कृष्ण जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण के साथ-साथ उन महान कवियों को भी याद किया जाना चाहिए, जिन्होंने कभी श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभाव से सुंदर काव्य रचे. यह दिन कवि तानसेन, ताज, रहीम, रसखान, जमाल, मुबारक, ताहिर अहमद, नेवाज, आलम, शेख तथा रसलीन का भी दिन है.
पुस्तक अंश: गुलज़ार के गीतों और फिल्मों ने कई पीढ़ियों को संस्कार दिया है, हिंदी सिनेमा के भीतर शास्त्रीयता की संभावना को जीवित रखा है. यतीन्द्र मिश्र ने अपनी किताब में इस बेजोड़ कलाकार की आत्मा को बड़ी बारीकी से अंकित किया है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.
हम्पी जाते वक्त विजयनगर साम्राज्य की कलात्मक राजधानी की छवि मन में थी, लेकिन यह उम्मीद नहीं थी कि वहां पश्चिम बंगाल की झलक दिख जाएगी. बंगनामा स्तंभ की आठवीं क़िस्त.
पुस्तक समीक्षा: मंगलेश डबराल की 'प्रतिनिधि कविताएं' पढ़ते हुए लगता है मानो वे कह रहे हों कि ईमानदारी और मनुष्यता ख़ुद से बची रहने वाली चीज़ें नहीं हैं. वे इसे मनुष्य की अपने साथ एक लगातार चलने वाली जद्दोजहद मानते हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: समाज, शिक्षा, धर्म, मीडिया आदि में जो ज़हर फैल गया है वह रातोंरात ग़ायब नहीं हो जाएगा, न हो रहा है. हमारे समय का एक दुखद अंतर्विरोध यह है कि ये शक्तियां अब भी हावी और सक्रिय हैं, उन्हें समर्थन देने वाला पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग झांसों-वायदों की गिरफ़्त में है.
आज अमृतलाल नगर की 108वीं जयंती है. पढ़िए उनके उपन्यास 'करवट' पर लेख जो प्रस्तावित करता है कि यह उपन्यास विश्व के महानतम उपन्यासों के समकक्ष रखा जा सकता है.
कभी कभार | अशोक वाजपेयी: स्वतंत्रता के अर्थ में बदलते परिवेश और समय के अनुसार कई और अर्थ जुड़ते रहे. अगर आज विचार करें तो लगेगा कि इस समय का अर्थ प्रमुख रूप से यह है कि हम झूठ-नफ़रत-हिंसा की मानसिकता और राजनीति की ग़ुलामी करने से मुक्त रहें.
बंगाल के पाड़ा क्लबों की प्रेरणा ब्रिटिश राज के यूरोपियन क्लब थे. आज़ादी के उपरांत शहरी इलाक़ों में जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती गई, ये स्थानीय क्लब हरेक मुहल्ले में युवाओं की प्रिय जगह बन गए. बंगनामा स्तंभ की सातवीं क़िस्त.
पुस्तक अंश: 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार के ऐतिहासिक फैसले के बाद जम्मू-कश्मीर के हालात पर केंद्रित रोहिण कुमार की पुस्तक ‘लाल चौक’ का एक अंश.
पुस्तक समीक्षा: परमजीत सिंह की 'मैं क्यूं जाऊं अपने शहर: 1984 कुछ सवाल, कुछ जवाब' सिख विरोधी दंगों की कुछ अनसुलझी मानवीय और राजनीतिक गुत्थियों को नए सिरे से पेश करती है.
पुस्तक समीक्षा: प्रेम में अधिकार और विश्वास का सवाल हमेशा से उपस्थित रहा है. सोशल मीडिया के दौर में ये भाव किस तरह परिवर्तित हुए हैं, तसनीम खान का उपन्यास इस नए बदलाव की कथा है.
'मैं अयोध्या आ गया हूं. लेकिन लग रहा है वनवास अभी तक ख़त्म नहीं हुआ है. जब वन में रहता था, पावस ऋतु में कुटिया की छत टपकती थी और अब इस तथाकथित भव्य मंदिर में भी भीग रहा हूं.'
जन्मदिन विशेष: प्रेमचंद ने 'चंद्रकांता संतति' पढ़ने वाले पाठकों को 'सेवासदन' का पाठक बनाया. साहित्य समाज की अनुकृति मात्र नहीं बल्कि समाज को दिशा भी दिखा सकता है, यह प्रेमचंद से पहले कल्पना करना असंभव था.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अरुणा रॉय अथक स्वप्नदर्शी कर्मशील हैं. उन्होंने मौलिक नवाचार किया है पर वे जड़ों पर भी जमी रही हैं. उनके संस्मरण में ‘मैं’ बहुत सहजता से ‘हम’ में बदलता रहता है.