यह बेहद दुख की बात है कि तमाम गांवों में पशुओं की बड़ी संख्या में मौत होने के बावजूद अभी तक उनकी रक्षा के लिए कोई असरदार प्रयास नहीं हुए हैं.
(गर्मी का पारा चढ़ने के साथ बुंदेलखंड के अनेक गांवों में मनुष्यों के लिए ही नहीं पशुओं के लिए भी जल-संकट बहुत विकट हो गया है. इस कारण खेती व दूध उत्पादन से जुड़े गाय, बैल और भैंसें मरने लगी हैं. मरने वाले पशुओं में गाय, बैलों की संख्या अधिक है, भैंसों की संख्या कुछ कम है. जबकि कुछ जंगली पशु-पक्षियों के लिए भी संकट बढ़ रहा है. यह बुंदेलखंड में जल-संकट पर लेख का दूसरा भाग है-)
टीकमगढ़ जिले (मध्य प्रदेश) के जतारा ब्लाक में स्थित गांव मस्तापुर में लगभग 30 व्यक्तियों के समूह में यह सवाल उठाया गया तो निष्कर्ष यह निकला कि पिछले लगभग तीन महीने में 300 से अधिक पशुओं की मृत्यु हो गई है जिनमें से अधिकतर गाय-बैल हैं पर कुछ भैंसे भी हैं.
यहां पानी पंचायत के वरिष्ठ सदस्य अखिलेश जैन ने ज़ोर देना कहा कि मृतक पशुओं की संख्या इससे भी अधिक है. इस स्थिति में मैंने अनेक गांववासियों से पूछ कर कन्फर्म करना उचित समझा. जिनसे भी इस बारे में पूछा उन्होंने अपने एक से तीन पशुओं तक के इन दिनों में मरने की बात कही. इससे लगता है कि हाल फ़िलहाल में लगभग 350 परिवारों के इस गांव में वास्तव में बहुत से पशुओं की मौत हुई है.
गांववासियों ने कहा कि इनमें से अधिकांश मौतों का मुख्य कारण प्यास है क्योंकि इस गांव में पानी का बहुत विकट संकट है. प्यास व पानी का अभाव ही यहां इतनी अधिक संख्या में पशुओं की मौत का मुख्य कारण माना जा रहा है.
इसी ब्लाक में स्थित वनगाय गांव में लगभग दस जानकार व्यक्तियों के समूह ने बताया कि पिछले लगभग तीन महीनों में गांव के लगभग 100 पशु मर चुके हैं व इसका एक मुख्य कारण प्यास व जल अभाव रहा है.
जहां बातचीत हो रही थी वहां सामने गांव के सूखे हुए तालाब में बहुत व्याकुल और कमज़ोर गाएं बहुत बैचेनी से इधर-उधर पानी तलाश रही थीं कि शायद किसी गड्डे में बचा थोड़ा सा पानी कहीं मिल जाए.
जतारा ब्लाक में ही स्थित है कोडिया गांव. यहां के लोगों ने बताया कि पिछले लगभग तीन महीनों में यहां लगभग 50 पशु (मुख्य रूप से गाय-बैल) मर गए हैं व इसका एक मुख्य कारण यहां का जल-संकट है.
यहां के लोगों ने एक अन्य कारण यह बताया कि सूखे तालाबों के आसपास ऐसे दलदल बन जाते हैं जहां पशु आसानी से फंस सकते हैं. सूखे तालाब में थोड़ा सा पानी देखकर प्यासे पशु ख़तरा भूल जाते हैं व पानी की ओर दौड़ते हैं. इस स्थिति में वे दलदल में धंसने लगते हैं व कई बार पूरी तरह धंसकर बहुत दर्दनाक मौत मर जाते हैं.
यहां के आदिवासी युवकों ने बताया कि ऐसे पशुओं को बचाने के उन्होंने कुछ सफल प्रयास किए थे पर इस दौरान वे स्वयं धंसने की स्थिति के पास पहुंच गए. उन्होंने कहा यदि रात के समय कोई पशु दलदल में फंस जाए तो फिर उसका बच पाना कठिन है क्योंकि जब तक लोगों को पता चलता है, उसकी मौत हो चुकी होती है.
पशुओं के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति मध्य प्रदेश से कुछ बेहतर है. इसके बावजूद यहां भी हाल के समय में, तमाम पशुओं की मौतें हो रही हैं. जब हमने तालबेहट ब्लाक (ललितपुर ज़िले) के ग्योरा, गुंदेरा व झबरापुरा सहरिया बस्ती जैसे दूर-दराज के गांवों व पुरवों में इस बारे में पूछताछ की तो तीनों गांवों में हमें यही उत्तर मिला कि हाल के समय में अनेक पशुओं की मौत बढ़ते जल-संकट के कारण हुई हैं.
यहां तक कि झांसी जैसे बड़े शहर से अपेक्षाकृत नज़दीकी पर स्थित सिमरिया गांव (बबीना ब्लाक) में भी इस बारे में पूछने पर समूह में लोगों ने बताया कि गांव में कई पशु हाल के समय में मरे हैं व यहां का जल संकट बहुत विकट है.
यह गहरे दुख की बात है कि अनेक गांवों में पशुओं की मृत्यु बड़ी संख्या में होने के बावजूद अभी तक पशुओं की रक्षा के लिए कोई असरदार प्रयास नहीं हुए हैं. पिछले वर्ष सूखा घोषित होने के कारण सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर चाहे अपर्याप्त ही सही, पर पशुओं की रक्षा के कुछ प्रयास तो अवश्य नज़र आ रहे थे, पर इस वर्ष ऐसे प्रयास बहुत कम हैं व इस कारण सूखे की स्थिति न घोषित हुए भी अनेक पशु मर चुके हैं.
अब तनिक भी और देर किए बिना प्रशासन को पशुओं की रक्षा के प्रयास तेज़ी से बढ़ाने चाहिए. जहां गाय, बैल, भैंस व सभी डेयरी, कृषि व मानव आजीविका से जुड़े सभी पशुओं की रक्षा करना ज़रूरी है, वहां वन्य पशु पक्षियों की रक्षा व उनके लिए जल की उपलब्धि पर भी ध्यान देना ज़रूरी है. इस तरह की समग्र सोच को लेकर ही जल-संरक्षण के कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए.
वर्षा के पहले का यह समय जल संरक्षण के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इस समय बड़े स्तर पर जल-संरक्षण के कार्य असरदार ढंग से किए जाएंगे तो वर्षा के जल का अच्छा संरक्षण हो सकेगा. पर दुख की बात तो यही है कि तमाम दावों के बावजूद जिस स्तर पर जल संरक्षण के कार्यों की ज़रूरत है, आज भी उससे बहुत कम ही नज़र आ रहे हैं. इस संदर्भ में सरकार को अपने प्रयास सुधारने व बढ़ाने की बहुत ज़रूरत है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो कई जन आंदोलन व अभियानों से जुड़े रहे हैं.)