यह वाकई मुश्किल समय है. कहीं एक पत्रकार मारा जा रहा है, कहीं एक सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक को जेल में डाला जा रहा है, कहीं एक पत्रकार बरसों से जेल में सड़ रहा है.
श्याम बेनेगल उस पीढ़ी के सिनेकर्मी थे जिसने आज़ाद भारत के उभरते सपनों के बीच सांस ली. एक समतावादी, लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति का सपना, एक धर्मनिरपेक्ष-जातिविहीन मूल्य-संहिता का सपना, नेहरू की कविता और गांधी की करुणा का सपना. उनके निधन के साथ उस युग के एक सपने का भी अंत हो गया.
गगन गिल की कविताओं की संवेदना इतनी अंतर्मुखी है कि मितकथन में ही व्यक्त हो सकती है, इतनी तरल कि विस्मृति में ही सुरक्षित बस सकती है और इतनी सघन कि आत्मा को छूने की विकलता के बीच प्रेम कर सकती है और फिर भी विहंसते हुए कह सकती है कि ऐसे प्रेम से खुदा ही बचाए.
यह लेखक के लिए हताश करने वाला समय है, मुश्किल समय है. सच लिखना शायद इतना जोखिम भरा कभी नहीं था जितना अब है. सच को पहचानना भी लगातार मुश्किल होता गया है.
मृणाल पांडे में बाकी जो भी दुर्गुण हों, वे असभ्य और अशालीन होने के लिए नहीं जानी जातीं. वे किसी रूप में वामपंथी भी नहीं हैं. उन पर बीजेपी विरोधी होने का भी वैसा इल्ज़ाम नहीं रहा है, जैसा दूसरों पर है.