गूगल पर जब आप मुजफ्फरनगर टाइप करते हैं तो सबसे ज्यादा लिंक मुजफ्फरनगर दंगे के सामने आते हैं. जब आप इस शहर में जाते हैं तो ज्यादातर हिंदू-मुसलमान इस दंगे को लेकर अलग-अलग कारणों से दुखी नज़र आते हैं.
मुजफ्फरनगर की गांधी कालोनी में एक मिठाई की दुकान चलाने वाले जाट समुदाय के रिंकू कहते हैं,’ अरे इन चुनावों में दंगों का कोई असर नहीं है. वो हमारी गलती थी लेकिन हम उसे जितना जल्दी भूल जाएं उतना ही अच्छा है. इस दंगे ने हमें दुख के सिवा और कुछ नहीं दिया. अब हमें इस पर ज्यादा बात नहीं करनी हैं.’
थोड़ा और कुरेदने पर वे कहते हैं,’ हम जाट हैं लेकिन अपना परिवार भी पालते हैं. दुकान चलाते हैं पहले तीन कारीगर मुसलमान थे. सस्ते दर पर काम करते हैं पर दंगे के बाद वो चले गए. अब उनकी जगह पर मंहगे दर पर दूसरे कारीगर लाने पड़े लेकिन वह उतने अच्छे नहीं निकले. हमारा मुनाफा कम हो गया. धंधे पर असर पड़ा. अगर दंगा न हुआ होता तो ऐसा नहीं होता.’
गौरतलब है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में करीब ढाई साल पहले हुई एक घटना हिंदू मुसलमान दंगे के रूप में बदल गई थी. मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत, सहारनपुर जैसे जिलों में फैले इस दंगे को सेना लगाकर करीब 20 दिनों में रोक लिया गया था लेकिन इसका असर आज तक महसूस किया जा सकता है.
मेरठ से मुजफ्फरनगर हाइवे पर स्थित वैष्णो ढाबे पर मिले परमिंदर पहलवान ने दंगों की राजनीतिक व्याख्या की. वे कहते हैं,’ ये दंगे पूरी तरह से राजनीतिक थे. पिछले कई चुनावों से भाजपा यहां अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही थी पर जाट-मुस्लिम गठजोड़ के सामने वह टिक नहीं पा रही थी. इन दंगों का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा का हुआ. उसने इस पूरे क्षेत्र में लोगों को हिंदू बनाम मुस्लिम में बांट दिया. हालांकि इस बार ऐसा नहीं होगा. हमें इससे कुछ भी फायदा नहीं हुआ. उल्टे हमारे जिले की छवि खराब हो गई. ‘
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इन जिलों में सबके पास इन दंगों की अपनी कहानियां और अपने दुख हैं. हापुड़ के महमूदपुर गांव के किसान हरेंदर जाट भावुक होकर कहते हैं,’ दंगे के बाद हमसे पूछिए हमने खेती कैसे की है. इस पूरे इलाके में गन्ने की कटाई का ज्यादातर काम मुसलमान करते थे. दंगों के बाद वो इलाका छोड़कर चले गए हैं अब हमसे खेती नहीं हो पा रही है. हमें दूसरे गांवों से ज्यादा नगद पैसे देकर मजदूर लाने पड़ रहे हैं, पहले बात अपने गांव की थी तो मजदूरी हम आराम से देते रहते थे.’
दंगे और उसके बाद पलायन के मसले को लेकर कैराना बहुत चर्चित रहा. हमें वहां मिले जाट नेता रविंदर पंवार से जब हमने इस शहर और उसकी इस पहचान के बारे मेें पूछा तो उन्होंने कहा,’ देखिए हम पूरी तरह से राजनीति के शिकार हुए. हमारे जाट बच्चे खेल-कूद, सिविल सेवा समेत कई क्षेत्रों में अच्छा काम कर रहे हैं लेकिन देखिए जिस उम्र में लड़कों को पढ़-लिखकर अफसर बनना चाहिए, उस उम्र में वह पुलिस थाने और कोर्ट-कचहरी का चक्कर काट रहे हैं. हमें उम्मीद थी कि केंद्र में जब भाजपा की सरकार आएगी तो स्थिति बदलेगी लेकिन कुछ नहीं हुआ. भाजपा ने जाटों समेत दूसरे हिंदु समुदाओं को उनके हाल पर छोड़ दिया. हमारे और हमारे बच्चों के साथ ये धोखा हुआ है.’
दंगे के बाद हुए पलायन में बहुत सारे अल्पसंख्यकों ने शामली में आकर रहना शुरू कर दिया था. ऐसे ही एक कैंप में हमारी मुलाकात नईम से हुई. युवा नईम का कहना था कि एक बार जब हमने गांव छोड़ दिया तो दोबारा लौटकर नहीं गए. अब हमारे पास यहां काम है. रहने लायक जगह भी मिल गई है. पर दंगे की याद दुखी कर देती है. यहां पर सब कुछ होते हुए भी अपने गांव जैसा नहीं लगता है. वो सुकून नहीं मिलता है. यहां पर वोटर कार्ड बन गया लेकिन पता नहीं क्यों वोट देने का मन नहीं करता. इसी वोट ने यह दंगा कराया था.
शामली में हमारी मुलाकात बुज़ुर्ग मुखिया ओमवीर सिंह से होती थी. वे कहते हैं,’ दंगे के बाद से सबसे ज्यादा परेशानी पढ़ने जाने वाली लड़कियों को हुई है. हमें डर लगता है कि हमारी बेटियां ज्यादा दूर पढ़ने न जाए. हालांकि हमें पता है कि अब वैसा दोबारा नहीं होने वाला है लेकिन तब भी हम अपनी बेटियों को उसी रास्ते से भेजते हैं जो हिंदू मोहल्लों से होकर जाता है. भले ही वो थोड़ी दूर पड़े.’
उन्हीं के साथ बैठे महमूद कहते हैं,’ दंगे की मार हमेशा महिलाओं पर ही पड़ती है. दशकों पुराना विश्वास टूटा है. इसे जमने में कुछ दिन लगेगा. मुखिया जी सही कह रहे हैं. सब कुछ सामान्य होते हुए भी आप देखेंगे यहां पर बहुत सारी बच्चियां आपको बुरके में मिल जाएगी. आज के तीन साल पहले इतने बुरके आपको नजर नहीं आते. पर यहां पर अभी अच्छाई यही है कि आपको हिंदू-मुसलमान के साथ-साथ बड़ी संख्या में अच्छे इंसान भी मिल जाएंगे. ये 70 साल का तर्जुबा बोल रहा है.’