वर्ष 2009 में सुप्रीम कोर्ट में जजों की स्वीकृत संख्या 26 से बढ़ाकर 31 की गई थी, इसके बावजूद 2013 तक लंबित मामलों की संख्या 50,000 से बढ़कर 66,000 हो गई. इसके बाद, 2019 में जजों की संख्या बढ़ाकर 34 कर दी गई थी. वर्तमान में लंबित मामलों की संख्या 82,831 है.
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राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के ‘प्रोजेक्ट 39ए’ के तहत जारी वार्षिक सांख्यिकी रिपोर्ट के मुताबिक, सबसे अधिक मौत की सज़ा उत्तर प्रदेश में (100 दोषियों को) सुनाई गई. वहीं, गुजरात में 61, झारखंड में 46, महाराष्ट्र में 39 और मध्य प्रदेश में 31 दोषियों को मौत की सज़ा दी गई है.
साल 2018 के एक मामले की सुनवाई के दौरान जब वकील ने स्थगन की मांग की तो सर्वोच्च न्यायालय ने नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए कहा कि इसी वजह से अदालत बदनाम होती हैं. वकील तारीख़ पर तारीख़ मांगते हैं और हम पर केस का बोझ बढ़ता जाता है. न्यायालयों में इसलिए मामले लंबित पड़े हैं, क्योंकि मामले में दलीलें नहीं पेश की जाती हैं.
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के आंकड़ों के मुताबिक, 31 दिसंबर 2019 से 31 दिसंबर 2020 के बीच सुप्रीम कोर्ट में 10.35 फ़ीसदी, 25 हाईकोर्ट में 20.4 फ़ीसदी और जिला न्यायालयों में 18.2 फ़ीसदी लंबित मामले बढ़े हैं.
कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना कि एक अभियुक्त के स्मार्टफोन, लैपटॉप या ईमेल खाते की जांच के लिए एक सर्च वारंट आवश्यक है. जांच में सहयोग के लिए केवल एक ट्रायल कोर्ट के आदेश के माध्यम से एक अभियुक्त को उसके गैजेट्स या खातों के पासवर्ड/पासकोड का खुलासा करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है.
नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के आंकड़ों के मुताबिक देश भर की विभिन्न अदालतों में 6.60 लाख मामले 20 साल से ज़्यादा समय और 1.31 लाख मामले तीन दशकों यानी कि 30 साल से भी ज़्यादा समय से लंबित हैं.
अपराध सुधार के लिए काम करने वाले एक समूह के अध्ययन में सामने आया है कि दिल्ली की निचली अदालतों द्वारा साल 2000 से 2015 तक दिए गए मृत्युदंड के 72 फीसदी फ़ैसले समाज के सामूहिक विवेक को ध्यान में रखते हुए लिए गए थे.
लोकसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में विधि एवं न्याय मंत्रालय की ओर से पेश आंकड़ों के अनुसार, वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में 59,867 मामले लंबित हैं, जबकि हाईकोर्ट में 44,76,625 मामले और ज़िला एवं निचली अदालतों में 3.14 करोड़ मामले लंबित हैं.