मृणाल सेन का सिनेमा कलात्मक और बौद्धिक संवेदना का नायाब संयोजन था. वह चाहते थे कि सिनेमा उपेक्षितों के पास और सुदूर देहातों में पहुंचे. उन्हें ‘नए सिनेमा’ से यह उम्मीद थी. उनकी फिल्म देखने के बाद बहुत देर तक उसकी छवियां बेताल की तरह सिर पर नाचती रहती हैं.
जहां बॉलीवुड के अधिकतर अभिनेता सच से मुंह मोड़ने और चुप्पी ओढ़ने के लिए जाने जाते हैं, वहीं मुखरता नसीरुद्दीन शाह की पहचान रही है. उनका व्यक्तित्व उन्हें फिल्म इंडस्ट्री की उस भीड़ से अलग करता है, जिसके लिए शक्तिशाली की शरण में जाना, गिड़गिड़ाते हुए माफ़ी मांगना और कभी भी मन की बात न कहना एक रिवाज़-सा बन चुका है.
वीडियो: ‘लाइफ ऑफ पाई’, ‘ज़ेड प्लस’, ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘इश्क़िया’, ‘मुक्ति भवन’ और ‘ह्वॉट विल पीपल से’ जैसी फिल्मों में काम कर चुके अभिनेता आदिल हुसैन के साथ फ़ैयाज़ अहमद वजीह की बातचीत.
मोहम्मद अज़ीज़ के कई गानों में अमीरी और ग़रीबी का अंतर दिखेगा. हम समझते हैं कि गायक को गाने संयोग से ही मिलते हैं फिर भी अज़ीज़ उनके गायक बन गए जिन्हें कहना नहीं आया, जिन्हें लोगों ने नहीं सुना.
मंटो फिल्म में मुझे जो मिला वो एक फिल्म निर्देशक की आधी-अधूरी ‘रिसर्च’ थी, वर्षों से सोशल मीडिया की खूंटी पर टंगे हुए मंटो के चीथड़े थे और इन सबसे कहीं ज़्यादा स्त्रीवाद बल्कि ‘फेमिनिज़्म’ का इश्तिहार था.
वीडियो: उर्दू को अवाम तक पहुंचाने में देवनागरी और हिंदी की भूमिका, हिंदी में नुक़्ते के चलन और उर्दू के भविष्य पर विनोद दुआ से द वायर उर्दू के फ़ैयाज़ अहमद वजीह की बातचीत.
ब्लैक फ्राइडे, गुलाल और सरकार जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुके अभिनेता केके मेनन ने कहा कि आपके अभिनय को चाहे कितना भी सराहा जाए इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता. फिल्म में बड़े नाम न हो तो सिनेमा देखने कम लोग पहुंचते हैं.
तकरीबन 150 विज्ञापन फिल्में बना चुके ऐड मेकर देब मेढ़ेकर से उनकी पहली फिल्म बाइस्कोपवाला को लेकर प्रशांत वर्मा की बातचीत.
जब मुंबई में दंगे भड़के, तब सुनील दत्त ने अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलते हुए संसद से इस्तीफ़ा दे दिया. उनका मानना था कि कांग्रेस ने हालात को सही से नहीं संभाला है और एक सांसद की हैसियत से वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं.
रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ पर आधारित फिल्म ‘बाइस्कोपवाला’ में अभिनेता डैनी डेनजोंग्पा मुख्य किरदार निभा रहे हैं. फिल्म 25 मई को रिलीज़ हो रही है.
गोलमाल, धमाल, आॅल द बेस्ट, वन टू थ्री, फंस गए रे ओबामा में यादगार किरदार निभाने के बाद आंखों देखी, मसान, कड़वी हवा और अंग्रेज़ी में कहते हैं जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले अभिनेता संजय मिश्रा से प्रशांत वर्मा की बातचीत.
पूरब और पश्चिम के गाने को कर्नाटक के संदर्भ में समझते हुए दिखता है कि प्रणय निवेदन हेतु मनोज कुमार के हाथों में एक फाइल है, जिसमें विधायकों के दस्तख़त की कल्पना सहज ही की जा सकती है.
सत्यजीत रे ने देश की वास्तविक तस्वीर और कड़वे सच को बिना किसी लाग-लपेट के ज्यों का त्यों अपनी फिल्मों में दर्शाया. 1943 में बंगाल में पड़े अकाल को उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ दिखाया तो वहीं ‘अशनि संकेत’ में अकाल की राजनीति और ‘घरे बाइरे’ में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद पर चोट की.
जयंती विशेष: 1944 में उनकी एक गुमनाम शख़्स की तरह मौत हो गई जबकि तब तक उनका शुरू किया हुआ कारवां काफी आगे निकल चुका था. फिल्मी दुनिया की बदौलत कुछ शख़्सियतों ने अपना बड़ा नाम और पैसा कमा लिया था. घुंडीराज गोविंद फाल्के को हम आम तौर पर दादा साहब फाल्के के नाम से जानते हैं. भारतीय सिनेमा की शुरुआत करने वाले इस शख्स की पहचान सिर्फ आज एक अवॉर्ड के नाम तक महदूद रह गई है. भारत सरकार
साक्षात्कार: ‘ये वो मंज़िल तो नहीं’, ‘धारावी’, ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी’ जैसी फिल्में बनाने वाले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त निर्देशक सुधीर मिश्रा से प्रशांत वर्मा की बातचीत.