आज़ादी के सत्तर साल बाद भी एक बीमार देश राष्ट्रवाद की ऊर्जा की तलाश में भटक रहा है

कश्मीर, आतंकवादी, वामपंथी, जेएनयू और जेएनयू टाइप, राष्ट्रवाद, दुर्गा, सब कुछ घालमेल हो जाता है. देश जैसे एक विक्षिप्तता में बड़बड़ा रहा है. सन्निपात से उसे होश में लाना नामुमकिन हो रहा है.

क्यों देश की राजनीतिक और आर्थिक ताक़त कुछ परिवारों तक सिमटकर रह गई है

क्या अगले आम चुनाव में मोदी सरकार या महागठबंधन में से कोई नेता या दल अपने चुनावी घोषणा-पत्र में यह वादा कर सकता है कि वो देश की आम जनता को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधा देने की संवैधानिक जवाबदारी निभाने के लिए 2019 से देश के अरबपतियों और अमीरों पर उचित टैक्स लगाने का काम करेगा?

आरटीआई में खुलासा, राजस्थान में विधायकों के वेतन-भत्तों पर 90.79 करोड़ रुपये ख़र्च

पिछले पांच सालों में राजस्थान के विधायकों के वेतन-भत्तों पर 90.79 करोड़ रुपये ख़र्च किया गया है. वहीं पूर्व विधायकों को मिलने वाली पेंशन राशि लगभग तीन गुना बढ़ गया है.

जजों की नियुक्ति: एनजेएसी क़ानून को निरस्त करने के फैसले पर पुनर्विचार याचिका ख़ारिज

सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर 2015 को जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की 22 साल पुरानी कॉलेजियम प्रणाली की जगह लेने वाले एनजेएसी क़ानून, 2014 को असंवैधानिक और अमान्य घोषित किया था.

मीडिया बोल, एपिसोड 77: संघ-भाजपा की अयोध्या और ‘ट्विटर डेमोक्रेसी’

मीडिया बोल की 77वीं कड़ी में उर्मिलेश संघ-भाजपा के मंदिर-मस्जिद, चुनाव और 'ट्विटर डेमोक्रेसी' पर वरिष्ठ पत्रकार क़ुर्बान अली, सामाजिक कार्यकर्ता मनीषा बांगर और वरिष्ठ पत्रकार शैलेश से चर्चा कर रहे हैं.

प्रेस पर प्रतिबंध लगाने से भारत एक तानाशाह देश बन जाएगा: मद्रास उच्च न्यायालय

मानहानि के एक मामले की सुनवाई करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रेस द्वारा कुछ अवसरों पर गड़बड़ियां हो सकती हैं लेकिन लोकतंत्र के व्यापक हित को देखते हुए इन्हें नज़रअंदाज़ करने की ज़रूरत होती है.

मध्य प्रदेश में विधायकों के वेतन-भत्तों पर साढ़े पांच साल में 149 करोड़ रुपये ख़र्च: आरटीआई

आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक राज्य में हर एक विधायक की कमाई सूबे की अनुमानित प्रति व्यक्ति आय के मुक़ाबले क़रीब 18 गुना ज़्यादा थी.

न्यूज़ चैनल अब जनता के नहीं, सरकार के हथियार हैं

2019 का चुनाव जनता के अस्तित्व का चुनाव है. उसे अपने अस्तित्व के लिए लड़ना है. जिस तरह से मीडिया ने इन पांच सालों में जनता को बेदख़ल किया है, उसकी आवाज़ को कुचला है, उसे देखकर कोई भी समझ जाएगा कि 2019 का चुनाव मीडिया से जनता की बेदख़ली का आख़िरी धक्का होगा.

देश में संविधान लागू है और क़ानून अपना काम कर रहा है

रोजगार नहीं है. उत्पादन घट गया है. किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नसीब नहीं हो रहा है. हेल्थ सर्विस चौपट हो चली है. शिक्षा-व्यवस्था डांवाडोल है. मुस्लिम ख़ामोश हो गया है. दलित चुपचाप है लेकिन आवाज़ नहीं उठनी चाहिए क्योंकि देश में क़ानून अपना काम कर रहा है.

अब पराया लगता है यह देश

हम देश के एक छोटे से क़स्बे में पले-बढ़े लेकिन उस दौर में लोगों का दिलो-दिमाग राजनीति ने इतना छोटा नहीं था, जबकि देश का विभाजन हुए बहुत अरसा भी नहीं बीता था. नफ़रत की ऐसी आग नहीं लगी हुई थी, जैसी आज लगी है.

जो आज दूसरों को ‘एंटी नेशनल’ बता रहे हैं, कभी वे भी ‘देशद्रोही’ हुआ करते थे

एंटी-नेशनल, भारत विरोधी जैसे शब्द आपातकाल के सत्ताधारियों की शब्दावली का हिस्सा थे. आज कोई और सत्ता में है और अपने आलोचकों को देश का दुश्मन बताते हुए इसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है.

क्या सत्ता के सामने भारतीय मीडिया रेंगने लगा है?

संपादकों का काम सत्ता के प्रचार के अनुकूल कंटेट को बनाए रखने का है और हालात ऐसे हैं कि सत्तानुकूल प्रचार की एक होड़ मची हुई है. धीरे-धीरे हालात ये भी हो चले हैं कि विज्ञापन से ज़्यादा तारीफ़ न्यूज़ रिपोर्ट में दिखाई दे जाती है.

जेएनयू: ‘जब कोर्ट से काम होना है तो कुलपति पद और प्रशासन को ध्वस्त कर देना चाहिए’

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हाल के दिनों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब अदालत की दख़ल के बाद छात्र-छात्राओं की पीएचडी थीसिस जमा हुई है और उनका अगले सेमेस्टर में पंजीकरण हुआ है.

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