हिंदी लेखक अन्य कलाओं के रसास्वादन से क्यों बचता है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी ने कलाओं को अंगीकार कर अपना सर्जनात्मक और बौद्धिक परिवेश नहीं बनाया. जो थोड़ा-बहुत कलाओं की शुद्ध भौतिक उपस्थिति के कारण अनजाने-अनचाहे बन गया था, उसे भी अपनी जिज्ञासाहीनता और अरुचि, उपेक्षा के कारण गंवा दिया या नष्ट कर दिया.

मृत्युंजय कला: रज़ा के 103 बरस

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: आधुनिकता के बेहद बड़बोले समय में रज़ा शांति और मौन की तलाश के चित्रकार थे. जब बहुत सारी कला अपने समय का आख्यान चित्रित करने में व्यस्त थी, वे आत्मा की ज्यामिति की खोज में व्यस्त थे.

गुलाम मोहम्मद शेख़ की कृतियां और छुटभैयों की राजनीति के हवाले कला संस्थान

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: दिल्ली के एक संग्रहालय में कलाकार गुलाम मोहम्मद शेख़ की प्रदर्शनी के लिए राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, दिल्ली और भारत भवन, भोपाल ने उनकी कलाकृतियां नहीं दीं. इन दोनों ही ने रज़ा की शती पर कुछ भी करने से इनकार किया था.

क्या लगातार हमलों और क्षति के बाद संवैधानिक राष्ट्र बच पाएगा?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस क़दर लुच्चई-लफंगई-टुच्चई-दबंगई दृश्य पर छा गई हैं कि लगता है भद्रता और सिविल समाज जैसे ग़ायब या पूरी तरह से निष्क्रिय हो गए हैं.

मंदिर के होने से स्वतंत्र होने की तुलना संविधान और उससे प्राप्त लोकतंत्र का घोर अपमान है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: संविधान में सिर्फ़ स्वतंत्रता का अनेक स्तरों पर सत्यापन भर नहीं है उसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार, समता और न्याय के मूल्यों की स्थापना, सभी नागरिकों को धर्म-जाति-लिंग आदि से परे कुछ बुनियादी अधिकार, लोकतांत्रिक व्यवस्था आदि के रूप में क्रांति की गई है.

देखना, परखना और निरखना: हमारी दृष्टि कहां निवास करती है?

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जीने का देखने से बड़ा गहरा और अनिवार्य संबंध है. अगर दिखाई न दे तो जीवन, प्रकृति, घर-परिवार आदि का क्या अस्तित्व? बहुत सारी सचाई तो इसलिए सचाई है, हमारे लिए, कि हम उसे देख पाते हैं. पर यह भी सच है कि बहुत सारी सचाई हम अनदेखी करते हैं.

‘मेन एट होम: घरेलू ज़िंदगी में मर्दों की हाज़िरी-गै़रहाज़िरी का लेखाजोखा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज्ञानेंद्र पांडेय की ‘मेन एट होम’ पुरुषों की घरों में अनुपस्थिति के बारे में है. ज्ञानेंद्र बताते हैं कि दक्षिण एशियाई घर-परिवार के इतिहास में मर्द-जाति की गै़र-हाज़िरी अब भी कायम है. बच्‍चे जनने और पालन-पोषण को लेकर समाज की आम धारणा के चलते गृहस्‍थी आज तक औरत और उसके बच्‍चों की दुनिया मानी जाती है.

कल्पना की बहुलता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय कल्पना-सृजन-विचार का लगभग ज़रूरी कर्तव्य हमें आश्वस्त करना है कि हम अपनी बहुलता बचा सकते हैं; कि हम विकल्पों को सोच और रूपायित कर सकते हैं, कि हमारे पास ऐसे बौद्धिक-सर्जनात्मक उपकरण हो सकते हैं जो हमें प्रतिरोध के लिए सन्नद्ध करें.

जीवन को लेकर साहित्य कभी पूर्णकाय नहीं हो सकता

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लिखना पर्याप्त होने, सफल और सार्थक होने के भ्रम को ध्वस्त करता है और मनुष्य होने की अनिवार्य ट्रैजडी के रू-ब-रू खड़ा करता है. हम आधे-अधूरे हैं यह साहित्य के ट्रैजिक उजाले में हम कुछ साफ़ देख पाते हैं.

ज़ाकिर हुसैन का जाना शास्त्रीयता और मूर्धन्यता दोनों की समान क्षति है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज़ाकिर हुसैन के वादन ने युवाओं के बीच जो लोकप्रियता हासिल की वह भी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दुर्लभ उपलब्धि है. आधुनिकता ज़ाकिर के यहां हस्तक्षेप नहीं है, वह निरंतरता का कल्पनाशील विस्तार है- सहज और अनिवार्य.

आस्था अनुष्ठान में बदल रही है; धर्म का अज्ञान तेज़ी से बढ़ रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है.

कलाकार जो करता है उस पर यक़ीन करो, बजाय उसके जो वो अपनी कला के बारे में कहे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ब्रिटिश चित्रकार डेविड हाकनी का कथन है कि कलाकार काफ़ी पकी उमर तक जी सकते हैं क्‍योंकि वे अपने शरीर के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते. हाथ, हृदय और आंख कंप्यूटर से अधिक जटिल हैं.

विचारधाराएं साहित्य से नहीं उपजतीं, फिर भी साहित्य को अपना उपनिवेश बनाने की चेष्टा करती हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म का छद्म करती विचारधारा ‘हिंदुत्व’ कहलाती है. उसके प्रभाव में भारतीय समाज जितना सांप्रदायिक धर्मांध और हिंसक आज है उतना पहले कभी नहीं हुआ.

‘दिस टू इज़ इंडिया’ में मौजूद दृष्टियां भारत की बुनियादी बहुलता का सत्यापन हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बुद्धि-ज्ञान-विचार-सृजन के लिए यह कठिन समय है और यह सोचना काफ़ी नहीं है कि जैसे हर समय अंततः बीत जाता है यह भी बीत जाएगा. इसका अभी सजग प्रतिकार ज़रूरी है. गीता हरिहरन की ‘दिस टू इज़ इंडिया’ यही करती है.

शती के अवसर पर मूर्धन्‍यों की स्मृति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 2024 मूर्धन्य चित्रकारों सूज़ा, रामकुमार, वासुदेव गायतोंडे और केजी सुब्रमण्यन का जन्मशती वर्ष हैं. उन्हें याद करना, उनके प्रति आलोचनात्म्क कृतज्ञता व्यक्त करना हमारी कलात्मक-नैतिक ज़िम्मेदारी है.

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