विलियम डेलरिंपल ने हाल ही कहा कि भारत में भ्रामक इतिहास की लोकप्रियता के लिए पेशेवर इतिहासकार भी ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने आसान ज़बान में इतिहास नहीं लिखा, इसलिए इतिहास का वॉट्सऐप संस्करण लोकप्रिय हो गया. लेकिन उनकी यह प्रस्तावना सही नहीं है, क्योंकि जनता सजग होकर भ्रामक और ग़लत व्याख्याओं को चुनती आई है.
आचार्य नरेंद्र देव कृषि क्रांति को समाजवादी क्रांति से जोड़ने के पक्षधर थे, इसलिए वे किसान और मज़दूरों की क्रांतिकारी शक्ति के बीच विरोध नहीं, बल्कि परस्पर पूरकता देखते थे. इस 31 अक्टूबर को उनकी 135वीं जयंती थी.
पिछले वर्षों में अदालतें अपने निर्णयों के संदर्भ बिंदु संविधान की जगह धार्मिक ग्रंथों, धर्मशास्त्रों को बना रही हैं. इस तरह हिंदुओं की सार्वजनिक कल्पना को बदला जा रहा है.
धीरेंद्र के. झा की 'गोलवलकर: द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' साफ़ करती है कि सावरकर के साथ एमएस गोलवलकर को भारतीय फ़ासिज़्म का जनक कहा जा सकता है. इसे पढ़कर हम यह सोचने को बाध्य होते हैं कि क्यों फ़ासिज़्म के इस रूप के प्रति भारत के हिंदुओं में सहिष्णुता है.
पुण्यतिथि विशेष: डॉ. राममनोहर लोहिया के संसदीय जीवन की विडंबना पर जाएं, तो अल्पज्ञात व अचर्चित होने के बावजूद उनमें सबसे बड़ी यह है कि अपने अंतिम दिनों में वे लोकसभा में जिस कन्नौज सीट का प्रतिनिधित्व करते थे, अपने निधन के बाद आए हाईकोर्ट के फैसले में उसे हार गए थे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कांग्रेस मुक्त भारत के नारे लगाते हैं, अगर वे दीनदयाल उपाध्याय की ओर मुड़ें तो पता चलेगा कि भाजपा का आचरण उनके विचारों को नकार देता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे सामाजिक आचरण की सारी मर्यादाएं तज दी गई हैं. देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था संसद में ख़रीद-फ़रोख़्त का काम हो सकता है तो हम इसे राजनीतिक लेन-देन समझते हैं जो होता ही रहता है. हम ऐसा लोकतंत्र बनते जा रहे हैं जिसमें मर्यादा और नैतिक कर्म की जगह घट रही है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस चुनाव ने निश्चय ही लोकतंत्र को सशक्त-सक्रिय किया है पर उसकी परवाह न करने वालों को फिर सत्ता में बने रहने का अवसर देकर अपने लिए ख़तरा भी बरक़रार रखा है.
नेहरू का कहना था कि यह अच्छी बात है कि भारत की जनता को यक़ीन है कि वह सरकार बदल सकती है. उन पर सवाल किया जा सकता है और किया जाना चाहिए. कविता में जनतंत्र स्तंभ की तेईसवीं क़िस्त.
जब भी भारत के अतीत और भविष्य पर बात होगी तो नेहरू के वैचारिक खुलेपन की याद आएगी. देश को उस दिशा में बढ़ना होगा जिसकी तरफ़ नेहरू जाना चाहते थे- समावेशी और उदार भारत की तरफ़.
जनतंत्र में आशंका बनी रहती है कि जनता प्रक्रियाओं को लेकर निश्चिंत हो जाए और यह मानकर उन पर भरोसा कर बैठे कि वे अपना काम करते रहेंगे और जनतंत्र सुरक्षित रहेगा. मगर अक्सर यह नहीं होता. कविता में जनतंत्र स्तंभ की ग्यारहवीं क़िस्त.
भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री सत्ता पर पूरी तरह नियंत्रण चाहते हैं. उनके तमाम कदम इसी दिशा में जाते दिखाई देते हैं. क्या भारतीय संविधान उन्हें इसकी अनुमति देता है? संविधान निर्माता प्रधानमंत्री को किस तरह की शक्तियां सौंपना चाहते थे?
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे लोकतंत्र की एक विडंबना यह रही है कि उसके आरंभ में तो राजनीतिक नेतृत्व में बुद्धि ज्ञान और संस्कृति-बोध था जो धीरे-धीरे छीजता चला गया है. हम आज की इस दुरवस्था में पहुंच हैं कि राजनीति से नीति का लोप ही हो गया है.
चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न का अलंकरण क़ाबिले-तारीफ़ है; लेकिन अगर उनके विचारों की लय पर सरकार अपने कदम उठाती तो बेहतर होता. सरकार से ज़्यादा यह दारोमदार रालोद के युवा नेता पर है कि वह अपने पुरखे और भारतीय सियासत के एक रोशनख़याल नेता के आदर्शों को लेकर कितना गंभीर है.
वीडियो: जम्मू-कश्मीर के हालात, राम मंदिर, सांप्रदायिकता, मोदी सरकार के कामकाज समेत विभिन्न मुद्दों पर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल की बातचीत.