जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के एक महीने बाद राज्य के पुलिस महानिदेशक दिलबाग सिंह ने कहा कि अगर कुछ प्रतिबंधों से आप किसी की ज़िंदगी बचा सकते हैं तो उससे अच्छा क्या हो सकता है? लोग ज़िंदगी के साथ स्वतंत्रता की बात कहते हैं लेकिन मैं कहता हूं कि ज़िंदगी पहले आती है, स्वतंत्रता बाद में.
मणिपुर में 2000 से 2012 के बीच सेना और पुलिस पर 1,528 ग़ैर-न्यायिक हत्याओं के आरोप हैं. सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसकी सीबीआई जांच के आदेश दिए गए हैं.
गृह मंत्रालय का कहना है कि नगालैंड को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित रखने का निर्णय इसलिए लिया गया है क्योंकि राज्य के विभिन्न हिस्सों में हत्याएं, लूट और उगाही जारी है. ऐसे हालात में वहां तैनात सुरक्षा बलों की सुविधा के लिए आफस्पा की अवधि बढ़ाना ज़रूरी था.
साल 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक करने वाली टीम के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा ने कहा कि अब इसे सर्जिकल स्ट्राइक कहें या सीमापार कार्रवाई लेकिन सेना ने पहले भी ऐसा किया है.
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि आर्थिक मोर्चे पर अपनी अक्षम्य विफलता को छिपाने के लिए मोदी सरकार सैन्य बलों के शौर्य के पीछे छिप रही है. यह अपमानजनक और अस्वीकार्य है.
प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह दोनों समाजवादी पार्टी का घोषणापत्र पढ़कर चौंक गए होंगे. दोनों सोच रहे होंगे कि सपाई क्यों उनके राज्य के नाम पर रेजीमेंट बना रहे हैं?
जम्मू कश्मीर के पुलिस महानिदेशक दिलबाग सिंह ने कहा कि हमारी कोशिशों के बावजूद कुछ युवा आतंकवादी गतिविधियों में शामिल हुए और कुछ मारे भी गए. हमें इस पर दुख और अफ़सोस है. हम हिंसा के माहौल में हैं और हिंसा, हिंसा को जन्म देती है.
इस हफ्ते नॉर्थ ईस्ट डायरी में मणिपुर, असम, नगालैंड और मेघालय के प्रमुख समाचार.
आफ्स्पा सैन्य बलों को शांति के लिए ख़तरा माने जाने वालों पर गोली चलाने की आज़ादी देता है, लेकिन यह उन्हें फ़र्ज़ी मुठभेड़ या दूसरी तरह के अत्याचार करने का अधिकार प्रदान नहीं करता.
मणिपुर और जम्मू कश्मीर में सशस्त्र कार्रवाई में शामिल सैनिकों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज किए जाने को चुनौती देते हुए 300 से अधिक सैन्यकर्मियों ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर की थी.
पुलिसकर्मियों ने याचिका दायर कर आरोप लगाया था कि पीठ ने कुछ आरोपियों को पहले ही अपनी टिप्पणी में ‘हत्यारा’ बताया था. कोर्ट ने कहा कि एसआईटी द्वारा इन मामलों में की जा रही जांच पर संदेह का कोई कारण नहीं है.
क्या सैनिकों के ऐसे क़दम को सर्वोच्च अदालत के फैसले की जानबूझकर अवज्ञा माना जाए या आर्मी एक्ट के बुनियादी उसूलों का उल्लंघन? ये याचिकाएं भले राजनीतिक रूप से प्रेरित न हों, लेकिन ग़लत मशविरे का परिणाम लगती हैं. साथ ही यह उस ‘अनुशासन’ के ख़िलाफ़ हैं, जिसका प्रतिनिधित्व भारतीय सेना करती है.
यह क़दम इस बात का संकेत देता है कि सैनिकों को यह लगता है कि आफ्सपा लागू होने के बावजूद उस पर अन्यायपूर्ण तरीक़े से मुक़दमा चलाया जा रहा है. सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला चाहे जो भी आए, मगर ऐसा लगता है कि सैनिक अपने धैर्य के आख़िरी बिंदु पर पहुंच गया है.
कश्मीर में पिछले साल नौ अप्रैल को सेना ने फ़ारूक़ को पत्थरबाज़ बताते हुए जीप की बोनट से बांधकर कई गांवों में घुमाया था. घटना के एक साल बाद भी फ़ारूक़ अवसाद में हैं.
9 अप्रैल 2017 को सेना द्वारा जीप पर बांधकर घुमाए गए फ़ारूक़ अहमद डार साल भर बाद भी अपनी सामान्य ज़िंदगी में लौटने के लिए जूझ रहे हैं.