मोदी सरकार लोकतंत्र के जिन प्रतीकों को संजोने का दावा करती है, वह उन्हें ख़त्म कर चुकी है.
इन दिनों संघ परिवार जश्न मनाने के मूड में हैं और मौका है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले सौ दिनों की उपलब्धियों का जायज़ा लेने का. अपनी जानी-पहचानी निर्णायक प्रवृत्ति के साथ परिवार संतुष्ट है कि मोदी ने भारत को महानता के रास्ते पर ठोस तरीके से ला खड़ा किया है.
और अपनी उपलब्धियों के बारे में बोल तो प्रधानमंत्री भी रहे हैं. उन्होंने नासिक में हुए महाजनादेश रैली में कहा, ‘पहले सौ दिनों में ही हमने एक साफ तस्वीर दिखा दी है कि अगले पांच सालों में क्या होने वाला है.’
उन्होंने कश्मीर समस्या ‘हल’ कर दी है, असम से गैरकानूनी प्रवासियों से निजात पाने का इंतजाम कर दिया है और बाकी भारत को भी ‘इन दीमकों’ से ‘छुटकारे’ का काम शुरू किया जाना है. और 2025 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाएंगे.
पर हकीकत ये है कि ये सौ दिन विनाशकारी रहे हैं. महान देश बनाना तो दूर की बात है, अगर हाल में ली गई सरकारी नीतियां अगर बहुत जल्द बदली नहीं गईं, तो बहुत सारी उठापटक, दमन, बगावत के साथ-साथ भारत देश के ही बिखर जाने का खतरा है.
इस हालात के पीछे अनुच्छेद 370 को कमजोर करने, जम्मू-कश्मीर के राज्य के दर्जे को खत्म करने, असम में नागरिकों का राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) बनाना, प्रवर्तन एजेंसियों, पुलिस और लचर न्यायपालिका का सोचा-समझा दुरुपयोग एक ऐसा ताना-बाना बुन रहे हैं, जिससे देश में विपक्ष का मौजूदा और संभावित फोकस ही खत्म हो जाए.
कहने और करने में सबसे ज्यादा फर्क कश्मीर की नीति में सबसे ज्यादा दिखलाई पड़ रहा है. मोदी ने नासिक वाली रैली में दावा किया, ‘हमने वादा किया था कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख को प्रभावित करने वाले मुद्दों को सुलझाने के लिए हम नए प्रयास करेंगे… हमें अब फिर से वहां स्वर्ग बनाना है… मुझे ये कहने में खुशी है कि देश इन सपनों को साकार करने की तरफ अग्रसर है.’
उन्होंने यह तब कहा जब अमित शाह कश्मीर में बंद को 25 दिन और जारी रखने का ऐलान कर रहे थे और डल झील के बगल में अमन के दिनों में बने एयर इंडिया के सेन्टॉर होटल को अस्थायी जेल बनाकर वहां कश्मीर के लगभग पूरे नेतृत्व को बंद कर दिया गया था.
कश्मीर को फिर स्वर्ग में बदलने के लिए अक्टूबर में होने वाला निवेशक सम्मेलन उसी समय अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया था क्योंकि कोई उसमें हिस्सा लेने को तैयार ही नहीं था. तो प्रधानमंत्री जी, आप कैसे हर कश्मीरी को ‘गले लगाने’ और कश्मीर को ‘इस जमीन के उस स्वर्ग में बदलने वाले थे, जो वह कभी हुआ करता था?
क्या ऐसा कश्मीरियों की ज़बान बंद कर, उनकी बातचीत और मिलने-जुलने की सहूलियत छीनकर और उन्हें मवेशियों की तरह हांककर किया जा सकता था? मानता हूं, ये थोड़ा तल्ख लहज़ा है, पर कोई और विवरण उस कार्रवाई पर फिट ही नहीं होता, जो सरकार ने घाटी में कश्मीरियों के साथ की है.
आनुवांशिक तौर पर प्राणी जगत में हमारे सबसे करीबी बंधु चिम्पैंजी हैं. उन्हीं की तरह हम भी समुदायों में मेलजोल के साथ रहते हैं और उन्हीं की तरह हम अपना होना आपस में बेरोकटोक बातचीत करते हुए दर्शाते हैं. कश्मीरियों से ये मूलभूत अधिकार मोदी सरकार ने छीन लिया और ऐसा करके उन्हें उनकी मनुष्यता से वंचित भी किया.
और ये एक ऐसी बात है, जो किसी भी और मानव समुदाय की तरह, कोई भी कश्मीरी न लंबे समय के लिए बर्दाश्त करेगा, न भूल सकेगा. भारत में कश्मीर को लेकर बहस इस विवाद में उलझाकर पटरी से उतार दी गई कि कश्मीरियों की आज़ादी किस हद तक छीनी गई है.
इससे सरकार ने मीडिया में अपने पक्ष में दुनिया भर की बातों से पाट दिया और जो जहां भी उससे असहमत हुआ, उन्हें पहले तो राष्ट्रविरोधी कहा गया और फिर आश्चर्यजनक तौर पर पाकिस्तान समर्थक भी.
मानवाधिकार संगठन इस बीच लगातार खाली स्कूलों, बंद दुकानों, रात-बिरात लोगों के घरों में छापों, नौजवान और किशोर लड़कों की गिरफ्तारियों, युवा वर्ग में मानसिक तनाव बढ़ने के मामलों और बीमार लोगों को जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं न मिल पाने के बीसियों सबूत पेश करते रहे हैं.
ये सब जितना भी खौफनाक हो, कश्मीरियों से इंसान होने का दर्जा ही छीन लेने के सामने बौना है. ऐसा करके मोदी ने वह बुनियादी तार ही काट दिया, जो कश्मीर को भारत से जोड़कर रखता है. उनकी और हमारी इंसानियत का.
उनकी सरकार इसी गफलत में अगर लगी रही तो जाहिर है ऐसा करने में वह कामयाब हो जाएगी, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. और वह है हर कश्मीरी को भारत से अलग होने के निश्चय को और पक्का और संगठित करना, भले ही इसकी जो भी कीमत हो, और इसमें जितना भी वक्त लगे.
सरकार का दूसरा नीतिगत प्रयास ये भी है कि देश को ऐसी हालात की तरफ ले जाए, जिससे निपटा ही न जा सके. और वह है भारत से सारे ग़ैरकानूनी प्रवासियों को बाहर करने का निश्चय.
कोई ये नहीं कह सकता कि सरकार को दूसरे देशों से आए अवैध प्रवासियों की तरफ से आंख बंद कर लेनी चाहिए. साथ ही, कोई इस बात से भी इनकार नहीं कर सकता कि पिछले 70 सालों में असम में बाहर से बहुत से प्रवासी आए हैं, न सिर्फ बांग्लादेश से, बल्कि बंगाल और नेपाल से भी.
विस्फोटक स्थिति बनते तक कांग्रेस की सरकारें भी हाथ पर हाथ धरे लंबे समय तक बैठी रहीं. तब कहीं जाकर राजीव गांधी की समझदार पहल से उसके बेकाबू होने से रोका जा सका. पर जिस समस्या से सारी सरकारी जूझती रही हैं, उसका समाधान एनआरसी से नहीं निकाला जा सकता.
और वह समस्या है कि आप उन प्रवासियों के साथ क्या करेंगे, जो आपके देश में काफी पहले आए और अपनी जिंदगियां बना और दुनिया बसा चुके हैं.
अमेरिका में एक के बाद एक सरकारों ने उन्हें शर्तों के साथ कानूनी मान्यता दी, वर्तमान राष्ट्रपति ट्रम्प के आने तक, किसी ने ये नहीं सोचा कि अमेरिका में पैदा हुए प्रवासियों के बच्चों को शिक्षा और रोजगार के उन अधिकारों से वंचित कर दिया जाए, जो बाकी अमेरिकियों के होते हैं.
इस समस्या का निदान इंदिरा गांधी ने 1983 में अवैध प्रवासी पहचान कानून लाकर की थी. इससे कानून में एक बड़ी अड़चन को ठीक किया गया था. इसके मुताबिक नागरिकता के सबूत की जिम्मेदारी आरोपी की नहीं बल्कि आरोप लगाने वाले पर थी.
इसके जरिए इस श्रेणी के प्रवासियों को परेशान करने पर भी कई तरह की रोक लगाई गई थी, जैसे आरोप लगाने के लिए जरूरी था कि आरोप लगाने वाला आरोपी से तीन किलोमीटर के दायरे में हो और आरोपी अपने कानूनी होने का सबूत राशन कार्ड दिखाकर दे सकता था.
ये कानून सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में जिस अपील पर रद्द किया, उसे और किसी ने नहीं बल्कि असम के वर्तमान मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने दाखिल किया थी. उसी के अगले साल कोर्ट ने 1951 में पहली बार बनाए गए एनआरसी को अपडेट करने का हुक्म भी सुना दिया.
इस हथियार से लैस होकर मोदी सरकार ने असम में एनआरसी को अपडेट करना शुरू किया. और जो तरीका अपनाया गया, वह विध्वंसक था. 1983 के कानून को खत्म करने के बाद बांग्लादेश के बनने के वक्त वहां से आए लोगों को रोकने के लिए सरकार ने विभाजन से पहले अंग्रेजों द्वारा 1946 में बनाए गए फॉरेनर्स एक्ट का सहारा लिया था.
इस कानून में अपनी नागरिकता सिद्ध करने की जिम्मेदारी आरोपी की थी. नतीजतन असम के 3.3 करोड़ लोगों को एक या ज्यादा कागजात पेश करके ये साबित करना था कि वे राज्य के गैरकानूनी बाशिंदे नहीं हैं. राज्य की लगभग आधी आबादी पर इसकी तलवार लटकी.
असम में एनआरसी का पहला ड्राफ्ट 2014 में आया. उसमें 3.2 करोड़ आबादी में से 1.3 करोड़ (पांच में से दो लोग) इस सूची में नहीं थे. इन 1.3 करोड़ लोगों के लिए पिछले चार साल तनाव और तकलीफ से भरे रहे.
उन कागज के टुकड़ों की तलाश करते हुए जो गुम या खराब हो गए, सरकारी दफ्तरों में दौड़ भाग चिरौरी करते हुए, समय और पैसा खर्च करते हुए और बेचैन-परेशान होते हुए. आखिरी रजिस्टर इस तादाद को 40 लाख तक लेकर आया यानी असम का हर आठवां शख्स बाहरी है.
पिछले साल अपीलों की सुनवाई के बाद ये संख्या 19 लाख पर खिसकी. इस पूरी प्रक्रिया में असम के लोग, खासतौर पर गरीब जिस तनाव से गुजरे हैं, उसके बारे में सोच पाना भी मुश्किल है. रजिस्टर में नाम न आने पर दर्जन से ज्यादा लोगों ने खुदकुशी की और बहुत से लोग तनाव से ग्रस्त हैं.
इतने लोगों की भारत से बाहर करना तब नामुमकिन लगने लगा जब बांग्लादेश ने उन्हें वापस लेने से साफ मना कर दिया. ऐसे में किसी भी जिम्मेदार सरकार शायद एक बार सोचती कि क्या नागरिकता सुनिश्चित करने वाले कानून पर पुनर्विचार किया जा सकता है, ताकि ये पूरी कार्रवाई व्यावहारिक और न्यायसंगत दोनों हो सके.
पर मोदी सरकार का रवैया ठीक उलट रहा. बजाय 1983 के कानून को थोड़ा अदल बदल के वापस लाने के, भारत के नये गृह मंत्री अमित शाह ने एनआरसी को पूरे भारत में ही लागू करने का फैसला कर लिया और साथ ही देश के सारे कलेक्टरों को ये फरमान भी जारी कर दिया कि भविष्य में डिटेंशन सेंटर बनाने की जगह ढूंढनी शुरू कर दी जाए.
एक खतरनाक खेल शुरू कर दिया गया है. अभी तो सिर्फ असम में एनआरसी का इस्तेमाल उसकी मुस्लिम आबादी में से कुछ से छुटकारा पाने के लिए होना था, दूसरे राज्यों में बाहरी लोगों और जातीय अल्पसंख्यकों के लिए शिकायतों की कमी नहीं.
शाह साहब क्या करेंगे जब कन्नड़ लोग एनआरसी के जरिए बेंगलुरु में आईटी, बीपीओ और दूसरे उद्योगों में काम कर रहे पूर्वोत्तर के लोगों को बाहर करने की मांग रखेंगे? क्या करेंगे जब शिवसेना कहेगी मुंबई से उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को बाहर करो?
बीसवीं सदी में यूरोप के आत्म विध्वंस का इतिहास न जानने वाले ही ऐसा सोच सकते हैं कि एक बार शुरू कर देने के बाद जातीय छंटाई जब चाहे रोकी जा सकती है. सरकारी नीति के ये दो पहलू ही काफी हैरतअंगेज हैं, पर जब उनके साथ तीसरे को जोड़ते हैं, तो उससे इतना विस्फोटक मिक्स बनता है, जो देश को तोड़ने के लिए काफी है.
और ये है मोदी सरकार की कानून-व्यवस्था और बुनियादी नागरिक अधिकारों के प्रति खुला अपमान. 2014 में सत्ता मिलने के पहले दिन से ही मोदी एक सोचे-समझे तरीके से लोकतंत्र के सभी संस्थानों को कमजोर करते रहे हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, ताकि संघ परिवार से असहमत रहने और उनका विरोध करने वालों को तबाह किया जा सके.
इस मामले में ये मिस्र में मोहम्मद मोर्सी और मुस्लिम ब्रदरहुड से बिल्कुल भी अलग नहीं, जिन्हें बाद में फौजी बगावत के जरिये हटाकर अब्दुल फतह सिसी को सत्ता में लाया गया था. भारतीय लोकतंत्र की कमजोर कड़ी को भुनाने के लिए सरकारी रणनीति का एक पक्ष रहा- भ्रष्टाचार की आड़ में राजनीतिक प्रतिपक्ष पर हमला करना.
ऐसा उन्होंने अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के खिलाफ किया, पर कामयाबी नहीं मिली. पर जब यही बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और असम में कांग्रेस के खिलाफ किया तो थोड़ी कामयाबी मिली, जहां कार्रवाई की धमकी और धौंस की वजह से विपक्ष के मुख्य नेताओं को भाजपा ने अपनी पार्टी में शामिल करवाया.
आप सरकार को प्रभावहीन करने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट के सिंगल बेंच जज से दिल्ली का विशेष दर्जा हटवा (और पुदुचेरी को दिलवा) दिया गया. इसके मुताबिक दिल्ली निर्वाचित सरकार के साथ केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा रखती थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलटा, पर तीन साल लगे.
मोदी सरकार के पहले पांच सालों में सीबीआई की सीमित, पर ठीकठाक स्वतंत्रता भी छीन ली गई. इस स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई डायरेक्टर की नियुक्ति को दो साल न्यूनतम कार्यकाल दिया था और इस पद से तबादला तब तक नहीं हो सकता था जब तक केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के साथ बनी विशेष समिति इजाज़त न दे.
डॉ. मनमोहन सिंह ने इस स्वतंत्रता को और मजबूत करने के लिए ये शक्ति प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश की समिति को दी थी. मोदी ने इन दोनों सावधानियों को धता बताते हुए ये अधिकार कैबिनेट यानी खुद को दे दिए.
इसी के साथ पहले सौ दिनों में मोदी ने दूसरे कार्यकाल में सूचना के अधिकार को कमजोर किया. केंद्रीय सूचना आयुक्त की वैधानिक स्वतंत्रता संसद में पारित विधेयक के जरिये खत्म कर दी गई और सरकार की आलोचना करने पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दायर करने का कानून पास कर दिया.
गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून (यूएपीए) को संशोधित करते हुए सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को ये अधिकार भी दे दिया कि किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी होने के शक में दो साल तक कैद में रखा जा सकता है. पहले ये अधिकार एनआईए की वरिष्ठ अफसरों के पास थे, अब ये इंस्पेक्टर और उनसे ऊपर के दर्जे वालों को दे दिए गए हैं.
पुलिस को मिले गिरफ्तारियों और हिरासत का अधिकार, न्याय व्यवस्था में विलंब, छोटी अदालत के जजों द्वारा आरोपियों को सरकारी इच्छा के मुताबिक लंबी मियाद के लिए हिरासत में भेजना, प्रमुख विपक्षी नेताओं को अदालतों तक घसीटना, मेहरबान जजों से उनकी अग्रिम जमानत नामंजूर करवाने, उनकी संपत्ति जब्त करने और महीनों उन्हें जेल में रखना- जैसे कामों में ये सरकार अपनी व्यापक शक्तियों का इस्तेमाल करती रही है और ये सब उस इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सामने, जो बिना परवाह के 100 करोड़ लोगों को बिना सवाल किए ये दिखाती रहती है.
हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण- आरोप सिद्ध होते तक आजादी का अधिकार) जो लोकतंत्र में किसी भी नागरिक का सबसे बुनियादी अधिकार होता है कमजोर किया जा चुका है. अब वह महज कागज पर है. इसके पीछे कानून की रक्षा नहीं है, बल्कि उन तमाम लोगों को शर्मिंदा और बेइज्जत करने, संदिग्ध बनाने और डराने की है, जो हिंदुत्व के रास्ते में अड़चन बन रहे हैं.
सरकार को अच्छे से पता है कि इनमें से ज्यादातर मामले अदालतों में टिक नहीं पाएंगे, क्योंकि इस तरह के आपराधिक मामलों में आधा प्रतिशत आरोप भी सिद्ध नहीं हो पाते.
इस तरह के बीसियों में से तीन मामले ये दर्शाने के लिए काफी हैं. 2013 में तहलका के संस्थापक संपादक तरुण तेजपाल पर यौन शोषण, बलात्कार के प्रयास और इससे अन्य संबंधित आरोप लगाए गए थे, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलते तक सात माह जेल में काटने पड़े.
भाजपा के लिए तेजपाल का अपराध ये भी था कि उनके रिपोर्टरों ने अहमदाबाद में 2002 के नरोदा पाटिया दंगों में हिस्सा लेने वाले बजरंग दल के हत्यारों का वीडियो स्टिंग किया था, जिसके कारण उन पर आरोप सिद्ध हुए और सजा हुई.
तेजपाल के उलट, एनडीटीवी के संस्थापक- मालिक प्रणय और राधिका रॉय मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में तीन साल से ज्यादा समय से जमानत पर हैं, उनकी संपत्ति ईडी द्वारा जब्त की गई है, जबकि मेहरबान जजों से 21 बार पेशी टलवाने के बाद भी सरकारी वकील अभी तक सबूत पेश नहीं कर पाए हैं.
और अंत में सबसे आक्रामक ढंग से पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम को बहुत ही सतही आधार के मनी लॉन्ड्रिंग के आरोपों में गिरफ्तार किया गया, अग्रिम जमानत नहीं दी गई और दिल्ली हाईकोर्ट के जज सुनील गौड़ ने अपने रिटायरमेंट से दो रोज पहले उन्हें तिहाड़ जेल भिजवा दिया.
रिटायरमेंट के पांच दिन बाद ही मोदी सरकार ने गौड़ को मनी लॉन्ड्रिंग निरोधक ट्रिब्यूनल के चेयरमैन बना दिए गए. ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा था.
2014 में संवैधानिक परंपरा को तोड़ते हुए मोदी ने रिटायर हो रहे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी. सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बना दिया था. इसके तीन साल बाद अहमदाबाद दंगों में मोदी को क्लीन चिट देने वाले स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम के अध्यक्ष आरके राघवन को पद छोड़ने के कुछ हफ्ते बाद ही साइप्रस में भारत का राजदूत बनाया था.
छोटी अदालतों में कांग्रेस और उसके अखबार नेशनल हेराल्ड के खिलाफ फैसले सुनाने का जस्टिस गौड़ का रिकॉर्ड रहा है, जिसके बाद उन्हें हाईकोर्ट का जज बनाया गया, जिन्हें चिदंबरम की जमानत याचिका पर सुनवाई करनी थी. चिदंबरम अब डेढ़ महीने से ज्यादा से तिहाड़ जेल में बंद हैं.
इस बात के इस रोशनी में देखिए कि अभी तक तथाकथित गोरक्षकों द्वारा मुस्लिमों को मौत के घाट उतारने की 72 वारदातों में न तो कोई मुकदमा शुरू हुआ है, न ही कोई आरोप सिद्ध.
विपिन, जिसने पहलू खान की हत्या का इकबालिया बयान दिया था, उन कइयों में से एक हैं, जिन्हें पुलिस के जानबूझकर महत्वपूर्ण सबूत पेश न करने के चलते बरी किया गया. समझौता एक्सप्रेस बम ब्लास्ट मामले में अभियुक्त रहे ‘अभिनव भारत’ संगठन के सारे सदस्य इसी कारण से बरी कर दिए गए. इससे साफ लगता है मोदी के भारत में कानून और इंसाफ की कोई अहमियत नहीं है.
मुमकिन है, भारतीय जनता पार्टी का भारत को एक अराजक देश बनाने में कोई सीधा हाथ न हो, पर इस बात पर कोई शक नहीं कर सकता कि जिस तरह से उसने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाया है, जिस तरह से मोदी ने उस विचारधारा के नाम पर किए गए अपराधों को गलत बताने या निंदा करने से ही इनकार कर दिया है, उससे भारत आज एक दमनकारी और अराजक देश में तब्दील हो चुका है.
इतिहास, खासतौर पर बीसवीं सदी का, यह दिखलाता रहा है कि वे देश जो कानून व्यवस्था, मनुष्यता और न्याय की तरफ से मुंह फेर लेते हैं, बहुत ज्यादा चल नहीं पाते. कुछ- जैसे जर्मनी खुद को वलहला की तरह जंग और तबाही की चिता में आत्मदाह करते हैं, दूसरे बगावत के शिकार होते हैं और तीसरे- जैसे सोवियत संघ टूट कर बिखर जाते हैं.
भारत के पास फिर भी एक चौथा विकल्प होगा- लोकतंत्र की पुनर्प्रतिष्ठा. पर उसके लिए भाजपा को पहले ये समझना पड़ेगा कि विपक्ष को कुचलने की उसकी नीति न सिर्फ नुकसान न पंहुचाएगी, बल्कि उस देश को बर्बाद भी करेगी, जिसे वह प्यार करने का दावा करते हैं.
(प्रेमशंकर झा वरिष्ठ पत्रकार हैं.)
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