कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ब्रिटिश चित्रकार डेविड हाकनी का कथन है कि कलाकार काफ़ी पकी उमर तक जी सकते हैं क्योंकि वे अपने शरीर के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते. हाथ, हृदय और आंख कंप्यूटर से अधिक जटिल हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म का छद्म करती विचारधारा ‘हिंदुत्व’ कहलाती है. उसके प्रभाव में भारतीय समाज जितना सांप्रदायिक धर्मांध और हिंसक आज है उतना पहले कभी नहीं हुआ.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बुद्धि-ज्ञान-विचार-सृजन के लिए यह कठिन समय है और यह सोचना काफ़ी नहीं है कि जैसे हर समय अंततः बीत जाता है यह भी बीत जाएगा. इसका अभी सजग प्रतिकार ज़रूरी है. गीता हरिहरन की ‘दिस टू इज़ इंडिया’ यही करती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 2024 मूर्धन्य चित्रकारों सूज़ा, रामकुमार, वासुदेव गायतोंडे और केजी सुब्रमण्यन का जन्मशती वर्ष हैं. उन्हें याद करना, उनके प्रति आलोचनात्म्क कृतज्ञता व्यक्त करना हमारी कलात्मक-नैतिक ज़िम्मेदारी है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पहले के निज़ामों में कमोबेश संस्कृति की स्वतंत्रता और गरिमा का एहतराम और आदर दोनो ही थे: वर्तमान निज़ाम ने संस्कृति को राजनीति की दासी और अधिक से अधिक उसे सत्ता के महिमामंडन और शोभा की चीज़ बना दिया है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी राज्यों में अपनी सांस्कृतिक संस्थाओं को नष्ट करने की लंबी परंपरा है. भारत भवन भी कोई अपवाद नहीं है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कृष्ण कुमार की ‘थैंक यू गांधी’ कई बार संस्मरणात्मक लगते हुए भी आज के भारत के बारे में है. उसमें कथा, कथा-इतर गद्य, स्मृतियां, आत्मवृतांत, विचार-विश्लेषण आदि सबका रसायन बन गया है और उनमें पाठक की आवाजाही सहज ढंग से होती चलती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय गांधी सच्चे प्रतिरोध, प्रगतिशीलता, अध्यात्म और सच-प्रेम-सद्भाव-न्याय पर आधारित राजनीति के सबसे उजले प्रतीक हैं. उनकी मूल्यदृष्टि को पुनर्नवा कर भारत की बहुलता, उसकी आत्मा और अंतःकरण बचाए जा सकते हैं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पांचेक दशक पहले गुंडई को अनैतिक माना जाता था और समाज में उसकी स्वीकृति नहीं थी. आज हम जिस मुक़ाम पर हैं उसमें गुंडई को लगभग वैध माना जाने लगा है- उस पर न तो ज़्यादातर राजनीतिक दल आपत्ति करते हैं, न ही मीडिया.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिंदी संसार की पांच बड़ी भाषाओं में एक है. पर ज्ञान, परिष्कार, विपुलता आदि के कोण से देखें तो तथ्य यह है कि हिंदी, चीनी या जापानी या कोरियाई की तरह ज्ञान-विज्ञान की भाषा नहीं है, न उस ओर अग्रसर ही है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज कर उसे बेझिझक ज़ाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता की कविता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यामिनी कृष्णमूर्ति देह और नृत्य की ज्यामिति को बहुत संतुलित ढंग और अचूक संयम से व्यक्त व अन्वेषित करती थीं. नर्तकी और नृत्य इस क़दर तदात्म हो जाते थे कि उनको अलगाकर देखना या सराहना संभव नहीं होता था.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: समाज, शिक्षा, धर्म, मीडिया आदि में जो ज़हर फैल गया है वह रातोंरात ग़ायब नहीं हो जाएगा, न हो रहा है. हमारे समय का एक दुखद अंतर्विरोध यह है कि ये शक्तियां अब भी हावी और सक्रिय हैं, उन्हें समर्थन देने वाला पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग झांसों-वायदों की गिरफ़्त में है.