‘ह्वाइल वी वॉच्ड’ लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में खड़े एक निहत्थे पत्रकार की वेदना है

‘ह्वाइल वी वॉच्ड’ डॉक्यूमेंट्री घने होते अंधेरों की कथा सुनाती है कि कैसे इसके तिलस्म में देश का लोकतांत्रिक ढांचा ढहता जा रहा है और मीडिया ने तमाम बुनियादी मुद्दों और ज़रूरी सवालों की पत्रकारिता से मुंह फेर लिया है.

जब सांप्रदायिकता और पत्रकारिता में भेद मिट जाए, तब इसका विरोध कैसे करना चाहिए?

जब पत्रकारिता सांप्रदायिकता की ध्वजवाहक बन जाए तब उसका विरोध क्या राजनीतिक के अलावा कुछ और हो सकता है? और जनता के बीच ले जाए बग़ैर उस विरोध का कोई मतलब रह जाता है? इस सवाल का जवाब दिए बिना क्या यह समय बर्बाद करने जैसा नहीं है कि 'इंडिया' गठबंधन का तरीका सही है या नहीं.