परवीन शाकिर: मैं अब हर मौसम से सिर ऊंचा करके मिल सकती हूं…

परवीन शाकिर की रचनाएं साहित्य में जिस स्त्री दृष्टि को लाईं, वह निस्संदेह मील का पत्थर है. पश्चिमी नारीवादी अवधारणा या उससे प्रभावित साहित्य की लोकप्रियता तो आम बात है, पर भारत-पाकिस्तान जैसे देशों की कुंठित सामाजिकता और पितृवादी संस्कृति में जब स्त्रियां अपनी अनुभूतियां दर्ज करती हैं, तो वह निज को राजनीतिक बना देने का काम करता है. 

सुरेश सलिल: नदी भूमिगत हो गई, स्मृति बची है, मित्र…

स्मृति शेष: बीते 22 फरवरी को प्रसिद्ध कवि, अनुवादक और संपादक सुरेश सलिल का निधन हो गया. विश्व साहित्य के हिंदी अनुवाद के साथ-साथ उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी की रचनावली के संपादन का महत्वपूर्ण काम किया था.

बंटवारे के बाद हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत हमेशा के लिए बदल गया

आज़ादी के 75 साल: जब सत्ता यह तय करती है कि जनता क्या सुन सकती है, क्या गा सकती है, तब संगीत और संगीतकारों को अपना रास्ता बदलना पड़ता है या ख़त्म हो जाना पड़ता है.

‘जितने हरामखोर थे कुर्बो-जवार में, परधान बन के आ गए अगली कतार में’

हिंदी कविता में जब कुछ बड़े कवियों की धूम मची थी, अदम गोंडवी अपने श्रोताओं और पाठकों को गांवों की उन तंग गलियों में ले गए जहां जीवन उत्पीड़न का शिकार हो रहा था.