दुर्गा, अब जाओ…

अच्छा ही है कि दुर्गा आख़िर आज विदा हो जाएंगी. उनकी आंखों के आगे जिस क्षुद्रता का, हिंसा का प्रदर्शन पूरे देश में और अब देश के बाहर भी किया जा रहा है, उसे झेलते रहने को वे मजबूर नहीं रहेंगी.

संस्कृति के कथित रक्षकों को कामसूत्र नहीं, अपनी कुंठा जलानी चाहिए

बजरंग दल को कृष्ण और गोपियों या राधा की रति-क्रीड़ा या किसी अन्य देवी-देवता के शृंगारिक प्रसंगों के चित्रण से परेशानी है तो वे भारत के उस महान साहित्य का क्या करेंगे जो ऐसे संदर्भों से भरा पड़ा है? वे कालिदास के ‘कुमारसंभवम्’ का क्या करेंगे जिसमें शिव-पार्वती की रति-क्रीड़ा विस्तार से वर्णित है. संस्कृत काव्यों के उन मंगलाचरणों का क्या करेंगे जिनमें देवी-देवताओं के शारीरिक प्रसंगों का उद्दाम व सूक्ष्म वर्णन है?

गणाधिपति गणेश की गाथा

माघ कृष्ण चतुर्दशी को काशी में गणेश चतुर्थी का मेला भी लगने लगा जिसमें विघ्नहर्ता, बुद्धिनिधान और विद्या के रक्षक के रूप मे बड़े देवता बन कर स्थापित हो चुके थे.