देश में बीते छह साल में पहली बार 90 लाख नौकरियां घटींः रिपोर्ट

इस रिपोर्ट को अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट की तरफ से प्रकाशित किया गया है. आज़ाद भारत में पहली बार नौकरियों में इस तरह की गिरावट दर्ज हुई है.

Jammu: Special Police Officers (SPO) applicants stand in a queue to submit their forms at Police line, in Jammu, Thursday, Sept 20, 2018. (PTI Photo)(PTI9_20_2018_000028B)
(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

इस रिपोर्ट को अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट की तरफ से प्रकाशित किया गया है. आज़ाद भारत में पहली बार नौकरियों में इस तरह की गिरावट दर्ज हुई है.

Jammu: Special Police Officers (SPO) applicants stand in a queue to submit their forms at Police line, in Jammu, Thursday, Sept 20, 2018. (PTI Photo)(PTI9_20_2018_000028B)
(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्लीः देश में 2011-2012 और 2017-2018 के बीच नौकरियां घटी हैं. पिछले छह साल के दौरान 90 लाख नौकरियां घटी हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, इस रिपोर्ट को अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर ऑफ सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट की तरफ से प्रकाशित किया गया है. इसे संतोष मेहरोत्रा और जेके परिदा ने तैयार किया है.

आजाद भारत में पहली बार नौकरियों में इस तरह की गिरावट दर्ज हुई है.

मेहरोत्रा और परिदा के मुताबिक, 2011-2012 से 2017-2018 के दौरान कुल रोजगार में 90 लाख की कमी आई है. ऐसा आजाद भारत में पहली बार हुआ है.

कृषि सेक्टर में 2011-2012 से 2017-2018 के दौरान कुल रोजगार दर घटी है. इस दौरान यह प्रतिवर्ष 45 लाख  यानी लगभग 2.7 करोड़ रही. कृषि और संबद्ध सेक्टर में रोजगार दर 49 फीसदी से घटकर लगभग 44 फीसदी रही.

श्रम प्रधान मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार में 35 लाख की गिरावट दर्ज की गई. मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार दर 12.6 फीसदी से घटकर 12.1 फीसदी रहा. वास्तव में भारत के इतिहास में पहली बार मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नौकरियां घटी हैं. यह सिर्फ विकास दर में गिरावट नहीं है बल्कि पूर्ण आंकड़ों में भी गिरावट है.

संतोष मेहरोत्रा और जेके परिदा का कहना है कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार में गिरावट केंद्र सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के विपरीत है.

इसी तरह विनिर्माण संंबधी क्षेत्र में रोजगार घटा है. नॉन मैन्युफैक्चरिंग (अधिकतर निर्माण) सेक्टर में 2004-2005 से 2011-2012 तक हर साल लगभग 40 लाख रोजगारों का सृजन हुआ लेकिन इस सेक्टर में 2011-2012 से 2017-2018 तक प्रतिवर्ष लगभग छह लाख रोजगार ही सृजित हो पाया.

जिस सेक्टर में लगातार रोजगारों का सृजन हुआ है, वह सर्विस सेक्टर है, जहां प्रतिवर्ष 30 लाख रोजगारों का सृजन हुआ है. 2011-2012 से 2017-2018 के दौरान इस सेक्टर में नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या में 1.73 करोड़ की वृद्धि हुई है. हालांकि, इस सेक्टर में रोजगार की गुणवत्ता अधिकतर खराब ही रही है.

मेहरोत्रा ने द वायर को बताया कि लेबर फोर्स में आने वाले लोगों की संख्या 2011-2012 से बढ़ रही है. 2004-2005 से 2011-2012 के बीच रोजगार मामूली बढ़ा है, जो इस दौरान प्रतिवर्ष 20 लाख रहा. बीते छह साल में यह संख्या बढ़कर प्रतिवर्ष बढ़कर 50 लाख रही. इसी समयावधि में गैर कृषि सेक्टर में रोजगार दर घटी है. जब इन तथ्यों को जोड़ेंगे तो पता चलेगा कि अनैच्छिक (ओपन) बेरोजगारी दर में इजाफा हुआ है. काम करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है जबकि मांग घट रही है.

मेहरोत्रा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं, जबकि जेके परिदा पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.

इस रिपोर्ट का निष्कर्ष हाल ही में हुई उस स्टडी से अलग है, जिसे लवीश भंडारी और अमरेश दुबे ने तैयार किया था. इन दोनों को बाद में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद में शामिल किया गया.

लवीश भंडारी और अमरेश दुबे ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2011-2012 में कुल नौकरियां 43.3 करोड़ थीं जो 2017-2018 में बढ़कर 45.7 करोड़ हो गई.

हालांकि, मेहरोत्रा और परिदा की रिपोर्ट के मुताबिक, 2011-2012 में नौकरियां 47.4 करोड़ से घटकर 2017-2018 में 46.5 करोड़ रहीं.

बीते एक अगस्त को इस पर जेएनयू के शोधकर्ता हिमांशु ने एक अगस्त को मिंट में अपने ओपिनियन पीस में लिखा था कि 2011-2012 में कुल नौकरियां 47.25 करोड़ से घटकर 2017-2018 में 45.70 करोड़ रह गईं, यानी बीते छह सालों में 1.5 करोड़ से अधिक नौकरियां खत्म हो गईं. दूसरे शब्दों में कहें तो 2011-2012 से 2017-2018 के बीच हर साल लगभग 26 लाख नौकरियां घटी हैं.

ऐसे में भंडारी और दुबे एवं मेहरोत्रा और परिदा के अध्ययन में अंतर साफ देखा जा सकता है.

ये अध्ययन नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के रोजगार सर्वेक्षण 2004-05 और 2011-12 के अलावा पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2017-18 के आंकड़ों के आधार पर किए गए हैं. ऐसे में भंडारी और दुबे एवं मेहरोत्रा और परिदा के 2011-12 के रोजगार आंकड़ों में लगभग चार करोड़ का अंतर कैसे है?

सामान्य शब्दों में कहें तो इन सभी अकादमिक लोगों द्वारा इस्तेमाल में लाए गए रोजगार और बेरोजगारी का अनुपात तो एक समान हैं लेकिन आंकड़ें अलग-अलग हैं.

इसके दो कारण हो सकते हैं. पहला देश की कुल आबादी के आकलन के लिए इस्तेमाल की गई विधि. अगर जनसंख्या का आंकड़ा अधिक होगा तो रोजगार की संख्या में भी बढ़ोतरी देखी जा सकती है.

भंडारी और दुबे ने 2017-2018 में देश की कुल आबादी 1.36 अरब मानी है. वहीं, मेहरोत्रा और परिदा ने इसे 1.35 अरब माना है. 2017-2018 के लिए विश्व बैंक ने आबादी 1.33 अरब मानी है. हिमांशु ने जीडीपी के सरकारी आंकड़ों के अनुरूप 1.31 अरब की जनसंख्या के आंकड़ों का इस्तेमाल किया.

भारत की आबादी को लेकर संदेह बढ़ा है, क्योंकि सरकार ने अभी तक 2011 की जनगणना के आधार पर आबादी के अनुमान संबंधी रिपोर्ट जारी नहीं की है. सरकार को नियमों के लिहाज से इसे 2016 में जारी कर देना चाहिए था.

भंडारी और दुबे के अनुमानों और बाकी के अनुमानों के बीच अंतर की दूसरी वजह यह है कि भंडारी और दुबे ने रोजगार के ‘प्रिसिंपल स्टेटस’ का इस्तेमाल किया है जबकि बाकी ने ‘सब्सीडियरी स्टेटस’ का इस्तेमाल किया है.

रोगजार के सटीक आंकड़ों पर पहुंचने के लिए ‘प्रिसिंपल स्टेटस’ और ‘सब्सीडियरी स्टेटस’ दोनों का ही इस्तेमाल किया जाता है लेकिन अगर केवल ‘प्रिसिंपल स्टेटस’ का इस्तेमाल किया जाना है तो इसमें देखा जाएगा कि कोई व्यक्ति 365 दिन में से 182 दिन से अधिक दिनों तक काम करता हो और ‘सब्सीडियरी स्टेटस’ में देखा जाता है कि बीते एक साल में व्यक्ति के पास कम से कम 30 दिन तक काम रहा हो. सिर्फ ‘प्रिसिंपल स्टेटस’ का चुनाव करके रोजगार और बेरोजगारी दोनों का उचित अनुमान नहीं लगाया जा सकता.

pkv games bandarqq dominoqq