है कि पानी का इंतज़ाम कैसे करें. पहले पानी लेने के लिए लोगों में आपस में झगड़े भी हो जाते हैं. अभी रात का अंधेरा दूर भी नहीं होता कि लोग पानी की खोज में निकल पड़ते हैं.
इसी ब्लाक में स्थित वनगाय गांव में हैंडपंप के पास पांच-छः महिलाओं व बालिकाओं से बातचीत हुई. उन्होंने बताया कि लगभग 200 परिवारों के गांव में यही हैंडपंप बचा है जिसमें थोड़ा बहुत पानी आ रहा है. हैंडपंप थोड़ा सा पानी गिराता है, फिर हांफते हुए जबाव दे देता है. अब महिलाओं को इंतज़ार करना पड़ता है कि उसकी मेहरबानी कब होगी. यही हालत आजकल इन गांवों के बहुत से हैंडपंपों की हो गई है.
यहां बैठी सीता ने बताया कि 10 बजे आई थी, अब लगभग दो बजे हैं तो एक मटका पानी भरा है. पिंकी ने बताया कि सुबह आठ बजे आई थी, अब तक चार मटके पानी भर पाई हूं.
पास में पेड़ के नीचे बैठे पुरुषों ने बताया कि हैंडपंप का पानी बहुत कम पड़ जाता है तो 2 किमी. दूरी से कोई बैलगाड़ी से, कोई साईकल से, कोई बहंगी से पानी लाते हैं. गांव का तालाब सूख चुका है. दूषित पानी से बीमारी होती है तो महंगा इलाज कराते हैं व रोजी-रोटी में भी कठिनाई होती है.
इसी जतारा ब्लाक के कौड़िया गांव में लगभग 45 सहरिया परिवारों की बस्ती है. इनके लिए केवल एक हैंडपंप चालू स्थिति में है. वह भी बहुत रुक-रुक कर पानी देता है. अतः लोग ऐसे कुओं का पानी छानकर पीते हैं जिनमें धूल, पत्ते गिरते रहते हैं. यहां सिम्बू जैसी वृद्ध महिला अपने बीमार बेटे के साथ असहाय जीवन जी रही है. ऐसे परिवार दूर के कुंओं से पानी कैसे लाएं.
उत्तर प्रदेश की ओर आए तो ललितपुर ज़िले के तालबेहट ब्लाक में स्थित ग्योरा गांव की स्थिति बहुत विकट है. यहां लगभग 700 परिवारों के लिए लगभग नौ हैंडपंप हैं, पर इस समय मात्र 4 हैंडपंपों में ही कुछ पानी आ रहा है. अतः ऐसे कुओं का पानी भी पीना पड़ता है जिनमें कचरा गिरा हुआ है. हैंडपंप के पानी में लौह तत्व की अधिकता है. यह भी एक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण है. अनेक लोग भीषण गर्मी में भी पानी की कमी के कारण दो-तीन दिन में ही नहाते हैं या कपड़े धोते हैं.
यहां खुजली के अतिरिक्त उल्टी-दस्त की कई बार शिकायत विशेषकर बच्चों में रहती है. इस कारण कुछ वर्ष पहले कुछ बच्चों की मौत भी हुई थी. यहां पहुंचने का रास्ता इतना दुर्गम है कि किसी बीमार व्यक्ति को इलाज के लिए ले जाना बहुत कठिन है. किसी भी दिन पानी लाने में चार घंटेे लग जाते हैं तो आजीविका पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है. अतः बहुत से लोग पलायन कर रहे हैं पर शहरों के ठेकेदारों द्वारा ठगे जाने पर कई बार उन्हें मायूस खाली हाथ ही गांव लौटना पड़ता है.
पास के गुंदेरा गांव में लोगों ने बताया कि चुनाव के समय बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, पर अभी भी जल-संकट पहले जैसा ही विकट बना हुआ है. इस वर्ष तो टैंकर ने भी पानी नहीं पहुंचाया. अधिकतर पानी 1 से 2 किमी. दूर से लाना होता है वह भी साफ नहीं होता है, उसे छान कर पीते हैं. उबालने की आदत नहीं है. धनीराम व अजला जैसे अकेले पड़ गए बुजुर्गों की जल समस्या सबसे विकट है, कभी इससे तो कभी उससे दो लीटर पानी लाने के लिए कहते रहते हैं.
इसी ब्लाक (तालबेहट) के झाबर-पुरा गांव के सहरिया मुहल्ले में तो एक वृ़द्ध महिला शुभजा के बारे में यहां के लोगों ने बताया कि वह कई बार रोती है और प्यास के कारण रोती है. लोग असहायों को पानी देते रहे हैं पर इस बढ़ते जल-संकट के बीच कभी चूक हो जाती है तो वृद्ध प्यासे रह जाते हैं.
दूसरी ओर, यहां बच्चों के समूहों से मैंने पूछा कि क्या ऐसा होता है कि कभी-कभी बहुत प्यास तो लगती है पर पानी नहीं मिलता तो उन्होंने बताया कि ऐसा तो कई बार होता ही रहता है. यहां अधिकांश स्कूलों में हैंडपंप चालू हालत में नहीं है. बोतल में पानी बच्चे ले जाएं तो भी शीघ्र ही तपने लगता है. बहुत प्यास लगने पर बच्चे घर चले जाते हैं.
इस बहुत प्यासी बस्ती में कोई टैंकर भी नहीं पहुंचता है. ऊंची जातियों के नियंत्रण के स्रोतों से पानी लेना सहरिया समुदाय के लिए वैसे ही कठिन है.
पेयजल संकट का यह सामाजिक पक्ष भी है. इसी ब्लाक के मोटो गांव में दलित समुदाय के लोग एक ऊंची जाति के परिवार के घर के पास से गुजरते थे तो उन्हें चप्पल उतारनी पड़ती थी. सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रोत्साहित किया तो दलितों ने इस प्रथा को समाप्त किया, पर तब तक पानी की समस्या आ गई. दलितों व कमज़ोर वर्ग को पानी की अधिक कभी थी तो उन्होंने बेकार पड़ा कुंआ साफ कर इसकी मरम्मत करनी चाही. इसपर उन्हीं दबंगों ने उन्हें रोका पर दलित व कमज़ोर वर्ग ने हिम्मत दिखाकर अपना काम जारी रखा.
इस प्रयास में इमरती व राम कुंवर नामक जल सहेलियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. जल सहेलियों का चयन व पानी पंचायतों का गठन इस क्षेत्र में वेल्ट हन्गर हिल्फे की एक परियोजना के अन्तर्गत हो रहा है जिससे स्थानीय समुदाय विशेषकर कमज़ोर वर्ग व महिलाओं को जल-संरक्षण के कार्यों के लिए आगे आने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. अनेक गांवों में जल सहेलियों ने जल संरक्षण के कार्यों को आगे बढ़ाया है.
बबीना (झांसी ज़िला) ब्लॉक का रसीना गांव ऊंचाई पर स्थित है. यहां 150 फीट तक खोदने पर भी पानी नहीं मिल रहा है. लोग आसपास के निचले क्षेत्र से एक या आधे किमी. की दूरी से पानी लाते हैं. वैसे एक टैंकर भी यहां पहुंच रहा है. यहां की जल समस्या के समाधान के लिए एक टैंक की योजना प्रस्तावित है, पर काम आगे नहीं बढ़ा है.
पास के सिमरिया गांव में बिखरे हुए 400 परिवारों के लिए 25 हैंडपंप हैं, जिनमें से मात्र 6 चल रहे हैं. यहां भी लोगों के पास समाधान के रूप में छोटी स्कीमें हैं, पर ऐसी स्कीमें इस जैसे अनेक गांवों में उपेक्षित पड़ी हैं जबकि सरकार बहुत महंगी ऐसी विशालकाय परियोजनाओं पर संसाधन केंद्रित कर रही है जिनकी उपयोगिता पर कई सवाल उठ चुके हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो कई जन आंदोलन व अभियानों से जुड़े रहे हैं.)