कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने का ठेका न तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को, न भाजपा को, न किसी राजनेता को मिला हुआ है. ये सभी स्वनियुक्त ठेकेदार हैं, जिनका सामाजिक आचरण हिंदू धर्म के बुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाता.
पुलिस कहती है कि कुछ लोगों ने जानबूझकर दुकानों के ऐसे नाम रखे जिनसे कांवड़ियों को भ्रम हो गया. क्या पुलिस को ऐसा कोई मामला मिला जिसमें कांवड़ियों को मुसलमानों ने मोमो में बंदगोभी की जगह कीमा खिला दिया? क्या कांवड़िए शाकाहार मांग रहे थे और उन्हें मांस की कोई वस्तु बेच दी गई?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य के अपने समाज के अलावा व्यापक हिंदी समाज में कौन इलाहाबाद को निराला-महादेवी के शहर, बनारस को प्रसाद-रामचंद्र शुक्ल के शहर, पटना को दिनकर-नागार्जुन-रेणु के शहर की तरह जानता-पहचानता है?
राहुल गांधी का यह कहना कि 'हमने राम मंदिर आंदोलन को हरा दिया है, वही लाल कृष्ण आडवाणी ने जिसका नेतृत्व किया था,' विचारधारात्मक चेतावनी है. असल लड़ाई उस विचारधारा से है जिसने राम जन्मभूमि आंदोलन को जन्म दिया. यानी संघर्ष आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के विचार से है.
नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में अनुप्रासों की झड़ी लगाते रहे हैं- कभी चमत्कार पैदा करने, तो कभी अपनी ‘बौद्धिकता’ का लोहा मनवाने के लिए. हालांकि आगामी 23 जुलाई को उनकी तीसरी सरकार का पहला बजट आएगा तो इस ‘संकट’ से रूबरू होंगे कि ऐसा कौन-सा नया अनुप्रास गढ़ें और कैसे?
इंग्लैंड के नेता चुनाव हारने के सेवानिवृत्त हो जाते हैं, आख़िर भारतीय राजनीति कब बदलेगी कि जो हार जाए, वह विदा हो जाए और अपनी पार्टी के भीतर से नई प्रतिभाओं को मौका दे.
उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग द्वारा कमीशन किए गए भारतीय उद्यमिता विकास संस्थान का अध्ययन बताता है कि राज्य सरकार 85,000 करोड़ रुपये के निवेश से वर्ष 2033 तक अयोध्या को ‘दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शहरों में से एक’ बनाने को ‘तैयार’ है. हालांकि, अयोध्यावासी पिछले कामों का हश्र देखने के बाद आशान्वित नहीं हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म और सांप्रदायिकता की राजनीति ने एक बेहद ग़ैर-ज़िम्मेदार अर्थव्यवस्था को पोसा-पनपाया है जिसके लिए सामान्य नागरिक की ज़िंदगी का कोई मोल नहीं है.
विपक्ष आगे की राह कैसे तय करेगा? और क्या महज बढ़ा हुआ आत्मविश्वास उसको मंजिल तक पहुंचा देगा? फिलहाल इसका ‘हां’ में जवाब मुश्किल है क्योंकि स्थितियां आगे और लड़ाई के संकेत दे रही हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: दुचित्तेपन से मुक्त होने का आशय यह नहीं है कि हम ख़ुद को संसार में विकसित चिंतन-सृजन आदि से विमुख कर लें और आधुनिकता संपन्न मानकर किसी छद्म आत्मगौरव में इठलाने लगें. दुचित्तेपन से मुक्ति एक दुधारी आलोचना दृष्टि से ही मिल सकती है.
राम मंदिर की ओर जाने वाले पथों के निर्माण व चौड़ीकरण के काम में दुकानों व प्रतिष्ठानों की तोड़-फोड़ से विस्थापित जिन व्यवसायियों के आक्रोश को लोकसभा चुनाव में भाजपा की हार का बड़ा कारण बताया जा रहा है, उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने चुनावी नतीजों के बाद अचानक सोते से जागकर उनकी सुध लेनी शुरू की तो उसे डैमेज कंट्रोल के उसके सबसे सकारात्मक कदम के रूप में देखा गया था.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे सामाजिक आचरण की सारी मर्यादाएं तज दी गई हैं. देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद में ख़रीद-फ़रोख़्त का काम हो सकता है तो हम इसे राजनीतिक लेन-देन समझते हैं जो होता ही रहता है. हम ऐसा लोकतंत्र बनते जा रहे हैं जिसमें मर्यादा और नैतिक कर्म की जगह घट रही है.
फ़ैज़ाबाद लोकसभा सीट पर भाजपा की हार के बाद अयोध्यावासियों के आर्थिक बहिष्कार के आह्वान से लेकर वर्तमान सांसद की मृत्युकामना तक जिस तरह अभिव्यक्ति की सीमाएं लांघी जा रही हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. शायद इसलिए कि हिंदुत्ववादियों के स्वार्थों को इतनी गहरी चोट लगी है कि समझ नहीं पा रहे कि करें तो क्या करें?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस चुनाव ने निश्चय ही लोकतंत्र को सशक्त-सक्रिय किया है पर उसकी परवाह न करने वालों को फिर सत्ता में बने रहने का अवसर देकर अपने लिए ख़तरा भी बरक़रार रखा है.
मोहन भागवत ने अपने हालिया प्रवचन में कहा कि चुनाव में क्या होता है इसमें आरएसएस के लोग नहीं पड़ते पर प्रचार के दौरान वे लोगों का मत-परिष्कार करते हैं. तो इस बार जब उनके पूर्व प्रचारक नरेंद्र मोदी और भाजपा घृणा का परनाला बहा रहे थे तो संघ किस क़िस्म का परिष्कार कर रहा था?