हम सबको किसी न किसी दिन जेल में डालने के लिए क़तार में खड़ा कर दिया गया है: मेधा पाटकर

नर्मदा बचाओ आंदोलन की संस्थापक और प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने अयोध्या स्थित फैजाबाद प्रेस क्लब में काकोरी ट्रेन एक्शन के शहीदों को श्रद्धांजलि देने पहुंची थीं. उन्होंने कहा कि आज देश की मांग है कि उससे प्रेम करने वाले शहादत नहीं अन्याय, अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर अपना योगदान दें.

शाहीन बाग से लेकर राहुल गांधी पर हमला: अराजक हिंसा को भड़काती भाजपा

19 दिसंबर को भाजपा ने जो कुछ भी किया उसकी गंभीरता को समझने की ज़रूरत है. हिंसा के बाद हमेशा संदेह पैदा होता है. दो पक्ष बन जाते हैं. दूसरे पक्ष को सफ़ाई देनी पड़ती है. भाजपा हर जन आंदोलन या विपक्ष के विरोध के दौरान हिंसा पैदा करके यही करती है.

बिस्मिल, अशफ़ाक़ शहादत दिवस: क्रांतिकारियों को बराबरी के बिना आज़ादी झूठी लगती थी

19 दिसंबर क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्लाह खां, राजेंद्र लाहिड़ी और रोशन सिंह की शहादत का दिन है. आज जब देश की आज़ादी और लोकतंत्र गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, ज़रूरी हैं कि देशवासी शहीदों की स्मृतियां खंगालकर उनके व्यक्तित्व से नई प्रेरणा, नया बल प्राप्त करें.

तो फिर भाजपा क्‍यों नहीं बना रही आंबेडकर के सपनों का भारत?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संविधान के आगे मत्‍था टेकते हैं और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की तस्‍वीर के सामने नमन करते हैं, लेकिन सब जानते हैं कि दलित वोट पाने के लिए यह उनका दिखावा है.

आगामी विश्व धर्म संसद: ख़तरे की नई घंटी

आगामी 17 से 21 दिसंबर तक यति नरसिंहानंद की अध्यक्षता में विश्व धर्म संसद होने जा रही है. इसकी वेबसाइट कहती है कि इस्लाम की समाप्ति के लिए यह कार्यक्रम किया जा रहा. क्या हिंदू धर्म का अपने आप में अस्तित्व नहीं है कि ये लोग धर्म की विरोधात्मक परिभाषा दे रहे हैं?

उपासना स्थल अधिनियम पर संसद में हुई बहस दे सकती है नई दिशा

जब तीन दशक पहले यह उपासना स्थल विधेयक संसद में पेश किया गया था, भाजपा ने इसे 'सबसे काला' विधेयक बताया था. उनका दावा था कि यह 'मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान हिंदू मंदिरों पर किए गए सभी अतिक्रमणों को वैध बनाने' का प्रयास करता है. जबकि ग़ैर-भाजपा सांसदों ने इसका समर्थन करते हुए इसे धर्मनिरपेक्षता और सौहार्द्र की रक्षा के लिए अनिवार्य कदम बताया था.

समाज पर गहराता संकट: हिंसक दावों और क़ानूनी फ़ैसलों के बीच फंसी मस्जिदें

जब तक भारतीय अदालतों को उपासना स्थल अधिनियम, 1991 की भावना का उल्लंघन करने की अनुमति दी जाती रहेगी, तब तक इतिहास के घावों को कुरेदा जाता रहेगा, सद्भाव बिगड़ता रहेगा और खून-खराबा होता रहेगा. हर्ष मंदर के निबंध की पहली क़िस्त.

महात्मा गांधी के अंतिम दिन: एक मज़ार की तीर्थ यात्रा

18 जनवरी 1948 को अपने अंतिम उपवास को समाप्त करने के ठीक नौ दिन बाद, यानी अपनी हत्या से 3 दिन पहले गांधी दिल्ली के महरौली स्थित दरगाह क़ुतुबउद्दीन बख़्तियार काकी की मज़ार पर गए थे. दिल्ली में शांति और सौहार्द क़ायम करने के लिए की गई इस यात्रा को उन्होंने तीर्थ यात्रा कहा था. यह उनकी आखिरी सार्वजनिक यात्रा थी.

मानवाधिकार दिवस: दो साल से सलाखों के पीछे क़ैद पत्रकार रूपेश, उच्च शिक्षा बनी सहारा

जुलाई 2022 से जेल में बंद रूपेश कुमार सिंह की जीवनसाथी उनके कारावास के अनुभव दर्ज कर रही हैं, साथ ही बता रही हैं कि बिहार की जेलों में क़ैदियों के साथ कितना अमानवीय बर्ताव होता है. लेकिन रूपेश की जिजीविषा बरक़रार है.

वीरों की ‘बस्ती’ को उजाड़ क्यों बता गए भारतेंदु?

अयोध्या के उत्तर से बहने वाली सरयू के दूसरी तरफ स्थित बस्ती की 'महिमा' अयोध्या का पड़ोसी होने के बावजूद घटी ही है. इस कदर कि कई लोग उसे अयोध्या की छाया या पासंग भर भी नहीं मानते. वे चिंंतित हो उठे कि ‘नई सभ्यता अभी तक इधर नहीं आई है.’

अल्पसंख्यक अधिकार और आंबेडकर की धरोहर के साथ विश्वासघात

बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था कि अधिकारों को केवल क़ानून में लिख देने से उनकी रक्षा सुनिश्चित नहीं होती, समाज की सामूहिक नैतिक और सामाजिक चेतना ही इन अधिकारों को जीवन देती है. आज 'नए भारत' में रोज़ संवैधानिक अधिकारों पर हो रहे हमले इसी को लेकर चेता रहे हैं.

अयोध्या आज एक कुरु-सभा बन गई है जिसके मंच पर भारतीय सभ्यता का चीरहरण हो रहा है

अयोध्या की सभा असत्य और अधर्म की नींव पर निर्मित हुई है, क्योंकि जिसे इसके दरबारीगण सत्य की विजय कहते हैं, वह दरअसल छल और बल से उपजी है. अदालत के निर्णय का हवाला देते हुए ये दरबारी भूल जाते हैं कि इसी अदालत ने छह दिसंबर के अयोध्या-कांड को अपराध क़रार दिया था.

इस घुप्प अंधेरे में नागरिकों के विवेक को संबोधित करने वाले लोग कहां हैं?

इस समय संविधान की सबसे बड़ी सेवा सत्ताधीशों के स्वार्थी मंसूबों की पूर्ति के उपकरण बनने से इनकार करना है. समझना है कि संविधान के मूल्यों को बचाने की लड़ाई सिर्फ न्यायालयों में या उनकी शक्ति से नहीं लड़ी जाती. नागरिकों के विवेक और उसकी शक्ति से भी लड़ी जाती है.

क्या मतदाता सरकारों से ‘संतुष्ट’ रहने लगे हैं?

हर बार चुनावों से पहले मीडिया के मैनेजमेंट से छनकर बढ़ती ग़रीबी, ग़ैर-बराबरी, बेरोज़गारी व महंगाई वगैरह के कारण सरकारों के प्रति आक्रोश व असंतोष की जो बातें सामने आ जाती हैं, क्या वे सही नहीं हैं? मतदाताओं की सरकारों से इस 'संतुष्टि' को कैसे देखा जाए?

संविधान दिवस विशेष: संविधान की प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ हटाने की मांग असंगत

संविधान की प्रस्‍तावना से 'धर्मनिरपेक्ष' तथा 'समाजवाद' शब्‍दों को हटाए जाने की मांग लोकतंत्र और संविधान के लिए ख़तरे की सूचक है. शब्‍दों में बदलाव के बजाय हमारी मानसिकता में बदलाव की मांग होनी चाहिए.

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