स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रहने वाला आरएसएस आज विउपनिवेशीकरण का दावा कैसे कर सकता है?

पिछले वर्षों में अदालतें अपने निर्णयों के संदर्भ बिंदु संविधान की जगह धार्मिक ग्रंथों, धर्मशास्त्रों को बना रही हैं. इस तरह हिंदुओं की सार्वजनिक कल्पना को बदला जा रहा है.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: X/@friendsofrss)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दूसरे प्रमुख माधव सदाशिव गोलवलकर की धीरेंद्र झा द्वारा लिखी जीवनी पर चर्चा के दौरान पत्रकार हरतोष बल ने पूछा कि आरएसएस ने जब उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया, फिर आज क्यों वह उससे जुड़ी हर चीज़ पर क़ब्ज़ा करके उससे अपना रिश्ता दिखलाना चाहता है.

गोष्ठी के बाद इन सवालों पर मैं सोचता रहा. आरएसएस का सबसे बड़ा सच यह है कि उसने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया. बल्कि कई मौक़ों पर उसने मुक्ति आंदोलन के ख़िलाफ़ काम किया. उसने लंबे वक्त तक तिरंगे को स्वीकार करने से इनकार किया. धीरेंद्र झा की किताब में ही इसके कई उदाहरण हैं कि आरएसएस ने सचेत रूप से ख़ुद को राष्ट्रीय आंदोलन से दूर रखा. जिन सुभाष बोस को आज वह सबसे बड़ा राष्ट्रीय नायक मानकर जिनकी पूजा करने का नाटक करता है और जिन्हें नेहरू और गांधी के बरक्स खड़ा करता है, उन्हीं बोस से मिलने से आरएसएस के प्रमुख हेडगेवार ने इनकार कर दिया था.

गांधी से मतभेद के कारण बोस कांग्रेस से अलग हो गए थे और अंग्रेजों से लड़ने के लिए अलग संगठन बनाने की तैयारी कर रहे थे. वे सहयोगियों की तलाश कर रहे थे. उन्होंने आरएसएस के बारे में सुना था. बोस चाहते थे कि वह उनके साथ आए. लेकिन हेडगेवार की दिलचस्पी अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आंदोलन में हिस्सा लेने की नहीं थी.

धीरेंद्र झा ने आरएसएस के सिद्धांतकारों के हवाले से बतलाया है कि उनके मुताबिक़ अंग्रेज़ी राज एक प्रकार का ‘दैवी वरदान’ था. इसलिए जब बोस का संदेश लेकर हेडगेवार के पुराने सहयोगी बालाजी हुद्दर उनके पास आए तो उन्होंने बीमार होने का नाटक किया और बोस को जवाब देने से भी इनकार कर दिया, मिलने की बात तो दूर रही.

जैसे सुभाष बोस से संघ ने दूरी बनाई, उसी प्रकार भगत सिंह , सुखदेव, राजगुरु की फांसी के बाद उस फांसी के ख़िलाफ़ किसी भी विरोध प्रदर्शन से संघ दूर रहा. आरएसएस के तीसरे प्रमुख बाला साहब देवरस ने भगत सिंह की फांसी के बाद तत्कालीन संघ प्रमुख हेडगेवार से अपनी मुलाक़ात के बारे में लिखा है. धीरेंद्र झा ने देवरस की ज़बानी इस मुलाक़ात के बारे में बतलाया है. वे सब नौजवान थे और इस फांसी से बहुत क्षुब्ध और उत्तेजित थे. पूरे देश में फांसी का विरोध हो रहा था. वे भी इस विरोध में भाग लेना चाहते थे. लेकिन हेडगेवार ने उन्हें इस ‘मूर्खतापूर्ण योजना’ में भाग लेने से रोका और उसके मुक़ाबले संघ के कार्य की महत्ता समझाने के लिए सात दिनों तक चर्चा की. नौजवानों को भगत सिंह के रास्ते पर क्यों नहीं जाना चाहिए, इसके लिए संघ के दूसरे प्रमुख ने जो तर्क दिया वह संघ की मानसिकता का सबसे अच्छा उदाहरण है.

गोलवलकर ने लिखा कि भगत सिंह जैसे लोग भले ही औसत आदमियों से ऊपर हैं लेकिन उन्हें समाज में आदर्श नहीं माना जाता. वे आदर्श नहीं हो सकते क्योंकि वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुए. वे अपने मक़सद को हासिल नहीं कर सके, इसका मतलब यही है कि उनके चरित्र में कोई भारी कमी होगी.

‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गोलवलकर ने भगत जैसे नाकामयाब लोगों की भर्त्सना करते हुए लिखा, ‘यह तो साफ़ है कि जो अपने जीवन में असफल हैं उनमें ज़रूर कोई भारी कमी रही होगी. जो ख़ुद हार गया, वह दूसरों को कैसे प्रकाश दे सकता है और राह दिखला सकता है?’ संघ के अनुसार भगत सिंह और उनके साथी कमजोर व्यक्तित्व वाले थे क्योंकि वे सफल नहीं हुए.

गीता का जाप करने वाला संघ वास्तव में सफलता की पूजा करने वाला संगठन है. ‘कर्म करो, कर्म के फल की चिंता मत करो’ के सिद्धांत को वह नहीं मानता. वह पहले फल की गारंटी करके ही कर्म में प्रवृत्त होने की सोच सकता है. इतना ही नहीं, वह किसी भी ऐसे रास्ते नहीं चलना चाहता जिस पर किसी तरह का ख़तरा हो. वह आज ज़रूर खुदीराम बोस, भगत सिंह, सुभाष बोस की मूर्तियों पर माला चढ़ाता है लेकिन जिस समय उनके साथ जाने का वक्त था, उस वक्त संघ प्रमुख ने अपने अनुयायियों को उनसे दूर रहने का निर्देश दिया.

संघ के दर्शन और कार्य प्रणाली में किसी उद्देश्य के लिए बलिदान का कोई स्थान नहीं है. किसी प्रकार के त्याग का भी नहीं. वीरता इसी कारण आरएसएस के लिए वरेण्य गुण नहीं है क्योंकि वीरता दूसरों के साथ हिंसा में जितनी नहीं उतने अपने आदर्श के लिए मर मिटने में है. आरएसएस इसे स्वीकार नहीं करता. वह दूसरों को मारने में यक़ीन करता है, अपनी जान देना उसके लिए मूर्खता है.

आरएसएस जिन ‘गुणों’ का प्रशिक्षण देता है, वे हैं घृणा, हिंसा, चतुराई, अर्धसत्य और असत्य. किसी भी तरह आत्मरक्षा की जानी चाहिए, यह आरएसएस की समझ है. अगर झूठ बोलने से काम बनता है, चालाकी से रास्ता निकलता है तो उनका इस्तेमाल करने में कोई हर्ज नहीं. छल, अर्धसत्य, असत्य, हिंसा को कृष्ण नीति कहकर उचित ठहराया जाता है. यह सब कुछ हिंदुओं को संगठित करने के लिए ज़रूरी है. हिंदुओं का आख़िरी उद्देश्य है पूरे भारत को अपने एकछत्र अधिकार में लेना. दूसरों को अपने अधीन करना. भारत को संपूर्णतः हिंदुओं का होना चाहिए. शेष सब उनकी मर्ज़ी के अधीन होंगे. यही सावरकर और गोलवलकर का सिद्धांत है. यही उनके अनुसार देशभक्ति है.

यही कारण है कि संघ सफल अंग्रेजों के साथ रहा और उसने ‘अंग्रेज़ो, भारत छोड़ो’ आंदोलन में भी हिस्सा नहीं लिया. संघ यह तर्क दे सकता है कि उसका बड़ा मक़सद हिंदू राष्ट्र की स्थापना था और वह उसकी तैयारी कर रहा था. वह अपनी ऊर्जा भगत सिंह, बोस या गांधी के साथ जाकर खर्च नहीं करना चाहता था. इसलिए राष्ट्रीय आंदोलन से उसके किसी रिश्ते का सवाल ही नहीं था.

संघ के विपरीत भारत के सामान्य जन अंग्रेजों से आज़ादी के लिए जेल जाने, जान देने को तैयार थे. गांधी ने जनता की हिस्सेदारी को राष्ट्रीय आंदोलन का आधार बनाया. इस वजह से भारत की सार्वजनिक कल्पना पूरी तरह बदल गई. चरखा, खादी, तिरंगा घर-घर पहुंच गए. भारतीय पहचान से वे अभिन्न हो गए. गांधी की छवि को भी इसमें जोड़ सकते हैं. ग़लत या सही, भारत के लोगों ने ख़ुद को गांधी के लोगों के रूप में देखा.

कालांतर में जनता के एक बड़े हिस्से में गांधी की छवि की जगह डॉक्टर बीआर आंबेडकर की छवि ने ले ली. भगवा ध्वज, अयोध्या के राम मंदिर आदि के ज़रिये इस कल्पना को बदलना एक लंबा काम था. हेडगेवार या गोलवलकर में कोई ऐसी आभा न थी कि वे गांधी की जगह ले सकते. सावरकर के जेल जीवन ने उसके इर्द गिर्द एक आभामंडल ज़रूर बना दिया था. इसलिए पहले की राष्ट्रीय कल्पना के तत्वों को लेकर नई कल्पना के लिए रास्ता बनाना ही रणनीतिक रूप से कारगर हो सकता था. इसीलिए हमने देखा कि आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने तिरंगा उठाना शुरू कर दिया.

वैसे ही उन्होंने गांधी को प्रातःस्मरणीय बना दिया. बाद में आंबेडकर को भी माला चढ़ाना शुरू कर दिया गया. 10 साल पहले हमने पहली बार कांवड़ यात्रा में भगवा ध्वज के साथ तिरंगे को देखा. यह हिंदुओं की सार्वजनिक कल्पना को बदलने का चतुर प्रयास था. फिर हिंदुओं की तरफ़ से यह मांग की जाने लगी कि अगर हम अपने धार्मिक अवसर पर तिरंगा लेकर चल सकते हैं तो मुसलमान और ईसाई क्यों नहीं ऐसा कर सकते. ईद पर मस्जिद क्यों नहीं तिरंगा लगाएगी? तिरंगे की आड़ में अब मुसलमानों पर हमला किया जा सकता था. तिरंगा, राष्ट्रगान, वंदेमातरम नई राष्ट्रीय कल्पना के अनिवार्य तत्व थे. उसके साथ जय श्रीराम को भी जोड़ लें.

हिंदुओं की सार्वजनिक कल्पना को बदलने का बड़ा अभियान 1980 के दशक का राम जन्मभूमि अभियान था जो वास्तव में बाबरी मस्जिद को तोड़ने के उकसावे के नारे पर टिका था. यह व्यापक और सघन अभियान था जिसके ज़रिये आक्रामक राम की छवि, भगवा ध्वज और ‘जय श्रीराम’ के नारे को लोकप्रिय बनाया गया. इनके सहारे एक नई हिंदू सार्वजनिक कल्पना का निर्माण किया.

एक लंबे समय तक, और कुछ कुछ अभी भी राष्ट्रीय आंदोलन आज़ाद भारत के सार्वजनिक जीवन के मूल्यों का स्रोत माना जाता रहा था. हम किसी भी कृत्य, सिद्धांत का औचित्य हमेशा आज़ादी के आंदोलन के सहारे साबित करते रहे हैं. गांधी होते तो क्या कहते या करते या भगत सिंह की किसी घटना पर क्या प्रतिक्रिया होती अथवा सुभाष बोस क्या बोलते, इस तरह के वाक्य हम रोज़ाना ही सुना करते हैं. हम अपने आज के निर्णयों के लिए प्रायः इन व्यक्तित्वों से समर्थन मांगते हैं.

दिलचस्प यह है कि आज तक आरएसएस का भी कोई नेता यह कहकर किसी बात को उचित नहीं ठहराता, (कम से कम सार्वजनिक रूप से) कि इसके बारे में हेडगेवार या गोलवलकर या सावरकर का क्या विचार होता. वे अभी भी मानक नहीं बन पाए हैं. समाज के लिए प्रतिमान अभी भी बुद्ध, गांधी, भगत सिंह, बोस ही हैं.

आरएसएस इस वजह से बाध्य हुआ कि वह इन सबसे किसी तरह अपना रिश्ता जोड़े. गांधी का हिंदूपन एक आसानी देता था कि उनकी हत्या के बाद आरएसएस उनकी खाल ओढ़ ले. भगत सिंह और सुभाष बोस की हिंसा भी उपयोगी थी. पटेल की ‘कठोरता’ तो आदर्श थी ही. आज़ादी के आंदोलन से इस तरह आरएसएस ने ये तत्व लिए और उनको अपनी ‘राष्ट्रीय कल्पना’ में मिला दिया. सावरकर को वीर कहकर वीरता की कमी को भी पूरा कर लिया गया. आंबेडकर के लेखन में ऐसे अंश हैं जिनका इस्तेमाल मुसलमान विरोध की पुष्टि के लिए किया जा सकता है.

आरएसएस ने इनके सहारे सार्वजनिक कल्पना में जगह बनाई. लेकिन साथ-साथ भारत के हिंदुओं की सार्वजनिक या राष्ट्रीय कल्पना में तब्दीली का काम धीरे-धीरे किया गया. समय ने भी आरएसएस की मदद की.

1980 के दशक तक वह पीढ़ी विदा होने लगी थी जिसके लिए राष्ट्रीय आंदोलन का महत्त्व था. राजनीतिक संदर्भ बिंदु अब 1974 या 1977 हो गया था. कांग्रेस पार्टी जो कभी आज़ादी के आंदोलन की वारिस थी, अब तानाशाही की प्रतीक बन गई थी. आज़ादी के आंदोलन की जगह दूसरी आज़ादी के आंदोलन ने ले ली थी.आरएसएस पर आज़ादी के आंदोलन में भाग न लेने का जो दाग था, वह जयप्रकाश नारायण और समाजवादियों की कृपा से धुल गया था. वह भारत की तथाकथित संपूर्ण क्रांति का अगुवा दस्ता बन गया था. राममनोहर लोहिया आदि के सहारे दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद को गांधी के स्वराज के बरक्स खड़ा कर दिया गया.

नज़दीक के संदर्भ बिंदु धीरे-धीरे आज़ादी के आंदोलन से खिसककर 1974 और 1977 तक पहुंच गए. साथ-साथ आरएसएस की मूल वैचारिक योजना के अनुसार इस कल्पना के संदर्भ बिंदु को और पीछे खिसकाया जाने लगा.

हिंदुओं की दासता का एक मिथ पहले से चला आ रहा था. वह बंकिमचंद्र चटर्जी भी मानते थे, रामचंद्र शुक्ल भी. समझदार से समझदार हिंदू बोल ही पड़ता है कि मुसलमान आक्रांता भारत आए. मुसलमान और आक्रमण, ये दो शब्द बिना सोचे साथ आ जाते हैं. मुसलमानों ने हिंदुओं को दास बनाया, यह अविचारित धारणा हिंदू सार्वजनिक कल्पना की नींव में है. इसलिए हिंदुओं के लिए यह मानना स्वाभाविक हो गया कि वे 1,200 साल से ग़ुलाम हैं. गांधी की कांग्रेस पार्टी ने 1947 में भारत के हिंदू राष्ट्र बनने का हिंदुओं के मौक़ा हिंदुओं के हाथ से छीन लिया. वह अवसर 2014 में आया. नरेंद्र मोदी ने 2014 की चुनावी जीत के बाद संसद में पहला भाषण देते हुए कहा कि भारत को 1,200 साल की ग़ुलामी से मुक्ति मिली है.

2014 के बाद से शिवाजी, राणा प्रताप, हेमचंद्र विक्रमादित्य, लचित बरफुकन आदि को हिंदुओं के लिए आदर्श संदर्भ बिंदु की तरह प्रस्तावित किया गया. आरएसएस के मुताबिक़ वे सब भारत को मुसलमानों के क़ब्ज़े से आज़ाद करने के युद्ध लड़ रहे थे. भारत की असली ग़ुलामी तो यह थी. अंग्रेज तो भारत से चले गए. मुसलमान यहीं रह गए. बल्कि कई मायनों में भारत की पहचान मुसलमानी निशानियों से ही की जाती है. कोई भी विदेशी मेहमान आए, उसे ताजमहल जाना है. लाल क़िले से ही स्वाधीनता दिवस का झंडा फहराया जाता है. दिल्ली आने पर क़ुतुब मीनार और हुमायूं का मक़बरा या निज़ामुद्दीन औलिया का दर्शन सब करना चाहते हैं. यह एक तरह से उस 1,200 साल की ग़ुलामी का विस्तार है.

भारतीय पहचान पर ‘मुसलमानी मुलम्मा’ मिटाकर ही असल भारतीय पहचान उजागर की जा सकती है. इसे ही वि-उपनिवेशीकरण कहा जाता है. आरएसएस को लगता है कि हम सांस्कृतिक तौर पर अंग्रेजों के नहीं, मुसलमानों के उपनिवेश बन गए हैं. हिंदी को भी उर्दूपन से आज़ाद कराना बाक़ी है. आज़ादी की यह लड़ाई अभी की जा रही है. भारतीय और हिंदू जब पूरी तरह एकमेक न हो जाएं, यह युद्ध चलता रहेगा.

इसलिए अपनी पहचान के संदर्भ बिंदु को खिसकाते हुए सेंगोल तक ले जाया गया. भारतीय सत्ता का प्रतीक सेंगोल बना दिया गया है. विधिवेत्ता मोहन गोपाल और वकील इंदिरा जयसिंह ने अदालतों के पिछले सालों के फ़ैसलों का विश्लेषण करके दिखलाया है कि वे अपने निर्णय के लिए संदर्भ बिंदु संविधान की जगह धार्मिक ग्रंथों, धर्मशास्त्रों को बना रही हैं. इन सबके ज़रिये हिंदुओं की सार्वजनिक कल्पना को बदला जा रहा है. आज़ादी के आंदोलन की छवियां, मध्यकाल और प्राचीन काल की छवियां घुल-मिल गई हैं. हिंदू दिमाग़ और मन में एक भारी घालमेल हो गया है. आरएसएस को इसका लाभ मिल रहा है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)