बस्ती: जब किसानों ने जमींदारों को पानी पिलाया!

आज़ादी से पहले बस्ती जिले में जमींदारों ने किसानों व मजदूरों को 'सबक' सिखाने के लिए यह कहकर कुंओं व तालाबों से पानी लेने पर रोक लगा दी कि उनसे पानी लेने का उनका कोई हक नहीं बनता. लेकिन किसानों ने इस रोक के विरुद्ध अप्रत्याशित रूप से नई रणनीति अपनाकर उलटे ज़मींदारों को ही पानी पिला दिया था.

यह बरस भी रहा उन किताबों के नाम जिनसे गुजरा था अरसा पहले

एक पाठक के तौर पर फर्नान्दो पेसोआ लेखकों-किताबों की बनती-बिगड़ती रहने वाली मेरी उस लिस्ट में हमेशा शामिल रहा है जिन्हें हर साल पढ़ा-गुना जाना होता है.

कुछ किताबें इस बरस

इस साल पेंगुइन स्वदेश ने हिंदी और भारतीय भाषाओं में कई किताबें प्रकाशित की हैं. 2024 के अपने हासिल का लेखा-जोखा दे रही हैं पेंगुइन रेंडम हाउस इंडिया’ में भारतीय भाषाओं की प्रकाशक वैशाली माथुर.

वर्ष 2024: संविधान और आंबेडकर की केंद्रीयता का वर्ष

वर्ष 2024 भारतीय राजनीति में संविधान और आंबेडकर की केंद्रीयता का वर्ष रहा. लोकसभा चुनाव संविधान के प्रावधानों और उसकी रक्षा के मुद्दे पर लड़ा गया. विपक्ष ने संविधान और आरक्षण पर खतरे को जोर-शोर से उठाया, जबकि सत्तापक्ष हिंदुत्व के मुद्दे पर रक्षात्मक रहा. लेकिन इसे चुनावी रणनीति तक सीमित रखना जनता के साथ एक छलावा होगा. जरूरत है कि संविधान और बाबा साहेब पर केंद्रित इस बहस को परिवर्तनकामी दिशा देने की.

पत्रकार से कवि की यात्रा: ‘मैं बस तुकांत और अतुकांत पद्य में अपना समय दर्ज कर रहा हूं’

बिहार के प्रतिनिधि पत्रकार संतोष सिंह अपनी धारदार ख़बरों के लिए जाने जाते हैं. उनके हालिया प्रकाशित कविता संग्रह ने उनके एक नए रूप से हमें परिचित कराया. अपने कवि-कर्म पर उन्होंने यह ख़ास लेख लिखा है.

इस साल हिंदुत्व व पूंजी की सत्ताओं ने राजसत्ता के अतिक्रमण की हदें ही पार कर डालीं!

इस साल की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हिंदुत्व की छतरी के नीचे पली-बढ़ी धर्म व पूंजी की सत्ताओं ने हमारे राष्ट्र-राज्य की सत्ता के अतिक्रमणों के नए कीर्तिमान बना डाले हैं और कहना मुश्किल है कि इससे पैदा हुए उलझावों को सुलझाने में देश को कब तक व कितना हलकान होना पड़ेगा.

सुलगता मणिपुर, कराहता फ़िलिस्तीन और धर्मांध राजनीति: कहां हुआ न्याय इस बरस

यह साल चुनावों का साल रहा, लेकिन चुनावी रैलियों से मणिपुर की हिंसा गायब रही. बस्तर में मुठभेड़ होते रहे लेकिन दिल्ली बैठी आवाज़ें ख़ामोश रहीं. अन्य देशों में भी यह साल युद्ध के दलदल में फंसा रहा. युद्ध पीड़ितों को खाना देने वाले संस्थाओं तक पर इस्रायल ने हमला किया.

बस्तर का जीवन: ‘हमारे हिस्से का सूरज थोड़ा और गहरा, अधिक लाल होता जा रहा है’

बस्तर में 2024 आदिवासी स्त्रियों के हिस्से अत्याचार का एक नया अध्याय- उन्हें दर्दनाक मौत की सज़ा देने की शुरुआत का साल है. नक्सली संगठनों ने अपनी रणनीति में यह कैसा बदलाव किया है यह तो वही समझ सकते हैं, पर अब आदिवासी स्त्रियां उनके निशाने पर हैं.

साल 2024: फिल्में जो सामाजिक मुद्दों और असल शख़्सियतों की प्रेरणा से बनी

हिट और फ्लॉप की लिस्ट से इतर इस साल कई ऐसी फिल्मों पर भी लोगों की नज़रें टिकीं, जो समाजिक मुद्दों और असल शख्सियतों की प्रेरणा से बनी फिल्में थीं. कुछ ऐसी ही फिल्मों पर एक नज़र डालते हैं...

वर्ष 2024 का रंगमच: छोटे शहरों की अनकही दास्तान

हिंदी समाज हर शहर में एक नौजवान भी नहीं तैयार कर पा रहा है जो अपने शहर के रंगमंच से राब्ता रखकर उसका विश्लेषण या परिचय हिंदी के पाठक को उपलब्ध कराता रहे. शिक्षण संस्थान क्या कर रहे हैं? रंग समूह शैक्षणिक परिसर से जुड़ने के लिए क्या कोशिश कर रहे हैं? क्या हिंदी साहित्यकारों का अपने शहर के रंगमंच से कोई वास्ता है?

साल 2024 का भारतीय खेल जगत: विनेश की त्रासदी, गुकेश का करिश्मा, हॉकी और क्रिकेट में बड़ी जीत

साल 2024 में भारत के लिए क्रिकेट से लेकर टेनिस की दुनिया तक खेल जगत में क्या कुछ खास रहा. हमने क्या उपलब्धियां हासिल की और किन खिलाड़ियों ने अखबार की सुर्खियों में अपने लिए जगह बनाई. इस सब पर एक नज़र...

जिसने सिनेमा की नई भाषा को रचा

श्याम बेनेगल हर बार एक नए विषय के साथ सामने आते थे. 'जुनून' (1979) जैसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली फ़िल्म के तुरंत बाद उन्होंने 'कलयुग' (1981) में महाभारत को आधार बनाकर आधुनिक दुनिया में रिश्तों की पड़ताल की और फिर 'मंडी' (1983) में कोठे के जीवन का प्रामाणिक चित्रण किया.

सूरज के सातवें रथ पर सवार होकर चले गए श्याम बेनेगल, भारतीय गणतंत्र का सपना हुआ लुप्त

श्याम बेनेगल उस पीढ़ी के सिनेकर्मी थे जिसने आज़ाद भारत के उभरते सपनों के बीच सांस ली. एक समतावादी, लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति का सपना, एक धर्मनिरपेक्ष-जातिविहीन मूल्य-संहिता का सपना, नेहरू की कविता और गांधी की करुणा का सपना. उनके निधन के साथ उस युग के एक सपने का भी अंत हो गया.

ज़ाकिर हुसैन का जाना शास्त्रीयता और मूर्धन्यता दोनों की समान क्षति है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज़ाकिर हुसैन के वादन ने युवाओं के बीच जो लोकप्रियता हासिल की वह भी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दुर्लभ उपलब्धि है. आधुनिकता ज़ाकिर के यहां हस्तक्षेप नहीं है, वह निरंतरता का कल्पनाशील विस्तार है- सहज और अनिवार्य.