हिंदुत्व की राजनीति ने हिंदू धार्मिक उत्सवों पर असर डाला है

90 के दशक से ही राजनीति द्वारा धर्म के संगठित और सुनियोजित उपयोग की जो प्रक्रिया आरंभ हुई 2014 के बाद उसमें और तेज़ी आई. पिछले कुछ वर्षों में तो छोटे स्थानीय धार्मिक मेलों में राष्ट्रवाद की घुसपैठ शुरू हुई है.

भारत की नई राजनीतिक संस्कृति में ज्ञान के बजाय अज्ञान का महिमामंडन हो रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पहले के निज़ामों में कमोबेश संस्कृति की स्वतंत्रता और गरिमा का एहतराम और आदर दोनो ही थे: वर्तमान निज़ाम ने संस्कृति को राजनीति की दासी और अधिक से अधिक उसे सत्ता के महिमामंडन और शोभा की चीज़ बना दिया है.

सीएए के लाभार्थियों की जानकारी सहज उपलब्ध नहीं: केंद्रीय गृह मंत्रालय

11 दिसंबर, 2019 को संसद द्वारा पारित सीएए के नियमों को गृह मंत्रालय ने 2024 के आम चुनावों की घोषणा से कुछ दिन पहले अधिसूचित किया था. अब एक आरटीआई आवेदन के जवाब में मंत्रालय ने कहा कि इसके लाभार्थियों की जानकारी सहज उपलब्ध नहीं है.

हरियाणा की 36 बिरादरी का भाईचारा इस बार क्या बदलाव लेकर आएगा

हरियाणा चुनाव में 36 बिरादरियों के भाईचारे का नारा सामाजिक बदलाव का संकेत दे रहा है, लेकिन आने वाला समय ही बताएगा कि चुनाव के बाद की राजनीति में यह परिवर्तन कितना फलीभूत होगा.

हिंदी भाषा में उत्कृष्ट अकादमिक शोध कहीं कम क्यों है?

'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' के नारे के ज़रिये हिंदी का प्रभुत्व और दबदबा बनाने की बात बहुत हुई, लेकिन इससे हिंदी को कुछ भी ठोस नहीं मिला है.

हिंदी को हिंदीवाद और राष्ट्रवाद से मुक्त किए बगैर भाषा का पुनर्वास असंभव

दुनिया में शायद हिंदी अकेली भाषा है जहां सेवक पाए जाते हैं. हिंदी में शिक्षक हो, पत्रकार हो या लेखक, हिंदी की सेवा करता है, उसमें काम नहीं करता.

मुक्तिबोध के आईने से: जनतंत्र का पहला और आख़िरी सवाल

अपूर्णता का एहसास मनुष्य के होने का सबूत है. समस्त प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य है जिसे अपने अधूरेपन का एहसास है. यह उसे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की प्रेरणा देता है.

कौन रंक, कौन सर्वहारा, कौन मुफ़लिस, कौन दिवालिया और कौन दरिद्र?

गरीबी आम तौर पर एक ऐसी स्थिति है जिसके शिकार व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पास जीने के लिए आवश्यक बुनियादी चीजें नहीं होतीं, जबकि रंक के साथ गरीबी से पैदा हुई 'कंगाली में आटा गीला' वाली गिरानी से भरी भीषण असहायता भी जुड़ी होती है.

मुक्तिबोध की उपस्थिति के तीन क्षण

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज कर उसे बेझिझक ज़ाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता की कविता है.

नंदकिशोर नवल: साहित्य की सुगंध

जन्मदिन विशेष: आलोचक नंदकिशोर नवल प्रथमतः और अंततः साहित्य की दुनिया के वासी थे. वही उनका ओढ़ना-बिछौना था. कहा करते थे कि आप किसी के क़रीब जाने पर उसकी गंध से जान सकते हैं कि वह साहित्य का आदमी है या नहीं. उन्हें याद करते हुए इस गंध को महसूस किया जा सकता है.

यूपी: दो दलित लड़कियों के शव पेड़ से लटके मिले, परिजनों का ख़ुदकुशी के दावे से इनकार

घटना फ़र्रुखाबाद ज़िले के कायमगंज के एक गांव की है, जहां 15 और 18 साल की दो दलित लड़कियां सोमवार रात जन्माष्टमी की झांकी देखने गई थीं और वापस नहीं लौटीं. अगली सुबह एक ही दुपट्टे से बंधे उनके शव पेड़ पर लटके मिले. परिवार ने आत्महत्या के दावे को ख़ारिज करते हुए हत्या का आरोप लगाया है.

साहित्य की नागरिकता ऐसी विशाल नागरिकता से घिरी है, जिसे उसके होने का पता ही नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.

दलित-आदिवासी का हर अपमान एससी/एसटी क़ानून के तहत अपराध नहीं माना जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम तब लागू होगा जब पीड़ित को जानबूझकर इसलिए अपमानित किया गया हो क्योंकि वह एससी/एसटी समुदाय का सदस्य है.