ऐसा क्यों है कि अलग-अलग जगहों से आने वाले बच्चे यहां आकर लड़ने वाले बच्चे बन जाते हैं? बढ़ी हुई फीस का मसला सिर्फ जेएनयू का नहीं है. घटी हुई आज़ादी का मसला भी सिर्फ जेएनयू का नहीं है.
जेएनयू शिक्षा और संघर्ष का अनूठा उदाहरण है. जेएनयू का यही अनूठापन वर्चस्वशाली ताकतों और कट्टरपंथियों की आंखों में खटकता है.
ऐसे सामाजिक पारिवारिक परिवेश, जिसमें उच्च शिक्षा की कल्पना डॉक्टरी-इंजीनियरिंग के दायरे से पार नहीं गई और नौकरी से परे शिक्षा को देखना एक तरह से अय्याशी और दूर की कौड़ी समझा जाता था, जेएनयू ने समझाया कि ये एक साज़िश है- समाज के बड़े तबके को बराबरी महसूस न होने देने की.
बिहार में 38 छात्रों के मुकाबले एक शिक्षक है जबकि दूसरे स्थान पर दिल्ली है, यहां 35 छात्रों पर एक शिक्षक है. सबसे बेहतर स्थिति सिक्किम की है, जहां चार छात्रों पर एक शिक्षक है.
यह सर्वेक्षण शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले एक एनजीओ इंडस एक्शन ने किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पास आरटीई के तहत स्कूलों में दाखिला प्राप्त छात्रों की संख्या के बारे में सूचना उपलब्ध नहीं है.
जिस प्रकार कृषि क्षेत्र में ऋण से बढ़ते तनाव ने किसान आत्महत्या की समस्या पैदा की, स्कूल शिक्षा में परीक्षाओं और मेरिट के दबाव ने स्कूली विद्यार्थियों में आत्महत्याओं को जन्म दिया, तनाव निर्माण की उसी कड़ी में सरकार ने कॉलेज और विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और शिक्षकों को झोंकने की तैयारी कर ली है.
बस्तर के लिए लोकतंत्र क्या है? सरकार, मीडिया और कुछ एनजीओ के दावों से लगता है कि यहां विकास की ऐसी बयार आई हैं, जिसमें नागरिकों को ज़मीन पर ही मोक्ष मिल गया है.
वीरप्पा मोइली ने कहा, आधारभूत संरचना क्षेत्र की परियोजनाएं रुकीं, इनकी संख्या बढ़ रही है. ऐसे में विकास दर में बढ़ोत्तरी कैसे होगी?
शिक्षा के अधिकार अधिनियम को पिछले सात साल में ठीक ढंग से लागू किया गया या नहीं, इसका आकलन किसी ने नहीं किया. सभी ने अपनी नाकामी को बच्चों पर थोप दिया और बच्चों की किसी ने पैरवी तक नहीं की.