ममता न तो अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोपों-अफवाहों पर लगाम कस पा रही हैं और न ही बहुसंख्यक उग्रता पर. आखिर सांप्रदायिकता को रोकने में बहुसंख्यक वोटों की सरकारों की तरह अल्पसंख्यक वोटों की सरकारें भी क्यों लाचार नज़र आती हैं?
नरेंद्र मोदी सरकार के पिछले तीन साल के राज में ऐसा बहुत कुछ हुआ जिसने मुसलमानों में असुरक्षा और भय की तीव्र भावना पैदा करने का काम किया.
मुसलमानों के एक तबके में भाजपा को लेकर स्वीकार्यता बढ़ी है, लेकिन भाजपा की तरफ़ से ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला है कि मुसलमानों के लिए कुछ किया हो.
कहने के लिए इस्लाम शक्ति और विश्व-बंधुत्व का धर्म कहलाता है, हिंदू धर्म ब्रह्मज्ञान और सहिष्णुता का धर्म बतलाया जाता है, किंतु क्या इन दोनों धर्मों ने अपने इस दावे को कार्यरूप में परिणत करके दिखलाया?
भारत की सियासत में जब तक अलग से मुसलमानों की बात होती रहेगी तब तक हिंदुत्व ज़िंदा रहेगा.
हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा ऐसे माहौल में समाज में सांप्रदायिक भय खड़ा करता है. हिंसा का भय 1984 के चुनाव में राजीव गांधी के रणनीतिकारों ने भी खड़ा किया था. तब राजीव गांधी ने भी जीत का कीर्तिमान बनाया था. यह कीर्तिमान अब मोदी-शाह ने बनाया है.
मैं ये बचपन से सुनता आ रहा हूं कि मस्जिदों में असलहे रखे जाते हैं. हिंदुओं की एक बड़ी आबादी इसे सच मानती है. आप उसको कुरेद सकते हैं, हिंसक बना सकते हैं.