इस भयावह समय में फ़िलिस्तीनी कविता सारी मनुष्यता का शायद सबसे मार्मिक और प्रश्नवाचक रूपक है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: फ़िलिस्तीनी कविता में गवाही, हिस्सेदारी और ज़िम्मेदारी एक साथ है. यह कविता मातृभूमि को भूगोल भर में नहीं, कविता में बचाने की कोशिश और संघर्ष है. दुखद अर्थ में यह कविता मानो फ़िलिस्तीनियों की मातृभूमि ही होती जा रही है- वह ज़मीन जिस पर कब्ज़ा नहीं किया जा सकेगा.

उदय शंकर भारतीय नृत्य के पारंपरिक रूपाकारों के साथ साहसिक शास्त्रीयता विकसित करना चाहते थे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: उदय शंकर का नृत्य कम से कम तीन विश्वासों से प्रेरित नृत्य था: शास्त्रीयता में विश्वास, आधुनिकता में विश्वास और आत्मविश्वास. जिन कलाकारों ने भारतीय नृत्य में पश्चिमी रुचि जगाई उनमें उदय शंकर का नाम पहली पंक्ति में आता है.

हम अधकचरी परंपरा और अधकचरी आधुनिकता के बीच फंसा भारत होते जा रहे हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: नेहरू युग में संस्कृति और राजनीति, सारे तनावों और मोहभंग के बावजूद, सहचर थे जबकि आज संस्कृति को राजनीति रौंदने, अपदस्थ करने में व्यस्त है. बहुलता, असहमति आदि के बारे में सांस्कृतिक निरक्षरता का प्रसार हो रहा है. व्यंग्य-विनोद-कटूक्ति-कॉमेडी पर लगातार आपत्ति की जा रही है.

बड़े लेखक अपने साहित्य के लिए पढ़े-सराहे जाते हैं, अपनी विचारधारा के कारण नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: विचारधारा से प्रतिबद्ध वही लेखक बड़े या महान हुए जिन्होंने अपने साहित्य में अपनी ही विचारधारा का अतिक्रमण करने का दुस्साहस किया, कह सकते हैं, अपने साहित्य-विचार के पक्ष में. यह अतिक्रमण न विरोध होता है, न ही विचलन. शमशेर और मुक्तिबोध ऐसे अतिक्रमण के उजले उदाहरण हैं.

उम्मीद एक सामूहिक प्रोजेक्ट है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह अभी कुछ बरस पहले अकल्पनीय था कि उदार और सम्यक दृष्टि और शक्तियां इतनी तेज़ी से हाशिये पर चली जाएंगी. यह क्यों-कैसे हुआ यह अलग से विचार की मांग करता है. इसके बावजूद अगर उम्मीद बची हुई है तो वह ज़्यादातर साहित्य और कलाओं जैसे सर्जनात्मक-बौद्धिक क्षेत्रों में ही.

युद्धरत रहना मनुष्य का स्थायी भाव ही बन गया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारतीय समाज की लगभग स्वाभाविक हिंसा को संयमित करने के प्रयत्न अधिकतर विफल ही साबित हुए हैं. कहा जा सकता है कि महाभारत सदियों पहले हुए का मिथक या काव्य भर नहीं है: आज भी हम भारत और महाभारत में एक साथ हैं.

हिंसा अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरी हेकड़ी दिखा रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बर और अमानवीय इजरायल गाज़ा में जो कर रहा है और जिस तरह से अनेक देश उसे चुप रहकर ऐसा करने दे रहे हैं, वे मनुष्यता और सभ्यता की विफलता के ताज़ा उदाहरण हैं.

पूंजीवादी मानसिकता में स्वार्थ एक परम मूल्य बन गया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वार्थी सामुदायिकता का परिणाम यह हुआ है कि बुद्धि और ज्ञान, सृजन और विचार की हमारे समय, समाज और सामाजिक जीवन में उपस्थिति और हस्तक्षेप घट गए हैं. वे सभी मंच सिकुड़ते जा रहे हैं जहां ऐसी उपस्थिति, ऐसा हस्तक्षेप संभव और आवश्यक हो पाता.

युद्ध, नरसंहार और बर्बरता पर लेखक व अन्य सृजनधर्मी चुप या निष्पक्ष नहीं रह सकते

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं. सृजनधर्मियों के लिए यह बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करने का समय है.

संविधान का ढांचा तो औपचारिक रूप से बरक़रार है, पर उसकी आत्मा का हनन रोज़ हो रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जैसे अक्सर क्रांति को क्रांति की संतानें ही खा जाती हैं वैसे ही संविधान की संतानें, राजनीतिक दल, लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सरकारें संविधान को कुतर-काट रहे हैं.

पिकासो और रोथको के कला संसार में विचरण

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिकासो की ऊर्जा और कल्पनाशीलता अथक और अपरंपार थी. फिर पिकासो से रोथको तक जाना बिल्कुल भिन्न कलासंसार में जाना है. उनके यहां कला गहन विचार, सतत चिंतन और बहुत ठहराव से उपजती है. वह कुछ गहरा और अप्रत्याशित देखती-दिखाती है पर ख़ुद को कुछ कहने से रोकती है.

अतीत में होना और व्यतीत न होना

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य और कलाओं में, तत्वचिंतन और सौंदर्यदर्शन में, भाषा-विचार आदि अनेक क्षेत्रों में ‘अगले वक़्तों के लोग’ जो कर गए हैं उस तक हमारा पहुंचना असंभव है. हमने शायद उस अपार संपदा में क्षमता भर कुछ ज़रूर जोड़ा है, फिर भी उनकी ऊंचाइयों को छू पाना हमारे बस की बात नहीं रही है.

पत्रकारों की अभिव्यक्ति सिर्फ़ एक समूह के अधिकार का मामला भर नहीं है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सत्ता को ठोस मुद्दों, प्रामाणिक साक्ष्य के आधार पर प्रश्नांकित करने का मुख्य माध्यम ही पत्रकारिता है. नागरिक के रूप में हमें पत्रकारों का कृतज्ञ होना चाहिए कि वे इस प्रश्नांकन द्वारा लोकतंत्र को सत्यापित कर रहे हैं.

भारत को गांधी-मुक्त करने का कोई भी प्रयत्न विफल होने के लिए अभिशप्त है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: महात्मा गांधी भारतीय मानस में धंस गए हैं और उन्हें वहां से अपदस्थ करने का जो सुनियोजित साधन-संपन्न अभियान भले चल रहा हो, वह कभी सफल नहीं हो सकता.

बाहरी भाषा-व्यवहार और संसदीय भाषा-व्यवहार के बीच भद्रता की दीवार दरक रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिछले एकाध दशक में गाली का व्यवहार बहुत फैला और मान्य हुआ है. हम इसे अपने लोकतंत्र का गाली-समय भी कह सकते हैं.

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