पुस्तक समीक्षा: अर्थशास्त्री परकाला प्रभाकर की 'नए भारत की दीमक लगी शहतीरें: संकटग्रस्त गणराज्य पर आलेख' न केवल भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य का विश्लेषण करती है, बल्कि बताती है कि देश के लोकतांत्रिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए कौन से क़दम ज़रूरी हैं.
आज़ादी ने हमें लोकतंत्र दिया, जबकि नस्लीय राष्ट्रवाद का परिणाम बंटवारा था, जिसने अपने पीछे खून से लथपथ सांप्रदायिक हिंसा के निशान छोड़े. बेशक राष्ट्रवाद अच्छा है- लेकिन इसने नस्लीय अल्पसंख्यकों, कमज़ोरों और जिन्हें यह अपने यहां का नहीं मानता है, के लिए ख़तरे खड़े किए हैं.
पत्रकारिता और देशभक्ति का साथ विवादास्पद है. देशभक्ति अक्सर सरकार के पक्ष का आंख मूंदकर समर्थन करती है और फिर प्रोपगेंडा में बदल जाती है. आज सरकार राष्ट्रवाद के नाम पर अपना प्रोपगेंडा फैलाने की कला में पारंगत हो चुकी है और जिन पत्रकारों पर सच सामने रखने का दारोमदार था, वही इसमें सहभागी हो गए हैं.
जब इस दौर का इतिहास लिखा जाएगा, नफ़रत का माहौल बनाने में मीडिया की भूमिका का ज़िक्र ख़ासतौर पर होगा.
अपनी नई किताब में इतिहासकार एस. इरफान हबीब ने भारत में राष्ट्रवाद के उदय और विकास पर चर्चा की है.