विशेष रिपोर्ट: दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद के लिए दो प्रोफेसरों के बीच खींचतान चल रही है. इसकी वजह से विभाग के अध्यक्ष पद की नियुक्ति अब तक नहीं हो सकी है.
नई दिल्ली: दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के हिंदी विभाग के अध्यक्ष का पद इन दिनों विवादों में है. इस पद के लिए दो प्रोफेसर के बीच वरिष्ठता का मामला विवाद की वजह बना हुआ है.
ये प्रोफेसर हैं श्योराज सिंह बेचैन और कैलाश नारायण तिवारी. श्योराज सिंह बेचैन को बीते 13 सितंबर को हिंदी विभागाध्यक्ष का पद औपचारिक रूप से संभालना था लेकिन प्रोफेसर कैलाश नारायण तिवारी ने अपने वरिष्ठता के निर्धारण के लिए डीयू प्रशासन को पत्र लिख भेजा और इस पद के लिए अपनी दावेदारी पेश की.
हालांकि उनके पत्र को खारिज कर दिया गया लेकिन प्रशासन ने अब तक विभागाध्यक्ष को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं की है. नतीजतन, हिंदी विभागाध्यक्ष का पद अब भी खाली पड़ा हुआ है.
आरोप हैं कि प्रोफेसर बेचैन की जाति की वजह से डीयू प्रशासन पर राजनीतिक दबाव है, जिस वजह से बेचैन की नियुक्ति अधर में लटका दी गई है.
क्या है विवाद?
दिल्ली विश्वविद्यालय के नियमों के मुताबिक, हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद का कार्यकाल तीन साल का होता है. तीन साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद अध्यक्ष 12 सितंबर को पद छोड़ देता है और वरिष्ठता के क्रम में सबसे वरिष्ठ प्रोफेसर 13 सितंबर को एचओडी का पद संभाल लेता है.
एचओडी पद ग्रहण करने की यह प्रक्रिया साल दर साल रोटेशन के जरिये ही चलती है. नियमों के अनुरूप इस साल भी ऐसा ही होना था.
इस साल 12 सितंबर को प्रोफेसर मोहन का कार्यकाल समाप्त हुआ और 13 सितंबर को वरिष्ठता के क्रम में सबसे वरिष्ठ प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन को अध्यक्ष पद संभालना था लेकिन उन्हें इसके लिए प्रशासन से कोई पत्र नहीं मिला.
पत्र नहीं मिलने पर कुलपति योगेश त्यागी से जब पूछा गया तो पता चला कि हिंदी विभाग के एक अन्य प्रोफेसर कैलाश नारायण तिवारी ने अपनी वरिष्ठता के निर्धारण के लिए डीयू प्रशासन को पत्र लिखा है, जो विभागाध्यक्ष का पद रिक्त होने से कुछ दिन पहले उन्हें भेजा गया.
हालांकि प्रोफेसर तिवारी की दावेदारी को खारिज किया जा चुका है. वीसी कार्यालय से दावेदारी खारिज होने के बाद प्रोफेसर तिवारी की फाइल डीयू के लीगल सेल से भी खारिज हो चुकी है, इसके बावजूद किसी को भी हिंदी विभाग का अध्यक्ष नहीं चुना गया है.
बेचैन के समर्थक और जाकिर हुसैन कॉलेज में पढ़ाने वाले एडहॉक शिक्षक लक्ष्मण यादव कहते हैं, ‘दरअसल यूजीसी ने 2009 में एक सर्कुलर जारी किया था, जिसके तहत विश्वविद्यालय में कार्यरत रिसर्च साइंटिस्ट को उनके पे-ग्रेड के अनुरूप प्रोफेसरशिप देने को कहा गया.’
वे कहते हैं, ‘कैलाश नाथ तिवारी रिसर्च साइंटिस्ट थे. यह सर्कुलर जरूर 2009 में जारी हुआ था लेकिन डीयू प्रशासन ने प्रोफेसर तिवारी को अक्टूबर 2010 से प्रोफेसर के तौर पर मान्यता दी. इस तरह अक्टूबर 2010 से वह प्रोफेसर हैं, लेकिन प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन की डीयू में नियुक्ति फरवरी 2010 में हुई थी. प्रोफेसर तिवारी बेशक डीयू में 2008 से थे लेकिन वे रिसर्च साइंटिस्ट के पद पर थे. इस तरह बेचैन वरिष्ठ हुए और डीयू प्रशासन ऐसा उन्हें बता चुका है.’
वरिष्ठता का मामला जाति से कैसे जुड़ा
दरअसल, श्योराज सिंह बेचैन दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, इसलिए आरोप लगाए जा रहे हैं कि राजनीतिक दबाव की वजह से किसी दलित प्रोफेसर को विभाग का अध्यक्ष बनने से रोका जा रहा है. बेचैन के समर्थकों का कहना है कि बेचैन की जाति की वजह से उनकी नियुक्ति को जान-बूझकर लटकाया जा रहा है.
लक्ष्मण यादव कहते हैं, ‘हिंदी विभाग के अब तक 20 एचओडी रह चुके हैं लेकिन ये सभी एक ही जाति के हैं. इसमें एक भी दलित, पिछड़ा, आदिवासी या अल्पसंख्यक नहीं है. महिलाएं भी सिर्फ दो हैं. मेरा सवाल यह है कि क्या 72 साल के इतिहास में कोई दलित प्रोफेसर हिंदी विभाग का अध्यक्ष बनने की योग्यता नहीं रख पाया?’
वे कहते हैं, ‘कुलपति दफ्तर और लीगल सेल तिवारी के पत्र को खारिज कर चुके हैं तो ऐसे में कुलपति को स्पष्टीकरण देना चाहिए. न्याय मिलने में देरी अन्याय ही तो है. अगर आप उचित समय पर फैसला नहीं ले रहे हैं तो इसका मतलब है कि आप कोई साजिश रच रहे हैं. बीते तीन-चार सप्ताह से विभाग ठप पड़ा है. एमफिल, पीएचडी के दाखिले नहीं हो रहे हैं. छात्रों के नेट और जेआरएफ लैप्स हो गए हैं. पूरा अकादमिक काम ठप पड़ा है.’
लक्ष्मण कहते हैं, ‘हमारा डीयू प्रशासन से सीधा सा प्रश्न है कि हिंदी विभाग के 70 साल के इतिहास में आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी प्रोफेसर को एचओडी के पद के लिए इतना लटकाकर रखा जाए. तीन सप्ताह से अधिक होने के बाद भी डीयू ने मामले को लटकाकर रखा है.’
उन्होंने दावा किया, ‘सूत्रों से पता चला है कि कुलपति कह रहे हैं कि हमारे ऊपर राजनीतिक दबाव बनाया जा रहा है कि आप इस मामले पर कोई फैसला नहीं लें और डीयू के संविधान के ऑर्डिनेंस-3 के तहत फैसला लें, जिसके आधार पर वीसी के पास यह शक्ति है कि वह नियमों को दरकिनार कर जो भी फैसला लेंगे, उसे सही माना जाएगा.’
डीयू के राजनीतिक विभाग के प्रोफेसर एन. सुकुमार कहते हैं कि विश्वविद्यालय प्रशासन के पास ऐसी कोई सूची नहीं है, जिससे प्रोफेसर की वरिष्ठता का पता लगाया जा सके. अगर होती तो यह विवाद ही नहीं होता.
सुकुमार कहते हैं, ‘1922 में स्थापित दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना 1952 में हुई लेकिन अब तक कोई दलित प्रोफेसर विभागाध्यक्ष नहीं बना है. अगर कोई दलित एचओडी बनने के योग्य होता है तो प्रशासन डिस्क्रिशनरी (विशेषाधिकार) मामलों का हवाला दे देता है. डीयू प्रशासन, एमएचआरडी मंत्रालय और संघी सरकार को शर्म आनी चाहिए कि वे सामाजिक न्याय की बात करते हैं, लेकिन यूनिवर्सिटी में 10 से ज्यादा एससी-एसटी प्रोफेसर नहीं हैं.’
वे कहते हैं, ‘दलित आगे बढ़ता है तो उसे रोकने के लिए नए-नए नियम-कानून सामने आ जाते हैं. डीयू प्रशासन से सवाल पूछा जाना चाहिए की फैसला लेने वाली समितियों में उच्च समितियों में कितने एससी-एसटी प्रोफेसर हैं.’
सुकुमार के अनुसार, ‘मैं खुद दलित समुदाय से ताल्लुक रखता हूं. पिछले दो महीने में मुझे 20 कॉलेजों से फोन आए हैं और सब एक ही बात कहते हैं कि मुझे एससी, एसटी और ओबीसी ऑब्जर्वर के तौर पर नियुक्त करना चाहते हैं. इससे आगे हमारे लिए कभी सोचा नहीं जाता. क्यों? क्या हमारे पास मैरिट नहीं है?’
वह आगे कहते हैं, ‘हिंदी विभाग दूर की बात हैं, डीयू प्रशासन के पास प्रोफेसर की वरिष्ठता के आधार पर कोई सूची ही नहीं है.’
दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) की पूर्व अध्यक्ष नंदिता नारायण कहती हैं, ‘हमारे समाज में समानता कहीं नहीं है. मैं इसे सीधे तौर पर डीयू प्रशासन की गलती मानती हूं कि वह मामले को लटकाकर क्यों रख रहा है. अगर कैलाश नारायण तिवारी के पत्र को खारिज कर दिया गया है तो फिर तो मामला ही खत्म हो गया, फिर बेचैन जी को क्यों लटकाकर रखा है. यह एक तरह से दलित विरोधी कदम ही है.’
इस पूरे मामले पर प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन का कहना है, ‘मैं पिछले लगभग चार साल से विभागाध्यक्ष की गैरहाजिरी में कार्यवाहक विभागाध्यक्ष की भूमिका निभा रहा हूं. डीन की गैरहाजिरी में भी उस पद की जिम्मेदारी मेरी रहती है. अगर मैं भविष्य का विभागाध्यक्ष नहीं था तो ये जिम्मेदारी मुझे क्यों दी जाती थी.’
प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन बीते लगभग तीन दशकों से पढ़ा रहे हैं. अकादमिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ वह साहित्य से भी जुड़े हुए हैं. अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं. कई किताबें भी लिख चुके हैं. उनकी आत्मकथा का अंग्रेज़ी में भी अनुवाद हुआ है. उन पर कई शोध हो चुके हैं. उन्हें हिंदी साहित्य पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है.
डीयू प्रशासन के इस कदम को दलित विरोधी बताते हुए सात अक्टूबर को श्योराज सिंह बेचैन के समर्थन में डीयू के नॉर्थ कैंपस में न्याय मार्च (मार्च फॉर जस्टिस) निकाला गया था, जिसमें शिक्षकों, छात्रों, कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया और डीयू प्रशासन के इस कदम की निंदा की.
कैलाश नारायण तिवारी का पक्ष
प्रोफेसर कैलाश नारायण तिवारी साल 2008 में दिल्ली विश्वविद्यालय में बतौर रिसर्च साइंटिस्ट जुड़े थे. 2009 में यूजीसी ने एक सर्कुलर जारी किया था, जिसके अनुसार रिसर्च साइंटिस्ट बतौर प्रोफेसर काम करेंगे लेकिन डीयू ने उन्हें अक्टूबर 2010 में बतौर प्रोफेसर जॉइन कराया.
प्रोफेसर तिवारी कहते हैं, ‘हां, मैंने वीसी को एक पत्र लिखा था, मुझे नहीं पता था कि मेरे एक पत्र से इतना बड़ा आंदोलन खड़ा हो जाएगा. मैंने पत्र में सिर्फ इतना लिखा था कि डीयू प्रशासन मेरी वरिष्ठता का निर्धारण करें. मैंने अपनी वरिष्ठता को लेकर वीसी से जानकारी मांगी थी.’
वे कहते हैं, ‘मुझ पर बेतुके आरोप लगाए जा रहे हैं. राजनीतिक दबाव बनाने का जो आरोप लगाया है, उसके तथ्य कहां हैं. प्रमाण दीजिए. सूत्रों के हवाले से बताया जा रहा है कि राजनीतिक दबाव बनाया जा रहा है, तो सूत्र बताइए.’
प्रो. तिवारी का कहना है, ‘मैंने अपनी वरिष्ठता की जानकारी मांगी है कि विश्वविद्यालय तय करे कि वरिष्ठ कौन है. हम तो अपना अधिकार मांग रहे हैं, अधिकार जान रहे हैं. प्रशासन को जवाब देना चाहिए. मुझे कुछ दुविधा थी, मैने वीसी को पत्र लिखा, अब वीसी को फैसला लेना है.’
वे कहते हैं, ‘मेरी यह मांग नहीं है कि मैं बड़ा हूं या छोटा हूं. डीयू में सारी शक्ति वीसी के हाथों में है. प्रशासन के फैसले का इंतजार करें. इस छोटे से मसले को दलित शोषण के रूप में फैलाया जा रहा है.’
उन्होंने कहा, ‘मैं इस मुद्दे को दलित विरोधी बनाए जाने को लेकर दुखी हूं. एक व्यक्ति बिल्कुल चुप है जबकि दूसरा समूह पूरा आंदोलन चला रहा है. 13 तारीख को प्रोफेसर बेचैन को पत्र क्यों नहीं मिला, इसका विश्वविद्यालय को जवाब देना है, मुझे नहीं.’
मामले में पूर्व विभागाध्यक्ष प्रोफेसर मोहन की भूमिका
डीयू के हिंदी विभाग के अध्यक्ष का पद तीन साल तक संभाल चुके प्रोफेसर मोहन का कार्यकाल 12 सितंबर को समाप्त हो गया था, लेकिन मामले का समाधान निकलने तक डीयू प्रशासन ने उन्हें इस पद पर बने रहने को कहा है.
दरअसल इस पूरे मामले में एक पक्ष प्रोफेसर मोहन की भूमिका पर भी सवाल खड़े कर रहा है लेकिन प्रोफेसर मोहन ने इस संबंध में कुलपति को पत्र लिखा था अब उनका कार्यकाल खत्म हो गया है.
हिंदी विभाग के अध्यक्ष का निर्धारण करने का अधिकार पूरी तरह से कुलपति के पास है.
सूत्रों के मुताबिक, प्रोफेसर मोहन ने 12 सितंबर से एक दिन पहले प्रोफेसर श्योराज सिंह बेचैन को कुलपति से मिलवाया भी था कि लेकिन वीसी कार्यालय ने अब तक इस पर कोई फैसला नहीं लिया है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में 2010 में कुल तीन लोगों की नियुक्तियां हुई थीं, जिसमें प्रोफेसर प्रेम सिंह, श्योराज सिंह बेचैन और प्रोफेसर अपूर्वानंद थे. प्रोफेसर प्रेम सिंह रिटायर हो गई हैं.