नेहरू का कहना था कि यह अच्छी बात है कि भारत की जनता को यक़ीन है कि वह सरकार बदल सकती है. उन पर सवाल किया जा सकता है और किया जाना चाहिए. कविता में जनतंत्र स्तंभ की तेईसवीं क़िस्त.
जब भी भारत के अतीत और भविष्य पर बात होगी तो नेहरू के वैचारिक खुलेपन की याद आएगी. देश को उस दिशा में बढ़ना होगा जिसकी तरफ़ नेहरू जाना चाहते थे- समावेशी और उदार भारत की तरफ़.
कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘सांस्कृतिक मार्क्सवादी’ और ‘वोक पीपल’ (Woke People) को लेकर संघ सुप्रीमो की ललकार एक तरह से उत्पीड़ितों की दावेदारी और स्वतंत्र चिंतन के प्रति हिंदुत्व वर्चस्ववाद की बढ़ती बेचैनियों को ही बेपर्द करती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारतीय समाज में कई भीषण और गहरी दरारें पड़ चुकी हैं- जो पहले से थीं उन्हें और चौड़ा किया जा रहा है. सत्तारूढ़ राजनीति खुल्लमखुल्ला अभद्रता, गाली-गलौज, कीचड़फेंकू वृत्ति आदि से राजनीति, व्यापक ज़रूरी मुद्दों पर बहस को लगभग असंभव बना रही है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: उर्दू कविता, अपने हासिल की वजह से भारतीय कविता का बेहद ज़रूरी और मूल्यवान हिस्सा रही है. वह इस तरह हिंदुस्तान का ज़िंदगीनामा है जिसने कभी राजनीति और अध्यात्म के पाखंड को पकड़ने में चूक नहीं की है. उसमें समय के प्रति जागरूकता है, तो उसका अतिक्रमण भी.