चूंकि मोदी ने यह चुनाव सिर्फ़ अपने नाम पर लड़ा था, सिर्फ़ अपने लिए वोट मांगे थे, भाजपा के घोषणापत्र का नाम भी ‘मोदी की गारंटी’ था- यह हार भी सिर्फ़ मोदी की है. उनके पास अगली सरकार के मुखिया होने का कोई अधिकार नहीं बचा है.
नक्सलवादी अपनी हिंसा को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि उनके पास ही वैज्ञानिक विचार और इतिहास की चाभी है. उनका विचार ही पहला और अंतिम विचार है और उसे जो चुनौती देगा, उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं. यह संसदीय जनतंत्र के विचार के ठीक उलट है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 28वीं क़िस्त.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: भारत के साधारण वर्ग के नागरिक संवैधानिक अधिकार और पात्रता रखते हुए चुनाव नहीं लड़ सकते. हमने जो व्यवस्था बना ली है वह भारत की साधारणता को लोकतंत्र में कोई निर्णायक भूमिका निभाने से रोक रही है.
अदालत ने सरकारों को फटकार लगाते हुए मौसमी मार झेल रहे लोगों की समस्या और जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेने का आग्रह किया है.
इस राज्य को भगवा बनाना चाहती भाजपा नहीं जानती कि देवदार के जंगल स्थानीय देवियों से अपनी प्राण-ऊर्जा हासिल करते हैं और बर्फ़ीले पर्वतों पर इस पृथ्वी के कुछ सबसे विलक्षण और प्राचीन बौद्ध विहार ठंडी धूप में चमकते हैं.
महाराष्ट्र देश की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला राज्य है, लेकिन वर्षों से सरकारी नौकरी की तैयारी करते इसके हज़ारों युवा नागरिक पेपर लीक या किसी अन्य घोटाले के चलते परीक्षा रद्द होने से निराश होकर आत्महत्या जैसे घातक क़दम उठा रहे हैं.
साधारण लोग सहज रूप से साहसी होते हैं. मज़दूर अपने हक़ के लिए उठ खड़े होते हैं, किसान मोर्चे निकालते हैं, आदिवासी निहत्थे हथियारबंद राज्य के सामने खड़े हो जाते हैं, लेकिन जो भाषा का सजग अभ्यास करने का दावा करते हैं, उनका गला रुंध जाता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की पच्चीसवीं क़िस्त.
जब भी भारत के अतीत और भविष्य पर बात होगी तो नेहरू के वैचारिक खुलेपन की याद आएगी. देश को उस दिशा में बढ़ना होगा जिसकी तरफ़ नेहरू जाना चाहते थे- समावेशी और उदार भारत की तरफ़.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: सलमान रश्दी की हालिया किताब से एक बार फिर यह ज़ाहिर होता है कि उनका सबसे कारगर हथियार और सबसे विश्वसनीय कवच साहित्य ही रहा है, जहां उनकी भाषा और कल्पना सबसे टिकाऊ आश्रय पाती रही है.
विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी शिक्षा अगर कोई है तो वह है दूसरों से हमदर्दी. दूसरे यानी वे जिनसे मनुष्यत्व के अलावा हमारा और कुछ नहीं मिलता: न जेंडर, न धर्म, न भाषा, न राष्ट्रीयता. कविता में जनतंत्र स्तंभ की बाइसवीं क़िस्त.
क्या स्वयंसेवक उस सामाजिक स्वीकार्यता की अनदेखी कर पाएंगे जो मोदी सरकार के कारण उन्हें मिली है? क्या नाराज़ स्वयंसेवक अपने प्रचारक प्रधानमंत्री से दूरी बना पाएंगे? या वे आख़िरकार सामंजस्य कर लेंगे, यह सोचकर कि 2025 के अपने शताब्दी वर्ष में सत्ता से बाहर रहने का जोखिम उठाना बुद्धिमानी नहीं?
बीते दिनों पीटीआई को दिए एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि उनके शासनकाल में पिछली सरकारों से ज़्यादा नौकरियां दी गई हैं. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि वे किन आंकड़ों के आधार पर यह बात कह रहे हैं क्योंकि विभिन्न सर्वेक्षण और रिपोर्ट उनके दावे के उलट तस्वीर दिखाते हैं.
ऐसा कई चुनावों के बाद दिखाई दे रहा है कि विपक्षी गठबंधन के मुद्दे आम लोगों तक पहुंचे हैं और उनका असर भी पड़ रहा है.
भारतीय जनतंत्र एक वादा था और हिंदू-मुसलमान भाईचारा उसकी बुनियाद. लेकिन आज मुसलमान ख़ुद को बराबरी का नागरिक नहीं मान पा रहा है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की उन्नीसवीं क़िस्त.
पूंजीवाद स्वाभाविक और प्राकृतिक जान पड़ता है. लेकिन मनुष्य निर्विकल्प अवस्था को कैसे स्वीकार कर ले तो फिर मनुष्य कैसे रहे? कविता में जनतंत्र स्तंभ की अठारहवीं क़िस्त.