जिसने सिनेमा की नई भाषा को रचा

श्याम बेनेगल हर बार एक नए विषय के साथ सामने आते थे. 'जुनून' (1979) जैसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाली फ़िल्म के तुरंत बाद उन्होंने 'कलयुग' (1981) में महाभारत को आधार बनाकर आधुनिक दुनिया में रिश्तों की पड़ताल की और फिर 'मंडी' (1983) में कोठे के जीवन का प्रामाणिक चित्रण किया.

गगन गिल को अकादमी सम्मान: 70 साल में सिर्फ़ दो स्त्रियाँ कवि के तौर पर पुरस्कृत हो पायीं?

गगन गिल को मिला पुरस्कार हिंदी साहित्य के नेपथ्य में बजते उस पुरुष वर्चस्ववाद को भी एक चेतावनी है, जो आज तक न ब्राह्मणवाद से आगे निकल पाया है और न ही मनुवाद से. आज राजनीति में तो स्त्री अधिकारों का प्रश्न बहुत सशक्त ढंग से उठ रहा है, लेकिन साहित्य का संसार इससे अछूता है.

सूरज के सातवें रथ पर सवार होकर चले गए श्याम बेनेगल, भारतीय गणतंत्र का सपना हुआ लुप्त

श्याम बेनेगल उस पीढ़ी के सिनेकर्मी थे जिसने आज़ाद भारत के उभरते सपनों के बीच सांस ली. एक समतावादी, लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति का सपना, एक धर्मनिरपेक्ष-जातिविहीन मूल्य-संहिता का सपना, नेहरू की कविता और गांधी की करुणा का सपना. उनके निधन के साथ उस युग के एक सपने का भी अंत हो गया.

ज़ाकिर हुसैन का जाना शास्त्रीयता और मूर्धन्यता दोनों की समान क्षति है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज़ाकिर हुसैन के वादन ने युवाओं के बीच जो लोकप्रियता हासिल की वह भी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दुर्लभ उपलब्धि है. आधुनिकता ज़ाकिर के यहां हस्तक्षेप नहीं है, वह निरंतरता का कल्पनाशील विस्तार है- सहज और अनिवार्य.