गोरखपुर और महराजगंज के जंगल में स्थित 23 वन ग्रामों के वनटांगियों को वन अधिकार क़ानून लागू होने के डेढ़ दशक और कड़े संघर्ष के बाद ज़मीन पर अधिकार मिला. लेकिन आज भी यहां विकास की रफ़्तार धीमी ही है.
न्याय और बराबरी रोकने वालों ने बदलाव की लड़ाई को सांप्रदायिक नफ़रत की तरफ मोड़ दिया है. मुस्लिमों के ख़िलाफ़ घृणा उपजाने के लिए तमाम नकली अफ़वाहें पैदा की गईं, जिससे ग़ैर मुस्लिमों को लगातार भड़काया जा सके. आज इसी राजनीति का नतीजा है कि लोग महंगाई, रोज़गार, शिक्षा की बात करना भूल गए हैं.
प्रासंगिक: भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागिता के चलते गिरफ़्तार की गईं कस्तूरबा ने हिरासत में दो बार हृदयाघात झेला और कई माह बिस्तर पर पड़े रहने के बाद 22 फरवरी 1944 को उनका निधन हो गया. सुभाष चंद्र बोस ने इस ‘निर्मम हत्या के लिए’ ब्रिटिश सरकार को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि ‘कस्तूरबा एक शहीद की मौत मरी हैं.’
पुण्यतिथि विशेष: अगस्त 1925 में अंग्रेज़ों का ख़ज़ाना लूटने वाले क्रांतिकारियों में से एक राजेंद्रनाथ लाहिड़ी भी थे. 1927 में इंसाफ़ के सारे तक़ाज़ों को धता बताते हुए अंग्रेज़ों ने उन्हें तयशुदा दिन से दो रोज़ पहले इसलिए फांसी दे दी थी कि उन्हें डर था कि गोंडा की जेल में बंद लाहिड़ी को उनके क्रांतिकारी साथी छुड़ा ले जाएंगे.
उधम सिंह और भगत सिंह के चरित्रों को एक संदर्भ देते हुए शूजीत सरकार दो महत्वपूर्ण लक्ष्यों को साध लेते हैं. पहला, वे क्रांतिकारियों को वर्तमान संकीर्ण राष्ट्रवाद के विमर्श के चश्मे से दिखाई जाने वाली उनकी छवि से और बड़ा और बेहतर बनाकर पेश करते हैं. दूसरा, वे आज़ादी के असली मर्म की मिसाल पेश करते हैं. क्योंकि जब सवाल आज़ादी का आता है, तो सिर्फ दो सवाल मायने रखते हैं: किसकी और किससे आज़ादी?
इस दौर में जब देशभक्ति का नशा जनता को कई शक्लों में दिया जा रहा है, तब एक क्रांतिकारी के जीवन और उसके दौर की बहसों के सहारे राष्ट्रवाद पर सामाजिक विचार-विमर्श अर्थपूर्ण दिशा दी जा सकती थी, लेकिन यह फ़िल्म ऐसा करने की इच्छुक नहीं दिखती.
महात्मा गांधी का मानना था कि अगर हमें अवाम तक अपनी पहुंच क़ायम करनी है तो उन तक उनकी भाषा के माध्यम से ही पहुंचा जा सकता है. इसलिए वे आसान भाषा के हामी थे जो आसानी से अधिक से अधिक लोगों की समझ में आ सके. लिहाज़ा गांधी हिंदी और उर्दू की साझी शक्ल में हिंदुस्तानी की वकालत किया करते थे.
सीएए विरोधी प्रदर्शनों के लिए दर्ज एफआईआर में प्रदर्शनों को 'राष्ट्रविरोधी' और 'विश्वासघाती' बताना निष्पक्ष नहीं है. इसमें औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा चलाए जाने वाले मुक़दमों की गूंज सुनाई देती है.
पुण्यतिथि विशेष: उत्तर प्रदेश के अविभाजित फ़ैज़ाबाद ज़िले में जन्मे राजबली यादव 15 अगस्त 1947 को मिली आज़ादी को मुकम्मल नहीं मानते थे. आज़ादी के बाद भी उन्होंने सरकार और सामंतों के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखा था और कई बार जेल भी गए.
जलियांवाला बाग़ नरसंहार ने मंटो को बदल दिया था. मंटो तब सात साल के थे, जब बाग़ का ख़ूनी दृश्य देखा और उसको कहीं अपने भीतर महसूस किया. बचपन की ये कैफ़ियत उनके परिपक्व होने तक भी नहीं निकल पाई. इसके बहुत बाद में जब वे अपने साहित्यिक जीवन की पहली कहानी ‘तमाशा’ लिख रहे थे, तब शायद उसी यातना से गुज़र रहे थे.
भारतीय मूल के सांसदों ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के लिए औपचारिक तौर पर माफ़ी मांगने की मांग ब्रिटेन की सरकार से की. ब्रिटेन के विदेश मंत्री ने कहा कि अगर हम तमाम घटनाओं पर माफ़ी मांगने लगेंगे तो इससे माफ़ी का महत्व कम हो जाएगा.
आज़ादी की लड़ाई के सिपाही राजनारायण मिश्र ने कहा था कि हमें दस आदमी ही चाहिए, जो त्यागी हों और देश की ख़ातिर अपनी जान की बाज़ी लगा सकें. कई सौ आदमी नहीं चाहिए जो लंबी-चौड़ी हांकते हों और अवसरवादी हों.
पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के अभिजात्य और शासक वर्गों में पर्यावरण और सामाजिक-नागरिक प्रतिरोध के केंद्र के रूप में सघन वन्य इलाक़ों को नकारात्मक रूप से देखने की प्रवृत्ति मिलती है.
जो लोग भीमा-कोरेगांव युद्ध की याद में आयोजित समारोह के आयोजकों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर रहे हैं वो यह क्यों छुपा ले जाते हैं कि न जाने कितनी बार मराठों ने भी अंग्रेज़ों के साथ मिलकर अन्य राज्यों के ख़िलाफ़ लड़ाइयां लड़ी हैं.
जब आंबेडकर ने भीमा कोरेगांव युद्ध को पेशवाओं के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ महारों के संघर्ष के रूप में पेश किया, तब वे असल में एक मिथक रच रहे थे.